Sunday, January 22, 2017

सनातन धर्म का तत्व ज्ञान

भूमिका

आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी

पाश्चात्य चिन्ताधारा उन्नत, आधुनिक एवम् वैज्ञानिक हैं , यह विचारधारा न केवल भारत में अपितु सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है | पाश्चात्य का निष्प्राण साम्यवाद, नास्तिक विज्ञान और प्राद्यौगिकी ने समस्त मनुष्यों के शरीर और मन और बुद्धि को विकृत कर दिया है । विज्ञान मनुष्य के आध्यात्मिक विकास का दूसरा चरण है, प्रथम ज्ञान और तृतीय प्रज्ञान | जैसे शरीर का विकास मानव शरीर के रूप में संपूर्ण हुआ है उसी तरह बिना आध्यात्मिक विकास के मनुष्य पूर्ण नहीं हो सकता | इसलिए अन्तर्ज्ञान , विकसित बुद्धि, ज्ञान, भक्ति, विज्ञान और प्रज्ञान प्राप्त होने से पूर्ण मानवत्व का लाभ होता है | इनके पूर्ण हुए बिना किसी को विकसित मानव कैसे कहा जा सकता है? विज्ञान विकास का अंतिम चरण नहीं है | आज हम भौतिक पदार्थों के निर्माण की दौड़ को विज्ञान समझ रहे है क्या यह सत्य है ? पदार्थ निर्माण अवश्य ही मानव की एक उच्च स्तरीय उपलब्धि है , लेकिन क्या यह विज्ञान का अंतिम चरण है | यही कारण है कि टेक्निक या टेक्नोलोजी को विज्ञान समझना सम्पूर्ण सत्य नहीं है | विज्ञान मानव की विकसित विचारों  का नाम है जो प्रकृति की संतान है | प्रकृति के बिना उसे विकृति कहते हैं | लेकिन आज, अधिकांस लोग विकृति को विज्ञान समझकर उसके पीछे दौड़ना शुरू कर दिया, जो महा विनाशकारी है | विज्ञान नहीं, प्रौद्योगिकी अमीर, देश के लोगों के कहर का कारण है।

पार प्रजनन और क्लोनिंग

एक उदाहरण से यह समझा जा सकता है। २० वीं सदी के शेषार्ध में पश्चिमी देशों ने कृत्रिम खाद का उपयोग शुरू किया, गायों और भैंसों का पार प्रजनन, और कृत्रिम भोजन खाने से उनके मस्तिष्क इतने भारी हो गये है कि पिट्यूटरी और थायरॉयड ग्रंथि निष्क्रिय हो गए हैं और वे विकृत शरीर और विकृत मन के शिकार होते जा रहे हैं | अमेरिका आदि देशों में एसा कोई देश नहीं है जहां कृत्रिम खाद का उपयोग नहीं कर रहे हैं । प्राकृतिक खाद के लिए प्राकृतिक गाय नहीं है | इसलिए वे १० से २० गुना कीमत से भारत जैसे देशों से फल मूल और सब्जियों का आयात कर रहे हैं। प्राकृतिक साधन (जैविक) से उगाई गोभी विदेश में प्रति किलो 300 रुपये गाजर ४०० रूपये और चुकंदर ५०० रु. की कीमत से निर्यात किया जाता है | इंग्लैंड जैसे देशो में जर्सी गायों का संकरण जब १०० % पूरा हो गया, कि उनके शरीर की प्राकृतिक गुणवत्ता नष्ट हो गई और वे कृत्रिम और विषाक्त हो गये | फलस्वरुप मनुष्य असामान्य, मोटे, पतले, वीर्य हीन, खून की कमी प्रजनन क्षमता में कमी, आदि से प्रभावित हो रहे हैं |

प्रौद्योगिकी, प्रदूषण और गुरुत्वाकर्षण

न केवल पृथ्वी अपितु आकाश को भी प्रौद्योगिकी पर्यावरण को नष्ट कर रहें हैं | हवाई जहाज के 30 से 35 हजार फुट या १० की.मी. पृथ्वी से ऊपर और करीब ८ की.मी. ओज़ोन परत के नीचे उड़ कर कार्बनडाइऑक्साइड से प्रदूषित कर रहे हैं | मृत्यु के यम के समान रॉकेट्स और उपग्रह आकाश में कार्बन डाइऑक्साइड गैस पैदा कर ओज़ोन परत में भयानक छेद कर रहे हैं | लाखों की संख्या में ये यंत्र कार्बन डाइऑक्साइड छोड़कर पर्यावरण को प्रदूषित कर गरूत्वाकर्षण बल के प्रवाह में बाधा पंहुचा रहे है | यह ब्रह्माण्ड गरूत्वाकर्षण बल के प्रवाह में घूम रहा है जहां विघ्न पड़ने से भूकंप, अतिवृष्टि या अनावृष्टि, तूफान उल्कापात जैसे आपदाओं की सृष्टि होगी | हमें ज्ञात होना चाहिए कि शक्ति जो वातावरण में प्रदूषण का तनुकरण कर सकती है वह इसे नष्ट भी कर सकती है। “तनुकरण ही प्रदूषण का हल है” | पृथ्वी में प्रति मुहुर्त प्रदूषण हो रहा है और यह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण नष्ट कर रहा है। गुरुत्वाकर्षण प्रदूषण को तनुकरण करने में सक्षम है | लेकिन पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से दो किलोमीटर की दूरी पर सक्रिय है। यदि प्रदूषण ज्यादा होकर गुरुत्वाकर्षण की सीमा से बाहर जाये, तब वह आकाश में चला जाता है | किन्तु आकाश में प्रदूषण को कौन नष्ट करगा ? वहां पर ग्रहों से प्रदूषण ब्रह्माण्ड के विनाश का कारण होकर, रॉकेट्स, विमान आदि से उत्सर्जित कार्बन ओज़ोन परत (चन्द्र लोक या पितृ लोक ) को नष्ट कर देता है | ओज़ोन परत में छेद होने के सूर्य किरणों की गर्मी पृथ्वी पर सीधे आने के परिणामस्वरूप ग्लेशियरों का पिघलना बढ़ गया है | फलस्वरूप समुद्र का जलस्तर इस तरह बढ़ रहा है की शीघ्र ही कई द्वीप बांग्लादेश, केलिफोर्निया, होनोलूलू जलमग्न होंगे और फिर हमारे घर भी जल में डूब जायेंगे | यही महाप्रलय है। इन तथ्यों को मैंने २००३ में कलकत्ता के प्रेस क्लब  में कहा था कि अगले 15 वर्षों में दक्षिण एशिया के  द्वीप समूह बांग्लादेश जैसे कम ऊंचाई के देश जल में डूब जायेंगे | असम, उप-हिमालयी उत्तर बंगाल विध्वंश होकर एशिया का मानचित्र बदल जाएगा | वह सम्मेलन उस समय के सभी संवाददाता सम्मेलनो में सबसे बड़ा था | उस दिन ४६ मीडिया उपस्थित थे | राष्ट्रपति निक्सन के संवाददाता सम्मेलन में केवल ३० मीडिया थे | उस संमेलन में मैंने वैज्ञानिको को संबोधित किया था कि भूकंप का कारण भूमि के नीचे प्लेट-थिओरी में ढूड़ने से कोई लाभ नहीं है | प्लेट भूकंप के कारण नहीं अपितु परिणाम है, कारण तो महाकाश में है | धूप, वर्षा , तूफान और उल्कापात जैसे आकाश से होते हैं भूकंप भी उसी तरह आकाश से संचालित होते हैं। गुरुत्वाकर्षण में विचलन ही भूकंप का कारण है| इसलिए, वैज्ञानिकों को आकाश में भूकंप लिए खोज करना चाहिए | प्रदूषण पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से नष्ट होता है | किन्तु उससे भी बड़ा एवं मनुष्य के लिए हानिकारक प्रदूषण है ध्वनि प्रदूषण और मनुष्य के विचारों का प्रदूषण | यह भी प्रौद्योगिकी के कुप्रभाव है। इन विचारों को हमारे विभिन्न लेखों में आलोचना किया गया है |

ध्वनि और भाव प्रदूषण

ध्वनि प्रदूषण मानव के ज्ञान, बुद्धि और विचारों को नष्ट करता है । मनुष्य के भावना का प्रदूषण और भयंकर है | विचारों की गति में प्रदूषण समस्त विश्व में फैल जाता है । भाव के गति में भविष्य नहीं रहता | इसलिए भाव का प्रदूषण इतना भयानक है | इस प्रदूषण को रोकने के लिए प्रौद्योगिकी में अंकुश लगाना होगा | प्रौद्योगिकी ही विनाश का मुख्य कारण है । आज हम जिसको उन्नति कहते हैं वह उन्नति नहीं है। लेकिन विनाश के मुहं में धकेल देना है | प्राकृतिक क्रिया में ही विज्ञान है | विकृति उन्नति भी नहीं , विज्ञान भी नहीं।

मानव विकास का अंतिम चरण

जैविक विकास मनुष्य के रूप में लगभग पूरा हुआ है। लेकिन पूर्ण मानवता के लिए आध्यात्मिक विकास अभी शेष है। प्रज्ञान आध्यात्मिक विकाश का अंतिम चरण है | मानव का देहिक विकास जैसे हाथ, पैर, आंख, कान, नाक, आदि सम्पूर्ण है | देह के अन्दर के क्रिया कलाप भी स्वछंद चल रही हैं | इनके उन्नति या परिवर्तन का कोई प्रयोजन नहीं है | अतएव मानव का जैविक विकाश पूर्ण हुआ है | लेकिन बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास का प्रयोजन है। अन्य जीवों के भी पाँच इंद्रियां हैं। मानव के पांच ज्ञानेद्रिय उसके बौद्धिक पक्ष में है | मन, बुद्धि, ज्ञान, विज्ञान, और प्रज्ञान आत्मिक हैं | इनके विकाश को आत्मिक विकाश कहते हैं | ये सभी आत्माओं में हैं | लेकिन प्रत्येक को अपने अपने क्षेत्र में, जैसे कृषि में भूमि में उत्पादन प्रक्रिया को विकसित करने के समान प्रयास करना होगा। इस तरह संपूर्ण होने से ही एक मानव के रूप में मान्यता प्राप्त कर सकते हैं।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हमने अत्यंत उन्नति की  है किन्तु प्रज्ञान लाभ न करने से एक सम्पूर्ण मानव कैसे हो सकते हैं | उस पूर्ण अवस्था को पाने के लिए आत्मा का अनुशीलन करना पड़ेगा | धर्म या आत्मा स्वयं के देह में है। उसके लिए कोई यंत्र या अस्त्र का प्रयोजन नहीं है। अपने प्रयासों से ऐसा हो सकता है। प्रदौगिकी में अंकुश लगाकर अभी तक हुए क्षति का संसोधन के लिए धर्म का अनुशीलन करना ही पड़ेगा | सनातन धर्म ने मानव के अंतिम चरण में पहुँचने के लिए भावातीत ध्यान आदि की सवोततम व्यवस्था है | सबसे पहले नाम भजन कीर्तन,पूजा, यज्ञ, ध्यान आदि के अनुशीलन करने का प्रयोजन है | इन विषयों की आलोचना के लिए "सनातन धर्म" पुस्तिका को ग्रंथित किया गया है | इनके लिए व्यापक विचार-विमर्श की आवश्यकता है। पुस्तक को लघु बनाने के लिए इनका संक्षेप में वेविचना किया गया है | यदि पाठक व्यापक करना चाहते हैं तो भविष्य में विस्तार कर सकते हैं | पाठकों की स्वीकृति से मैं अपने परिश्रम को सार्थक समझुंगा | हमारी त्रुटियों  को इंगित करने के लिए विनम्र अनुरोध है |


ऋषि पूर्णिमा २४/८/२०१०
भ्रिगुगिरि


सनातन धर्म

सनातन धर्म क्या है ?

सनातन का अर्थ है नित्य | नित्य जो सर्वदा था सर्वदा है और सर्वदा रहेगा | नित्य सत्य है, सत्य शाश्वत है, शाश्वत अविनाशी है, अविनाशी आत्मा है | आत्मा सत्य है, सनातन है और नित्य वर्त्तमान ब्रह्म है | विश्व के आदि ग्रन्थ वेदों ने हमें इन वचनों की शिक्षा दी है | सनातन जगत की सृष्टी से पहले था, जगत की सृष्टी पालन व विध्वंश का कारण है, जो स्वयं में ही विलीन हो जाता है | यह क्रिया भी नित्य है | चैतन्य शक्ति या परा-प्रकृति जिसके द्वारा जगत जीवंत होकर क्रियान्वित होती है वही सनातन आत्मा है | आत्मा के द्वारा ही श्रृष्टि जगत दृश्यमान, क्रियावान और भाष्य्मान हुआ है | विज्ञान एवं प्रज्ञान के जनक  वेदों ने इन बातों का अति सुन्दर वर्णन किया है। आत्मा चिरनन्तन ,अनादि, अनन्त और सनातन है | आत्मा ही जगत है, आत्मा ही ब्रह्मांड है और आत्मा ही ब्रह्म है | वेद ने कहा है कि जब कुछ भी नहीं था तब केवल एक आत्मा ही विचरण करता था | आत्मा के बिना कुछ भी नहीं था | वेदों के अनुसार "ॐ आत्मैव इदमेकं एवाग्र आसीत, न्यात किञ्चन विश्वत, से ईक्षत लोकानु सृजा इति” | सबसे पहले, एकमात्र अकेले आत्मा ही था। उसके सिवा कुछ भी नहीं था।

सृष्टी

ॐ  ईशावास्यम् इदं सर्वम् यत् किं च जगत्यां जगत् ।  
पृथ्वी पर जो भी क्रियावान है दृश्यमान है वह सब ईश्वर से आच्छादित है | उनको  सृष्टी कर बहुत होने की इच्छा हुई | एक से अनेक होने की उनकी इच्छा से वे अनेक हुए | इन अनेक को ही जगत, संसार  ब्रह्मांड, ईत्यादी  कहा गया है। वे ही पहले दो हुए | दो से ही उनके तीन रूप हुए | तीन होना चाहने से उनके पांच रूप हुए | एक पदार्थ को गिनने के लिए उसके दोनों तरफ खाली होने चाहिए । अन्यथा एक आयाम से किसी रूप को कैसे समझा जा सकता है। उसी तरह दो होने से बीच का एक स्थान और दो पक्ष खाली होना होगा, इस तरह दो से पांच होंगे | इसी को पंचीकरण कहते हैं | ये ही आयाम हैं | आयाम की लंबाई और चौड़ाई होती है।


सृष्टि के प्रधान मौलिक तत्व का नाम है वायु | वायु के रूप एवं कार्य परिवर्तन के साथ नाम बदल गया है, जैसे आकाश, वायु, तेज, आप और पृथ्वी | सृष्टि तत्त्व के सिद्धांत पर इन विषयों पर विचार किया जाएगा। वेदों में भी सर्वप्रथम आत्मा का उल्लेख किया गया है वह वायु है । आत्मा बहुत होते समय प्रथम तीन हुए | अ, ऊ और  म ही ॐ है । अ ऊ म ही ब्रह्मा विष्णु, महेश हैं । इस तरह तीन रूप मिलकर जीवात्मा या लिंग शरीर हुआ | जीवात्मा का विकास का आधार तीन भागों के रूप में हुआ है। सिर, छाती, पेट | रूप धारण करने के लिए पांच तत्त्व और पांच प्रक्रियाओं का प्रयोजन है | तत्व या मूल एवं प्रक्रिया न होने से पदार्थ एवं उसका रूप नहीं हो सकता। इसलिए, सबसे पहले परात्पर तत्व से परातत्व नाद की स्रष्टि हुई । नाद से आकाश बना। गतिमान ही ब्रह्मांड का नाम है, इसलिए, सृष्टि के पश्चात आकाश गतिमान हुआ। गति का अर्थ है वायु । गतिमान होकर आकाश का नाम वायु हुआ | वायु गतिमान होकर तीव्रतम होने से उसे तेज (अग्नि) कहा गया | नाम परिवर्तन के साथ साथ रूप एवं क्रिया परिवर्तन भी स्वाभाविक है ।तेज का दूसरा नाम अग्नि है । अग्नि की गर्मी से भाप के सृष्टि हुई । भाप के रूप परिवर्तन से उसका नाम हुआ अम्बु (नीर,नार,जल ) | अनेक होने की आकांक्षा या इच्छा से गति सृष्टि करना आत्मा आकाश, वायु से जब तेज हुआ अर्थात गति ने प्रचंड रूप लिया गति में मंथन या घर्षण हुआ, घर्षण की तीव्रता से उत्ताप या तेज की सृष्टि हुई। किसी पदार्थ में तीव्र घर्षण न करने से अग्नि की सृष्टि नहीं होती है। अग्नि केवल घर्षण का ही फल है | अग्नि का अर्थ गर्मी है, गर्मी ही जीवन है, और ठंड मृत्यु , अग्नि का अर्थ मंथन, घर्षण | अग्नि का अर्थ अंतिम घर्षण है। घर्षण करने से इसकी गुणवत्ता उष्ण होती है, उष्णता का परिणाम ही सृजन है। अग्नि पदार्थों को जलाकर राख में परिणित करता है, यथार्थ में एसा नहीं है । आग के प्रचंड घर्षण से पदार्थ के अणु अति सूक्ष्मती सूक्ष्म हो जाते है। जिस पंचतत्व की स्रष्टि हुई है, उसका पृथ्वी तत्त्व सूक्ष्म राख होकर पृथ्वी में रहता है, और बाकि चार तत्त्व का सूक्ष्म से सूक्ष्म शक्तिशाली होकर वायु के सामान आत्मा बनकर वायु में मिल जाता है | वैदिक ऋषियों की यज्ञ की कल्पना भी वही है | अल्प पदार्थ को बहु करना, पाचन क्रिया का उपयोग न करके सब जीव खाकर शरीर पुष्ट करना, एक समान वितरण के श्रेष्ट भाव लेकर अपने आप को उन्नत करना, देश की उत्पादक क्रिया की वृद्धि करना  और अपना कल्याण करना | सबसे महत्वपूर्ण तथा कल्याणकारी कार्य वस्तुगत शब्द एवं भाव का प्रदूषण ध्वंस करना ये वैज्ञानिक बुद्धि धारा से वैदिक ऋषियों ने यज्ञ की सृष्टि एवं प्रचलन किया था | किन्तु आज हमारी उस वैज्ञानिक बुद्धि का ह्रास हुआ है। आजकल शैक्षणिक ज्ञान को ही सर्वश्रेष्ट ज्ञान सोचकर हम अभिमन्यु के समर्थक हो गए हैं | वैज्ञानिक दृष्टी में गंभीरता न होने के कारण हम लोगों से कहते हैं कि खाद्य वस्तुओं को यज्ञ की आग में जलने से नष्ट किया जा रहा है | महत्वपूर्ण बात यह है कि हम अपने ही वाणी पर नियंत्रण करना चाहिए। अज्ञानवश केवल पुस्तकीय ज्ञान या लोगों की बातें सुनकर कोई वक्तव्य सार्वजनिक रूप से नहीं किया जाना चाहिए। इस प्रकार दायित्व-ज्ञानहीनता से समाज को काफी क्षति होती है।

यज्ञ का महत्व

यज्ञ, आध्यात्मिक विज्ञान की जगत कल्याण के लिए एक पद्धति है । यह किसी भी जाती या समुदाय की संपत्ति नहीं है। ये कल्याणकारी कार्य समदृष्टि ऋषि हम सबको करने के लिए कह कर गए हैं | किन्तु आधे-अधूरे ढंग से नहीं | शुद्ध, उपुक्त लोग ही इस कार्य को उपुक्त तरीके से कर सकते हैं | कोई भी यह दावा नहीं कर सकते हैं कि वर्तमान में जो भी यज्ञ आयोजित किये जा रहे हैं वे पूरी तरह से त्रुटि हीन हैं। यज्ञ एक मंथन कार्य (घर्षण) है, जिसमे उष्णता उत्पन्न होती है और पदार्थ सूक्ष्म रूप प्राप्त करते हैं | जो पदार्थ अग्नि में डाले जाते हैं वे सूक्ष्म से सूक्ष्म होकर वायू के साथ मिलकर सांस के साथ जीवित प्राणियों के शरीर में प्रवेश कर उनका पोषण करते हैं | औषधीय जड़ी बूटियों को भी यज्ञ में डालने से कई रोगों का सार्वजनि निवारण और संसाधन होता है | हम खाद्य मुंह से खाते हैं और पेट में पाचन क्रिया द्वारा हजम कर शरीर की पुष्टि करते हैं | अगर पाचन तंत्र में समस्या है, तो भोजन ठीक से पचता नहीं है और खाना पूरी तरह से शरीर में अवशोषित नहीं होता है। कुछ लोग आवश्यक खाना न खाकर भारी खाना खाने से कुपोषण से ग्रस्त होते हैं | बच्चे, रोगी व वृद्धि लोग आवश्यक खाद्य नहीं खा सकते हैं। दरिद्र भी खाना न मिलने से भी अपुष्टि से ग्रसित होते हैं | सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर किसी पदार्थ की गुणवत्ता सहश्र गुन किया जाये तो कम वस्तु को ज्यादा लोग खा सकते हैं | यज्ञ इन सब आभाव को पूर्ण करता है।


सनातन धर्म किसी कार्य को विज्ञान के बिना नहीं होता है | लोक कल्याण के सभी कार्यों को धर्म ने मान्यता दी गई है | जाति का निरूपण भी गुणात्मक वृत्ति  के आधार पर किया गया था। गीता में कृष्ण ने कहा है कि , “चातुवर्णं मया सृष्टं गुण कर्म विभागशः”। गुणवत्ता क्या है?किसने कितने विश्वविद्यालय की डिग्री लिया या कितना महान नौकरी कर रहा है, या कितना बड़ा नेता है? इस तरह के गुण की बात नहीं की गयी है | यहाँ वर्ण शब्द का अर्थ रंग, आभा से मानव होने समझाया है। सृष्टि की आदि अवस्था को अनुधावन कर यह स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है | ऋग्वेद वेद में नासदीय सूक्त इस आदिम रूप का वर्णन बहुत ही स्पष्ट भाषा में किया है | सृष्टि के और म्भ में कहीं कुछ भी न था | केवल एक सपन्दन था जो अपने ही स्पन्दन में स्पन्दित था | इस स्पन्दन से एक नाद की सृष्टी हुई, एक अविरत नाद | नाद से काले अंधकार की सृष्टि हुई उसके पश्चात उज्ज्वल प्रकाश, और दोनों मिलकर नाम हुआ आकाश | यही शुभ्र वर्ण के कपूर गौरांग शिव या शिव के ह्रदय में काली के कृंतक हँसी (नाद) की कल्पना | सृष्टि के प्रथम रूप रंग या वर्ण की बात ही गीता में कृष्ण (काला) स्त्री लिंग काली किया गया है । तत्त्व में कोई लिंग भेद नहीं है समझने के लिए हैं कि हमने व्याकरण में लिंगभेद किया है। सृष्टी के मूल उपादान इस रंग के बारे में ही कृष्णा ने कहा है। गीता में कृष्ण प्रोटॉन और अर्जुन उपग्रह इलेक्ट्रॉन हैं। दोनों मिलकर अणु | काला और सफेद दोनों नकारात्मक रंग हैं। इस दो नकारात्मक रंग के साथ और दो सकारात्मक रंग है, जो इस जीव जगत की भरण पोशन करते हैं | एक हल्का पीला और अन्य लाल। पीला रंग रक्षाकारी और लाल रंग ऊर्जा सृष्टिकारी और शक्तिप्रदानकारी है। इसीलिए लाल रंग को क्षत्रिय (क्षेत्र रक्षक) कहते हैं और पीला रंग रक्षाकारी होने के कारण वैश्य बताया गया है। पीले रंग को आज विज्ञान में श्वेत रक्त कणिका और लाल रंग को लाल रक्त कणिका कहते हैं। आदि रंग काले को शूद्र और सफेद रंग को ब्राह्मण कहते हैं। आज के विज्ञान में कहा गया है कि काले रंग में रंग की अनुपस्थिति और सभी रंगों के मिलाने से सफेद रंग बनता है। इन्ही शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण रंगों के मिश्रण से सात रंगों की सृष्टि होती है। ये चार रंग सभी जीवित प्राणियों के शरीर में मौजूद हैं और उन रंगों की किरणें शरीर से लगातार बाहर आते हैं | शरीर में रहने से इसे आभा कहते हैं | नक्षत्रों से जो किरणें बाहर आती हैं उन्हें बह्मांडीय किरण या कॉस्मिक रे कहते हैं | सृजन और विनाश इस ब्रह्मांडीय किरण से होता है | इन चार रंगों के चक्र को भगवान कृष्ण ने वर्ण कहा है | इन रंगों में शरीर में जिस रंग की प्रमुखता होती है वह उस वर्ण या जाति का होता है। इस तरह गुण व कर्म के आधार पर जाति निर्धारित होता था | भावना और कर्म से ही मानव शरीर की आभा विकसित होती है। मानव शरीर की आभा के अनुसार ही स्वाभाव गुण और कर्म का नर्धारण होता था। ये आभा प्रत्येक शरीर में भिन्न भिन्न हैं। यहां तक कि अगर पिता की आभा वैश्य है, पुत्र की आभा ब्रह्मण हो सकती है, अपने ही प्रकृति और गतिविधि के आधार पर निर्भर करता है | इसी तरह यदि पिता की आभा ब्राह्मण है पुत्र की वही आभा हो अनिवार्य  नहीं है | यहां तक कि अगर पिता एक ब्राह्मण आभा है यह अनिवार्य नहीं है पुत्र भी उसी आभा का हो।


पौराणिक कथाओं, महाकाव्यों की भूल व्याख्या से मनुष्य की धारना भी भूल हुई है। यदि हम मानवीय उन्नति करना चाहते हैं तब इन सब का अर्थ निकलना पड़ेगा और उनका श्रद्धा से पालन करना पड़ेगा | शास्त्रों एवं धर्म की भूल व्याख्या द्वारा हम विभाजित होकर विपतगामी हुए हैं | हमको साधना से कुंडलिनी जाग्रत कर प्रज्ञान लाभ कर आत्मा को पहचाना पड़ेगा | आत्मा को पहचानने से ही धर्म के तत्त्व को जान सकते हैं | "धर्मस्य तत्वं निहित गुहायां" धार्मिक के सिद्धांत गुफा में पाया जा सकता है। यह गुफा एक पर्वत की गुफा नहीं है। इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना के बीच के छिद्र को कहा गया है | कुंडलिनी को जाग्रत कर सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से सहस्रास्त्र चक्र ले जाने से सृष्टि के सभी रहस्यों को साधक जान सकता है | इस क्रिया के द्वारा भौतिक विज्ञान, आध्यात्मिक विज्ञान के रहस्यों अर्थात विज्ञान पज्ञान के रहस्य जान सकते हैं। इस तरह के व्यक्ति से कुछ भी नहीं छिपा रहता        
है | धर्म अर्थात आत्म तत्त्व जानने के बाद इस तरह का व्यक्ति गुरु हो सकता है। पुस्तक पढ़के ज्ञान से अपने साथ दूसरों की भी नरक में गति होती है | साधनाहीन गुरु मानव का शत्रु है | सौभाग्य से मनुष्य जन्म लेकर भी ऐसे गुरु के प्रलोभन में आकर नरक के पथ गामी होना केवल दुर्भाग्य ही है | इसी को कहते हैं "लोभी गुरु लालची चेला पड़े नरक में ठेल्लम ठेला "|
मुनि बाल्मीकि द्वारा लिखित रामायण योग साधना का ग्रन्थ है। रामायण को सप्तकांड रामायण कहते  हैं | मानव की सात ग्रंथियां हैं। कुंडलिनी इन्ही सात ग्रंथियों को पार होते समय कई घटनाओं का अनुभव कराते हुए ऊपर उठता है | इस तरह कुंडलिनी (जीवात्मा) जाते जाते सहस्रास्त्र आत्मा के साथ संयुक्त होकर रंग (सूर्य) या अग्नि तेज तत्व जिससे पूरे जगत की सृष्टि हुई है, राम होकर पूर्ण प्रज्ञानी पुरुष होते हैं | शास्त्रों को पढ़कर ज्ञानी होना और साधना से प्रज्ञानी राम (आत्माराम) होने की बात लेकर रामायण लिखा गया है। शास्त्रों को पढ़कर पण्डित होने वाले मनुष्य को रावण और साधना कर प्रज्ञानी होने वाले को राम कहा गया है। हमारे अन्दर कुछ लोगों का कहना है कि केवल ईश्वर भक्ति से मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह सत्य नहीं है | आज हम जिसको भक्ति कहते हैं वह भक्ति नहीं है, भक्ति तो श्रद्धा, विश्वास और एकनिष्ठता (निष्ठावान) को कहते हैं। यह सभी कर्मों का आधार है अन्यथा, मनुष्य किसी भी उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर सकते हैं। इस तरह श्रद्धा, आग्रह एवं एकनिष्ठता से काम का परिणाम ज्ञान होता है । ज्ञान से सच्ची भक्ति का उद्भव होता है | कर्म के बिना ज्ञान संभव नहीं है | जिस कर्म से दिव्य ज्ञान होता है वह वेद में निर्देषित है | प्रारंभिक भक्ति सभी के जीवन में रहता है, जो ज्ञान रहित होने के कारण  प्राणी भूल जाता है। किन्तु कर्मोत्पादित ज्ञानहीं है क्ति स्थाई एवं विज्ञान और प्रज्ञानकारी मोक्ष प्रदायनी है। प्रारंभिक भक्ति अज्ञानता के कारण सहज ही बुद्धि द्वारा परिचालित होता है। भक्ति प्यार, प्रेम ही है | ऐसी भक्ति सभी जीव जंतुओं में होती है किन्तु अज्ञानता के परिणाम स्वरूप स्थायी नहीं होती है। ज्ञान, ही है भक्ति अजर अमर एवं यह उत्क्रमित होकर प्रज्ञान का पथ प्रदर्शक है यही कारण है कि यह कहा जाता है कि भक्ति ज्ञान से, विज्ञान भक्ति से और मुक्ति या प्रज्ञान विज्ञान से श्रेष्ठ है। हम सब इस तथ्य को न जानकार सहज भक्ति को ही श्रेष्ठ मानते हैं | श्रवण कीर्तन को भी हम श्रेष्ठ समझते हैं | किन्तु केवल श्रवण-कीर्तन ज्ञान विज्ञानदाई नहीं है | रामायण में आत्म साधक दशरथ की अज्ञानता वश विद्वानों द्वारा प्रवचन को श्रवण कर अपने कंधे पर माता-पिता का बोझ (अज्ञानता का भार) लेकर तीर्थ भ्रमण करने से ही पुण्य लाभ होगा समझकर घूमते समय  शब्दभेदी वाण से श्रवण कुमार की वध की कथा  है | अर्थात श्रवण द्वारा अर्जित ज्ञान को सत्य मानना अज्ञान है | महाकाव्य और पौराणिक कथाओं के तत्त्व को समझने का विषय है। अन्यथा वास्तविक अर्थ न जानने से अज्ञानता ही बढ़ता है |
भागवत में विज्ञान के श्रेष्ठ तत्त्व की एक कहानी है। यह कहानी जन्म और मृत्यु के विज्ञान के सिद्धांत की है। जन्म और मृत्यु के विज्ञान से अधिकतर लोग अनभिज्ञ हैं। यहां तक कि कई उच्च शिक्षित लोगों को भी पता नहीं है। मृत्यु के समय के विचार के अनुसार, आत्मा का पथ निर्णय होता है। यह विषय ही कवि द्वारा विस्तृत वर्णंन किया गया है। लेकिन पाठकों ने उसका विपरीत अर्थ निकालकर कहानी को आदर्श कर लिया | भारतीयों का दुर्भाग्य है कि वे कहानी को धर्म समझते हैं | कहानियों को उदाहरण देकर हमारे पूर्व पण्डितों ने धार्मिक सिद्धांत लिखे थे, वैज्ञानिक सिद्धांत को समझाया था | किन्तु हमने उदाहरण को धर्म समझकर उसी से धर्म का पालन किया | इसीलिए पाश्चात्य देश के लोगो ने हमारे धर्म का नाम रखा है माइथोलॉजी (पौराणिक कथा) या काल्पनिक कहानी | हम काल्पनिक कहानी को धर्म समझते है और एसा शब्द उपयोग करते हैं | भागवत की कहानी को इसीलिये हम धर्म समझते हैं। पंडित भागवत पुराण का पाठ कर होम, यज्ञ करते हैं, चंडी, और गीता के श्लोकों से होम और बड़े यज्ञ कर धर्म का अर्जन करते हैं | वैदिक मंत्र स्यंभू मंत्र हैं। इन मंत्रों का উপর্য্যুপরি मंथन करने से सृष्टि की शक्ति उपार्जित होती है | तांत्रिक मंत्र भी वैज्ञानिक पद्धति से गठन करने के कारण महान शक्ति की सृष्टि करने में समर्थ हैं | सांसारिक काम के लिए लोग उनका उपयोग कर सकते हैं। लेकिन आत्मा और शरीर के लिए यज्ञ प्रदत्त साधना-क्रिया बहुत ही फलदायी एवं करनीय हैं | हमारी यह व्याख्या, सामूहिक नाम, कीर्तन, पाठ, यज्ञ की निंदा करना नहीं है। सामूहिक मिलन,आनन्द वर्धन, एकता आदि से धार्मिक भावना लेकर अनुष्ठान करने से अप्रत्यक्ष लाभ है और वे अवश्य ही किया जाना चाहिए। किन्तु इन बातों को समझना चाहिए और उन्नति सौपान साधना का प्रचलन करना और सनातन धर्म का आदर्श कर्म नष्ट न हो इस बात देखना आवश्यक है।
विश्व में अभी कई धर्मो की सृष्टि हुई है | धर्म के तत्त्व को न समझने के लिए ही इस तरह के धर्म की सृष्टि हुई है | धर्म देह के अन्दर की चैतन्य शक्ति आत्मा को समझना है | धारण शब्द से धर्म हुआ है | आत्मा ही देह या जगत को धारण करती है | आत्मा निकल जाने से चैतन्य हीन शरीर सो जाता है | सनातन धर्म में इसी कारण से धर्म की व्याख्या धारण करने को धर्म और आत्मा को ही धर्म कहा है। इस युग के महापुरुष महात्मा गांधी ने सत्य को धर्म कहा है। वे सत्य का आचरण करते थे, अन्वेषण किया था और इस सन्दर्भ में "सत्य के प्रयोग " नामक एक पुस्तक लिखा था। सत्य शब्द का अर्थ सनातन, सत या सम्मान है | सत्य का अर्थ नित्य अविनाशी है | अविनाशी, नित्य या सत्य एक ही है अनेक नहीं हो सकते हैं | अतएव ये सभी आत्मा की संज्ञा हैं | गांधीजी ने सत्य को ही इश्वर कहा था। क्योंकि सत्य का कोई विनाश नहीं है, इसीलिए वह आत्मा है। इसी सत्य ईश्वर या आत्मा का अन्वेषण कर जीवन व्यतीत किया था | अंत में जिस दिन गोडसे के बंदूक की गोली सीने में लगी गांधीजी को आत्मा के दर्शन हुए और जगत को बोलकर गए "हे राम"। अर्थात राम ही आत्मा (अग्नि या तेज तत्व ) एवं आत्मा ही एकमात्र सत्य है | व्यासदेव ने महाभारत में धर्म की व्याख्या इस प्रकार किया है |
धरनाद्‌ धर्म  इत्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः। य: स्याद्‌ धारण संयुक्तः स धर्म इति निश्चय: ||
इसका अर्थ हुआ प्रजा को धारण करने के कारण धारण से धर्म शब्द हुआ | प्रजा का अर्थ क्या है | प्र एवं जा दो उपशब्द मिलकर प्रजा बहुवचन हुआ है | प्र का अर्थ है सन्मुख की तरफ देखना और जा का अर्थ बार बार जन्म लेते रहना है | जन्म लेते रहने के कारण ही प्रजा कहलाया | इसका अर्थ सभी जीव प्रजा हैं | अथर्व वेद में लिखा है “पृथ्वी धर्मना धृतं” | वायुमय परतत्व आकाश, वायु, अग्नि और आप (जल) तत्व से पृथक होकर स्थूल रूप धारण किया | पृथक होने के कारण पृथ्वी नाम हुआ जो ब्रह्माण्ड का सबसे स्थूल पदार्थ ही पृथ्वी तत्व | धरति लोकं यः स धर्म:, धारयति इति धर्म:, धृयते लोका येन सः धर्म: आदि एक ही अर्थ युक्त कथा शास्त्र ने कहा है। इसलिए आज जिसको धर्म की आख्या दिया जाता है वह धर्म नहीं है | आत्मा ही धर्म एवं आत्मचिंतन ही धर्म पालन है | आत्मा को जानने के लिए आचरण करने के लिए प्रचलित धर्म को एक एक प्रणाली या पंथ कह सकते हैं | आत्मा को जानने के लिए साधना का प्रयोजन है | धर्म के तत्व को जानने के लिए साधना करना पड़ता है | आत्मा को पहचानने के लिए प्रज्ञान लाभ करना पड़ेगा | प्रज्ञान ही आत्मा और देहमुक्ति मोक्ष है | इस प्रज्ञान को जानने के लिए आत्मा को जानने लिए जिस चेष्ठा का प्रयोजन है उसे ही साधना कहते हैं | यह साधना सामुहिक नहीं हो सकती है | आत्मा इतनी सूक्ष्म है कि आत्मा को जानने के लिए आत्मा को लाभ करने के लिए उतनी ही सूक्ष्म होना पड़ता है | देह को भूलकर आत्म भाव का आश्रय लेना होगा | भाव के माध्यम से आत्मा को पकड़ने के लिए समय अनुसार भाव को भी छोड़कर भावातीत होकर ही आत्मा को पकड़ सकते हैं | “समे समं समयति”। समधर्मी वस्तु का ही मिलन होता है | आत्मा का समधर्मी अर्थात आत्मा के समक्ष  सूक्ष्म होकर आत्मा को पकड़ सकते हैं |  इस कार्य को भावातीत ध्यान कहते हैं एवं उस ध्यान के उपयुक्त होने के लिए नाम, कीर्तन श्रवण , जप, पूजा यज्ञ अपने रूचि अनुसार शुद्ध भाव से एवं शुद्ध मन से करना पड़ेगा | इन सबका कोई विरोध नहीं है | ये कर्म एवं उन्नति के बोधक हैं | विरोध अधोगति का पथ है | उन्नति अधोगति का मूल कारण मनुष्य सोचते हैं | भाव शुद्ध होने से ही धर्म लाभ हो सकता है | विरोधाभाव, कुभाव, निंदावाद आदि द्वारा धर्म आचरण धर्म प्राप्ति असंभव है | उपरोक्त कर्म समूह नाम, कीर्तनादी, पूजा यज्ञ आदि ध्यान धारणा के लिए उपयुक्त होने के लिए अनुशीलन मात्र है | अनुशीलन को सामूहिक रूप से करने में कोई दोष नहीं है | यद्यपि प्रयेक व्यक्ति का दैनिक गुरुत्वाकर्षण के खिचाव में बाधा देह के साथ मन एवं भाव में खिचाव लाते और भाव के प्रकृति में विकृति लाते हैं | ध्यान किन्तु सामूहिक रूप से करना असंभव है | सम्पूर्ण एकांत में ही भावातीत ध्यान संभव है | प्रयेक मनुष्य के अपने शरीर में आभा एवं गुरुत्वाकर्षण है | निम्न शरीर के आभा द्वारा उच्च शरीर के आभा में प्रदुषण होता है | गुरुत्वाकर्षण हमेशा ही खींचातानी करते रहते हैं | इसी बात को यथार्थ रूप में वैज्ञानिक कवि व्यासदेव ने कृष्ण के मुख से कहा है |


महर्षिणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम । यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ।  १०/२५ गीता


(महर्षियों में मै भृगु ऋषि, शब्दों  में एकाक्षर ॐ , यज्ञ में जपयज्ञ एवं स्थावर में हिमालय)
ईश्वर कृष्ण ने कहा है कि समस्त कर्म या (कर्म जिसके द्वारा सृष्टि होती है अर्थात यज्ञ ) में जपयज्ञ श्रेष्ठ है क्योंकि उसमे भगवान वास करते हैं एवं जप के द्वारा सूक्ष्मतम मौलिक रूप  का विभाजन कर पदार्थ में पवर्तित करते हैं | इस कारण जप मंत्र अर्थात सृष्टि का मात्रि ( मातृ ) वा  मूल “मन्त्रानां मातृका देवी ” मन्थन होता है एवं मातृ का मंथन शब्द ब्रह्म के द्वारा ( (शब्दानां ब्रह्मरूपिनी) वस्तु जगत का औषधीय  माला बनाया जाता है मन्थन बिना सृष्टि नहीं हो सकता है। एक-एक मन्त्र जैसे  राम, कृष्ण, वासुदेव, नारायन, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय , ॐ नमो नारायनाय, ॐ ह्रीं दुं दूर्गायै, ओँ नमः शिवाय  इत्यादि से मन्थन हैं। नाम ही मन्त्र है | जिसका हमको नाम लेना बोला है वह प्राथमिक स्तर है । उस  स्तर को पार करके जपयज्ञ करना पड़ता है । जपयज्ञ साधना का मूल सेतु है। होम यज्ञ पूजा आदि जपयज्ञ के अङ्ग स्वरुप है। इन सबका अनुभव विभिन्न प्रकार के ज्ञान अर्जन करने के लिए आवश्यक है। रुचि अनुसार प्रत्येक कर्म को करते हैं। सांख्य-वेदान्त ने हमको ज्ञान विज्ञान सिखाया है। इसी तरह स्मृति, धर्मशास्त्र, पुराण ने कर्म सिखाया है। जिसकी  जैसी रूचि है वह वैसा ही अनुसरण करता है। इनमे से कोई भी बात मिथ्या नहीं हैं। इनको अप्रयोजनी एवं अकरनीय कहना मिथ्या है एवं भक्तिवान मनुष को विपथगामी करना है। “कर्म प्रधान यह विश्व् कर रखा”। “कर्महीन नर पाबत नही” कर्महीन नर कुछ लाभ नहीं कर सकते हैं। इसीलिए शास्त्र निर्देशित कर्म करना ही पड़ेगा। मुसलमान कुरान को मानते और क्रिस्चन बाइबेल को। सनातनी के लिए वेद ही धर्मशास्त्र है। वेद निर्द्देशित, वेद विहित कर्म करने से सनातनीय व हिन्दु हो सकते हैं। वेद के बिना हिन्दू कैसे ? वेद निर्देशीय और पालनीय है।
भागवत, शिव पुराण, स्कन्द आदि पुराण में अनेक एसी बात बोला गया है जो मिथ्या नहीं, किन्तु आम-कठहल के समान हैं। यदि छाल, गुठली गूदे में यदि कीड़े हैं तो उनको निकाल कर खाना पड़ेगा। फल खाना उपकारी है सोचकर सब खाना उचित नहीं है। पुराण कथा के अन्दर विज्ञान की कई बाते छुपी हैं। उदाहरण स्बरूप भागवते की अजामिल की कहानी। “कीर्त्तन घोषा” में महापुरुषों ने अत्यन्त श्रुतिमधुर अनुवाद किया है। अजामिल नाम का एक ब्राह्मण था। किन्तु ब्राह्मण कुल में  जन्म लेने से भी पतित था। मद, मांसादि भक्षण, परनारी गमनादि समस्त पतित कर्म कर संसार कर रहा था। एक पुत्र का नाम नारायन रखा। आस्ते आस्ते अजामिल बूढ़ा हो गया एवं  एक दिन मृत्यु के समय चार भयङ्कर यमदूत उपस्थित हुये। यमदूत का विकट रूप देख भय से पुत्र नारायन को बुलाया “नारायन मेरी रक्षा करो। नारायन के नाम मात्र पुकारने से चार विष्णु के दूत आकर यमदूत को भगा दिया और अजामिल को विष्णु के पास ले गए | यह एक काल्पनिक काहानी है। कहानीकार मृत्यु के समय की एक वैज्ञानिक तथ्य इस कहानी से पाठकों को बताया हैI विष्णु का अर्थ कालचक्र, सुदर्शन  व  स्वास्तिक। कालचक्र का अर्थ अखण्ड काल – महाकाल। इस काल की  गति को के देवयान कहते हैं। प्रकाश स्पन्दन गति। पितृयान  गति को वेव लेन्थ कहते हैं उसी तरह , सत कर्म कर जीवात्म उन्नति साधन कर जीवात्मा के देह से मुक्त होकर मृत्यु के पश्चात पितृयान की गति पितृलो चले जाते हैं। किन्तु जो सब तरफ से  सत होते हैं , विष्णु के  एकान्त भक्त होते हैं उनको जीवान्त काल में ही जीवात्मा से मुक्त होकर  एवं उत्तम समय में देह से प्रकाश स्पन्दन गति (देवयान गति) से विष्णुलोक आकाश तत्व लाभ करते हैं। अत्यन्त अधम कर्म एवं नीच भावापन्न लोग  जीवात्मा कर्म-बन्धन द्वारा निक्रिष्ट हो जाने के कारण पृथ्वी मध्याकर्षण के भीतर घूमते रहते हैं | उन्ही को भूत (पदार्थ) कहते हैं। पुत्र यदि श्राद्धादि कर्म के द्वारा यदि जीवात्मा का मास (पदार्थ) को मुक्त कर देते हैं तब उन्हें  पितृयान गति प्राप्त है नहीं तो भूत बनकर घूमना पड़ता है | मृत्यु के पश्चात जीवात्मा कुछ भी नहीं कर सकते इसीलिए आत्मज अर्थात पुत्र के प्रति लालायित होते हैं । पुत्रार्थे क्रियते भार्य्या। आजकाल विज्ञान इन तत्त्वों को न  जानने के कारण श्राद्धादि कर्म का विरोध करते हैं। अपनी अज्ञानता ढाक कर  “मरा गरु घास नहीं खाता बोलकर हास्यकर (दुःखजनक, लज्जाजनक) मन्तव्य देकर , अन्धविश्वाश कह कर साधारण मनुष्य को विपद में ठेल देते हैं। गुरु पद, सम्मान, और लाभ, नेतृत्व लोभे मनुष्य को  विपथगामी कर इस श्रेणी के मनुष्य को विपथगामीर के सङ्ग नरक गमन करते है ।इसीलिए कहते हैं  “लोभी गुरु लालची चेला पड़े  नरकमे ठेल्लाम ठेला।”


अजामिल की कहानी एक श्रेष्ठ वैज्ञानिक तत्त्व को समझाने के लिये लिखा गया था। मृत्यु के समय में मनुष्य की जो भावना होती है उसे वही गति प्राप्त होती है। इस  कारण से मृतक के कान में विष्णु मन्त्र पढ़ते हैं। कान में  राम, कृष्ण, नारायन आदि शब्द कहते  हैं  या उच्चारण करने को कहते हैं। उसके पश्चात शास्त्र पढ़ना, धर्म कार्य, जप, यज्ञादि विष्णु कर्म करने का अभ्यास करने से मृत्यु के समय में  विष्णु-बुद्धि आती है | इसीलिए  धर्म कार्य आत्म-नियोग से करने को कहते  हैं ।  किन्तु कहानी को पढ़कर साधारण मनुष्य भूल समझने की ही  सम्भावना अधिक है। इसीलिए  शास्त्र को साधारण पुस्तक के रूप में लेना उचित नहीं है । ज्ञानीजनो ने   कहानी के साथ तार तत्त्व समझाया है। किन्तु आज-काल कुछ स्वयम्भु गुरु पाठ्यपुस्त में इन सब कहानीयों को डालकर  छोट-छोट बच्चों का शिकार किया है। साधारण मनुष्य  यदि कहानी में वर्णन किये अनुसार अपने  स्वभाव गठन कर और  मृत्यु के समय में  काम आने के कारण अपने पुत्र का  नाम नारायन रखें समाज की अवस्था क्या होगी  सोचकर  देखिये  तो! पुराण की  बहुत  कहानी बाह्यिक दृष्टि से अत्यन्त खराब और फलदायक किन्तु तात्त्विक अर्थ ज्ञान प्रदायक है।
नचिकेता का यम के पास जाना, रेवती को लेकर रेवत राजा का ब्रह्मा के पास जाना, अर्थात पृथ्वी से  अन्य ग्रहलोक में जाना या आना, ग्रहलोक और  पृथ्वी के समय में पार्थक्य समझना, पितृयान, देवयान, टेकिओन्स गति, सीट्रान निउट्रन गति इत्यादि गति की कथा समझना एक उच्च विज्ञान की आलोचना करना है। हमारे धर्मग्रन्थ आज कुछ तत्वहीन विद्यामूलक शिक्षा प्राप्त तथाकथित ज्ञानी समालोचनाओं का मत मिथ वा माइथोलोजी  नहीं है। ये उच्च विज्ञान ग्रन्थ हैं। भागवत को हम धर्मग्रन्थ कर पाठ करने से ही धर्म होगा सोचते हैं इसमें कोई बड़ा दोष नहीं है। किन्तु हमें भागवत को एक अति उच्च विज्ञान का ग्रन्थ जानने का प्रयोजन है। भागवत के प्रति हमारे भक्ति, विश्वास त्याग करने का  प्रयोजन नहीं है । “भावमिच्छन्ति देवताः”। भाव वस्तु जगत की सृष्टि करते हैं। भाव की गंभीरता असम्भव कल्पनातीत घटना संघटित कर सकते हैं। “यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी। भाव के अनुसार कार्य होता है। भाव के द्वारा ही देवता की सृष्टि होती है । इसीलिए  मृत्यु के समय में  ये भाव करना पड़ता है इससे गति प्राप्त होती है । नाम की महिमा समझाने के लिए लेखक ने कहानी को थोड़ा बड़ा कर दिखाया है। विज्ञान का  तत्त्व समझाने के लिए कहानी को थोडा निम्नस्तर का बनाया।
नाम लेना, नाम गाना, पूजा व यज्ञ मन्त्रपाठ ये सब अर्थपूर्ण काम है। किन्तु ताल-बेताल नहीं। बेताल गाना  गाने से  लाभ तो नहीं होता है, उलटे क्षति होती है । बेताल शब्द से प्रदूषण होता है। इस  प्रदूषण से गायक की ही अधिक और साथ ही अन्य एवं अञ्चल की क्षति होती है । गायक की बुद्धि भ्रष्ट होती है, मस्तिष्क की भी क्षति होती है। वेद मंत्र अति प्रभावी होते हैं। इस कारण वेद स्वरलिपी के आधार पर पाठ होता है। वेद के वाङ्मय में शब्द प्रदूषण ध्वंस होता है। पाठ,सङ्गीत आदि की भी व्यवस्था है। इस  विद्या को स्वरोदय विद्या कहते हैं नाभि मण्डल में इस विद्या का स्थान। स्वर शब्द से ही स्वरस्वती देवी वा विद्या का  नाम हुआ है। इस  विद्या को इक्षु (आँख, चक्षु) विद्या भी कहते हैं । इक्षु शब्द से इक्षाकु वंशे का नाम हुआ है। स्वरोदयी सबे नाभिते अग्नि एवं जल के भीतर से नाद उद्धार कर कण्ठ से स्थित “गायक गनपति जगवन्दन” गनेश विद्या की उत्पत्ति करते हैं। गनेश विद्या जाग्रत होने से वाक्‌ एवं लक्ष्मी अर्थात देह एवं जीवात्मा की उन्नति होती है। नाद का उद्धार करने का  लिए साधक अग्नि (दीपक राग) जल (मेघमल्लार) स्वर व्यवहार कर असाध्य साधन करते हैं। तानसेन आदि इस  विद्या का आहरण किया था। मन्त्र से ताल रखने के लिए सर्व्व वाद्यमय घन्टा का व्यवहार करते हैं। पूजारी यदि ताल से घन्टा ना बाजाय मन्त्र विकृत होता है एवं लक्ष्मी प्रस्थान करती है। अर्थात पुरोहित-यजमान के देह की  क्षति होती है। आत्मा की भी क्षति होती है। भजन वा नाम व्यवहार कर यन्त्र भी शास्त्रीय ताल में ना बजाने से अति क्षति की सम्भावना है। इसीलिए  सहज ताल में गाना ही अच्छा है | जप-यज्ञ से किसी प्रदूषण का भय नहीं रहता । मुख के भीतर शब्द की सृष्टि होती है वहां लय नहीं होता है, इसीलिए  निर्दोष एवं श्रेष्ठ फलदायक होता है । हमारे मुख से निकला हुआ शब्द कभी भी नष्ट नहीं होता है। शब्द वा वाक्य अच्छा हो वा बुरा हो कभी ध्वंस नहीं होता है। शब्द अक्षय है। इस  शब्द से श्रेष्ठ शब्द द्बारा यदि कोई  इस  शब्द साथ मिला दे तब भी शब्द ध्वंस नहीं होता है। सु-संहत शब्द कल्यानकारी, कुशब्द विनाशकारी, प्रदूषक, रोग सृष्टिकारी होता है। मजे की बात यह है की, शब्द जहां से उद्गम होता है वहीं लय होता है । जैसे, जिसके मुख से  ये शब्द निकलते हैं, बाद में उसी के मुख में स्थान लेता है। शब्द देह की पुष्टि साधन करते हैं। शब्द देह में मिल कर देह के मांस, रक्त, बुद्धि आदि की सृष्टि करते है। सुमन्त्र गाने से देह शुद्ध स्वस्थ होता है, कुमन्त्र गाने से देह दुःस्थ, अशुद्ध, रोगी होता है । जो सब वचन कहा जाता है, उन वचन व शब्द के वाङ्मय गति एवं वक्ता के कन्ठ शक्ति की सीमा जितने दूर जायेगा वहां  से  घूमकर  और  वक्ता के  मुख में घुसकर मुखस्थ वा कन्ठस्थ होता है। यदि सुमन्त्र होता है  तब वह मन्त्र सुपुष्टि साधन करेगा और  कुमन्त्र होने से जैसे कि गालीलौच, अभिशाप, बदनानी करना, लोगों का अन्याय करने का  कुमन्त्र प्रयोग, बेताल वचन का प्रयोग इत्यादि अपने शरीर में स्थित होता है रक्त मांस में प्रवेश कर रोग की  सृष्टि करता है। इसीलिए जो अपना कल्याण चाहते हैं उन्हें  कुवचन वा कुमन्त्र का प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिए। हम दूसरों को गालि गलौच करते हैं किन्तु उन लोगों के शरीर में लगे भी तो अधिक क्षति नहीं कर सकते है। अवश्य उसके आघात से कुछ तमस की सृष्टि होती है एवं आञ्चलिक वायुमण्डल को  कुछ परिमाण में दूषित करते हैं। ये बुरे  शब्द घूमकर अपने कन्ठ में घुस जाता है । सड़े वस्तु की दुर्गन्ध जैसे आञ्चलिक वायु को दूषित करते है  कु-शब्द का  कु-प्रभाव वायु मण्डल में पड़ता है। किन्तु गुरुत्वपूर्ण बात यह है के पदार्थ प्रदूषण पृथ्वी के  मध्याकर्षण में खींचकर डाइल्युट होते है  ध्वंस होते है किन्तु शब्द का भार नहीं होने के कारण शब्द कों ध्वंस नहीं कर सकते है। शब्द को केवल शक्तिशाली वेद मन्त्र के अलावा कोई कोई शक्ति ध्वंस नहीं कर सकते है ।
पूजा, पाठ, नाम, कीर्त्तन, भजन आदि धर्मीय काम के विरूद्ध में जेहाद घोषणा करने की नास्तिकों सृष्टि आज नहीं हुई है। वैदिक काल से ही शूण्यवादीयों का एक दल विरोध करते आ रहे है। इस सबको चार्व्वाक कहते  हैं । चार्व्वाक सब वस्तुवादी होते हैं। आँख से देखने से ही विश्वास करते है | बोलकर सोचते हैं। ये  मनुष्य  होने से भी खरगोश के स्वभाव एवं बुद्धि के होते हैं। खरगोश को पीछा करने से दौड़े कर झोपड़े के भीतर सिर डालकर खड़ा रहता है। स्वं कुछ नहीं देखता बोलकर शत्रु नहीं है सोचता है। और मनुष्य के हाथ मारा जाता है | ये   नास्तिक सब भी देख नहीं पाकर वस्तु नहीं है सोचते हैं | ये ईश्वर नहीं मानते, आत्मा नहीं मानते, देह को ही सर्वस्व सोचते हैं। वे कहते  हैं, “यावत जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत”। अर्थात जितने दिन जीवन है सुख से कटाओ, ऋण करो और घी खाओ। किन्तु सत्य यह नहीं है। जीव जगत ने अम्बा या अमीबा से जन्म लिया है। अमीबा जन्म लेते और मरते हैं। अर्थात एक बार दिखाई देता है और एक बार नहीं | न देखने को मृत्यु भी कहते  हैं। किन्तु वे मरते नहीं हैं केवल रूप में परिवर्त्तन होता है। जीव जगत भी अमीबा से  विकसित  केवल स्थूल रूप है। अतएव जीव भी मरते नहीं हैं, रूप में परिवर्त्तन होता है। यथार्थ में हमारे रूप में परिवर्त्तन प्रति मुहुर्त होता रहता है। नहीं तो मातृगर्भ से एक क्षुद्रतम जीवाणु से एक प्रकाण्ड मनुष्य कैसे हो सकता है ? एक शिशु माँ की गोद में बड़ा होता है, किशोर होता है, युवक होता है किन्तु कोई साक्षी नहीं हैं कि किस दिन बच्चा इतना बड़ा हुआ? प्रकृति की यह एक पद्धति है। इस पद्धति या सिष्टम को  इन्वर्सन सिष्टम कहते हैं। इस तरह जीव एक देह से अन्य रूप अर्थात सूक्ष्म शरीर में जाता है। पदार्थे का निर्जीव शरीर को देख कर हम मर गये है कहते हैं। यथार्थ में प्राणवायु वायु तत्व हो जाता है  एवं पृथ्वी से जन्मा देह मिट्टी और आप अर्थात जल हो जाता है । जीवात्मा नए रूप में फिर जन्म लेता है । जन्म-मृत्यु विज्ञान अति कौतुहल पूर्ण है। इस  प्रबन्ध की आलोचना असम्भव है।अन्य स्थान में  इस विषय की विस्तृत आलोचना करनी होगी।
“सनातन-सत्य-आत्म-यम-धर्म” ये एक के ही  अलग अलग नाम है। इस  प्रबन्ध को सनातन जाने के कारण  आलोचना करना पड़ता है यह अलग अलग नाम की आत्मा ही हमारे देह में रहती है।आत्मा अपने आप ही इस  देह को तैयार कर एवं व्यवहार कर अनुपयोगी होने से त्याग छोड़ देता है, पुरान में कपड़ा त्याग करने का मत है । गीता में भी कृष्ण कहते हैं
“वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्नाति नवोऽपराणि।
तथा शरीरानि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देवी।। २२/२ गीता


आत्मा एक एवं देह मिश्रित पदार्थ है। इसीलिए  आत्मा  को अद्वैत एवं देह को द्वैत (अपभ्रंश दैत्य) कहते  हैं। अद्वैत एवं द्वैत की परिपुष्टि के लिए लिए ही अपने अपने सह धर्मी खाद्य की आवश्यकता है। पदार्थे के द्वारा सृष्ट भोजन कर देह परिपुष्ट होता है। आत्मा की परिपुष्टि के लिए जो प्रयोजन है उसे भजन कहते हैं। भजन का अर्थ भाव  से जन्मा या सृष्ट प्रेम भक्ति आदि के शब्द में प्रकाश करने से भजन होता है। प्रेमयुक्त शब्द खाकर आत्मा   पुष्ट होता है। देव अर्थात अद्वैत आत्मा एवं द्वैत या दैत्य का युद्ध देह में प्रति मुहूर्त चलता है। इसीलिए तो गीता में धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र है, देह आत्मा की क्रिया गीता में वर्णन किया है। गीता मानव की उन्नति का, ज्ञान का एक अपूर्व ग्रन्थ है। विज्ञान एवं योग के सिवाय गीता में अन्य एक शब्द भी  नहीं है। भोजन एवं भजन समान होने से देह एवं आत्मा समान रूप से शक्तिवान होता है। केवल राजसिक, तामसिक भोजन कर देह वृद्धि करने से एवं आत्मा का  परिपुष्टिर करने के लिए  भजन न करने से कभी भी देह सह सकने से आत्मा निकल जाने से “करोनारी थ्रम्बसिस” (हार्ट फेल) कहते हैं तब रोने पीटने के सिवाय और कुछ उपाय नहीं रहता है? इसीलिए  देह को शुद्ध भोजन एवं आत्मा रूपी धर्मराज को भजन खिलाना पड़ता है। यह बात हमारे मन में रखना होगा कि हम आत्मा   या परमाणु की समष्टि। अतएव हमारे भाव एवं कर्म आत्मामय होना उचित है। आत्मा ही धर्म एवं धर्मराज या यम ही मृत्यु के देवता अर्थात आत्मा ही यम है। आत्मा अपना  देह छोड़कर  जाता है, आत्मा ही  मृत्यु का कारण है। आत्मा ही  पालनीय धर्म एवं आत्मा ही  मृत्यु के देवता यम है।
प्रश्न आता है कि आज मनुष्य  विभिन्न नाम से जो धर्म बोलकर पालन कर रहें हैं वह क्या है ? ये सब भी  धर्म का  अनुशीलन है।आचार एवं विचार। आचार का अर्थ आचरण करते रहना  नियम प्रणाली, व्रत, पूजा,पर्व,नाम, कीर्त्तन, सामूहिक प्रार्थना, सभा, मेला, उत्सव, तीर्थ-भ्रमण, प्रार्थना नमाज, गिर्जा में प्रार्थना इत्यादि धर्माचार है। आचरण देह-मन के पवित्रता के लिए नितान्त ही प्रयोजन है। किन्तु धर्म का वास्तविक अर्थ विचार है। आत्मा को  जानने को ही  धर्म कहते  हैं । आत्मा को जानने का अर्थ उस आत्मा के समकक्ष होना है। आत्मा का  समकक्ष होने से आकाश तत्व विष्णु को जानते हैं, उनके पास जा सकते हैं। आत्मज्ञान मानव की चरम ज्ञान एवं इस ज्ञान को धर्म का अनुशीलन के द्वारा क्रमन्वय उतक्रमित होकर योग के माध्यम से आत्मा को जानते हैं। आत्मा को  जान कर  लेकर  तुमि अर्थात आत्मज (मन, मनु, मनुष्य ) अर्थात आत्मा का सापेक्ष एवं कार्य कारी रूप मन द्वारा आत्मा को परिचालना कर सकते है । मन के संकल्प द्वारा जो करना चाहो, जो होना चाहो हो सकते हैं। किन्तु संकल्प होना पड़ेगा दृढ,भीष्म। हमको जानना होगा कि आत्मा ही जगत है। सृष्टि के आदि में हम एकमात्र आत्मा था यह वचन वेद से जान कर इस आत्मा का भी एक ईक्षण या मन थायह ईक्षण या इच्छा ही कई रूप देकर  एसे मानव के देह को सक्रिय पूर्ण रूप दिया। ईश्वर की इस  इच्छा के  द्वारा ही  मानव ईश्वरीय कर्म भी कर सकते हैं। इच्छा को  शक्ति भी  कहा जाता है  इच्छाशक्ति। पदार्थ विज्ञानी ने इनको  इच्छा शक्ति बोलकर  स्बीकृति दिया है।  फोर्स शब्द केवल इच्छा के साथ ही  व्यवहार होना देखा जाता है,अन्य जगह नहीं देखा जाता है। आत्मा को  पुरुष कहते  हैं । इच्छा स्त्रीलिङ्ग शब्द है। इच्छा आत्मा का ही अङ्ग है। इसीलिए  एक श्रेणी के  पण्डित आत्मा को  एक बोलकर अद्वैत कहते हैं। किन्तु एक और श्रेणी के पण्डित कहते  हैं कि आत्मा   एवं इच्छा दो  शब्द हैं , एक निष्कृय और एक सक्रिय है। गुण एवं कर्म में भी तारतम्य है, मानवीय भाव से  रूप एवं लिङ्ग के भी भेद है इसीलिए दो अर्थात द्वैत। ये पण्डितों के खेल हैं। किन्तु यह सत्य है कि सृष्टि के पहले  इस  महान ब्रह्म जिसको वेद आत्मा या पुरुष या ईश कहते हैं, जिसके कोई रूप नहीं है, जिसकी  हम  केवल धारणा ही कर सकते हैं आत्मा या पुरुष ही ब्रह्माण्ड, है। वेद ने इस आत्मा को ही स्थूल जगत एवं जीवात्मा का स्रोत बताया है। इसीलिए  आत्मा का  इक्षण या इच्छा जीवात्मा में इच्छा रूप में रहना निश्चित है। शूण्य से एक, एक से कई इस भाव बिन्दु से  सिन्धु होना  जनना  जीवात्म रूपी जगत है। सृष्टि का नियम है सूक्ष्म से स्थूल होना। वट वृक्ष क्या एक छोटे से बीज से विशाल हुआ है कि नहीं ? हाथी का नन्हा शिशु ही  विशाल हाथी , मानव शिशु ७ फुट का मनुष्य इत्यादि। दीर्घ प्रस्थ हीन ईश्वर आत्मा  नाद हुए, वर्ण हुए, आकाश, वायु, तेज हुये , तेजेर से  भाप एवं जल हुए। जल में अम्बा या अमीबा हुआ। एक कोशिकीय जीवों से दो होकर एक भाग वनस्पति और  एक भाग जीव जगत हुए। हर्सटेल, एलगि, फुञ्जाइ आदि वनस्पति जल में  जन्म से अवशेष उसका  विकशित रूप जल से  उपर उठ गया। नार का अर्थ जल और अयन का अर्थ सोना (नारायन) अर्थात जल में सोना  बीज के  नाभि से उतक्रमित पेड़ जल से  उपर उठ आने से उसको पद्म कहा गया। सहश्र वर्ष तक पद्म फूला, उसमे  पराग हुआ और  एकदिन पराग से  तिन भागयुक्त सिर वक्ष पेटयुक्त मधुमक्खी,भंवरा, प्रजापति जाती के जीव सृष्टि होकर फूल के उपर उपर घूमने से उनके पैरों में लेगे परागरेणु एक फूल  से  अन्य फूल में  सञ्चारित होकर  प्रजाति या प्रजा वृद्धि होने लगा। परागण क्रिया कर प्रजा वृद्धि होने के कारण प्रजापति जाती के जीवों का नाम हुआ। जीव विज्ञान ने उनका नाम दिया हाइपेनोपटेरा और्डर​ ( Hymenoptera order). यहाँ (गजन) उद्भिज का  अन्त हुआ और  जीव (Zoology) उड़न्त जीव का जीवन प्रारम्भ हुआ। अन्य भाग से  हाइड्रा, जेली, मतस्य, सरीसृप, व्यां, एवं उभचर हिपोपटेमास इत्यादि होकर जमीन में एसे कई  जीव के रूप लेकर पूंछ हीन वानर जाती के जीव का विकाश होकर मानव रूप धारण कर लिया। ये भ्रमण जातीय जीव थे। उरण, बुरण, गजन एवं भ्रमण इस  चार योनी या अर्डार के चौ (चार) राशि (समष्टि या Order) के जीव। हमारे पण्डितों ने ८४ (चौराशी) बोला  हैं जो ठीक नहीं है अज्ञानता है। और कुछ ८४ लाख भी कहते हैं। इस तरह  एक के बाद एक कर उन्नत मानव रूप में ईश्वर के पूर्णरूप जीवात्मा एवं इच्छा शक्ति सम्पूर्ण विकशित हुआ। इस  इच्छा शक्ति के  लिए  मानव ईश्वर के अर्थात जीवात्मा आत्मा के पास चले आये जो इच्छा करने से ही जीवात्मा आत्मा के पास जा  सकते हैं। एक उदाहरण देने से इन बातों को समझना सहज होगा। एक गोल वृत्त बनाकर वृत्त के एक सिरे पर  शूण्य लिखकर १/२/३ कर १० सम्पूर्ण करिये। तब देखें १० के पास शूण्य है। ईश्वर या आत्मा शूण्य और  मानव सम्पूर्ण (१०)। शूण्य का अर्थ पूर्ण है। क्यों पूर्ण? शूण्य में ही गणित के समस्त संख्या रहते हैं। गणित में नौ सकारात्मक संख्या १ से  ९ पर्य्यन्त और  एक नकारात्मक संख्या शूण्य है। नकारात्मक संख्या को सकारात्मक  करने से उसका मूल्य (वैल्यू ) ९ होकर अर्थात गणित के सब संख्या। शूण्य के दाहिने तरफ १ लिखने से शूण्य सकारात्मक होकर दश होता है। अब १ से एक चले जाने से शूण्य का मूल्य ९ होगा क्या ?  सकारात्मक संख्या को वियोग करने से मूल्य कम जाता है, किन्तु शून्य हाजार बार वियोग करने से भी शेष नहीं होता है  कमता भी नहीं है । शूण्य ही ईश्वर है। इसीलिए  वेद में ईश्वर को पूर्ण कहते हैं।
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णातपूर्णः मुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते।।


यह ऋक ईश्वर की व्याख्या है। इस तरह से  गणित का शूण्य और बिन्दु (Decimal) प्रकाश हुआ है । बिन्दु से  गणित, गणित से  पदार्थ विज्ञान। श्लोक से आध्यात्म विज्ञान का । पदार्थ विज्ञान का  जनक आध्यात्म विज्ञान। आध्यात्म का  जनक वेद है। वेद का जनक योग है। योग के माध्यम से वेद के मन्त्रों का दर्शन सम्भव हुआ है । ईश्वर को पास पाकर भी यदि मनुष्य अल्प चेष्टा कर ईश्वर के पास न जाये तब एक संयोग खोना होगा न क्या ? इस लिए ही मैं कहता हूँ कि मानव जीवन केवल एक संयोग है। हरि के भजन कर मानव जीवन सफल कर भाइ। संयोग यदि ग्रहण ना करे और उसके उपर यदि ईश्वरिक कर्म ना कर ईश्वर विरोध कर सुकर्म ना कर शास्त्र विरोधी कर्म करें तब फिर निम्न कोटि के जीवन से लेकर जाने से क्या दुर्गति होगा सोचकर देखा उचित नहीं है क्या ? जो ईश्वर को नहीं मानते वे कहते  हैं  ईश्वर ने जन्म नहीं दिया। इसका कोई प्रमान नहीं है । इस तरह के  मनुष्य अपने मा-बाप को भी अस्वीकार करते हैं क्योकि मा-बाप के द्वारा अपने जन्म क्रिया उन्होंने नहीं देखा है। श्रद्धा, से विश्वास, कर्म से ज्ञान होता है एवं ज्ञान से भक्ति होती है। इस तरह भक्ति मानव के विज्ञान से  प्राज्ञान से लेकर  आत्मा  या ईश्वर के दर्शन कराते  एवं ईश्वर प्राप्ति कराते हैं। श्रद्धा, प्रेम, विश्वास को भी मनुष्य भक्ति कहते  हैं । किन्तु ज्ञानयुक्त ना होने के कारण  यह प्राथमिक भक्ति स्थायी नहीं हो सकती है। प्रेम इतर जीव में भी रहता है  किन्तु भूल  जाते हैं। स्थायी नहीं होता है। ज्ञान से उत्पन्न भक्ति अचला होता है। इसीलिए  कर्म एवं ज्ञान में जोर देने का प्रयोजन है। सांकेतिक भाव में महापुरुष जो कहते हैं उन्हें निरपेक्ष भाव से अध्ययन करने के पश्चात  मनुष्य को सिखाना पड़ता है । महापुरुष सरल अर्थ युक्त शब्द का  प्रयोग नहीं करते हैं। गंभीर अर्थपूर्ण शब्द का प्रयोग करते हैं। धर्म में तात्विक शब्दों का ही प्रयोग होता है। धर्म एक विज्ञान है। विज्ञान में उदाहरण रहता है  किन्तु सहज कहानियों का स्थान नहीं है। वेद गद्य साहित्य है। यजुर्वेद के  ऋक गद्य साहित्य हैं  किन्तु उसके बाद  पुराणादि के समय में संस्कृत साहित्य पद्य अर्थात काव्य में रचित हुआ है। गद्य साहित्य का  विकाश बाद  काल में  हुआ है। कविताओं में सब वचन स्पष्ट नहीं होता है। सांकेतिक वचन से अर्थ तत्त्व निकलना पड़ता है । तत्त्व न निकाल पाने से विकृत शब्दार्थ से गलत अर्थ ही जाना जाता है । स्वं भूलकर समझने से स्वं को क्षति होती है  किन्तु प्रचार करने से लाख लाख मनुष्य की क्षति होती है, एवं धर्म का  व्याभिचार होता है। धर्म का  व्याभिचार से मानव समाज कलुषित होता है। इस तरह के काम से  ईश्वर की इच्छा के  विरुद्ध होने के कारण लोगों की   आत्मिक अधोगति होती है। आत्मा की अधोगति से बढ़कर क्षति मनुष्य की और क्या हो सकती हैं! उदाहरण स्वरूप में  कीर्त्तनघोषा की एक पंक्ति ही यथेष्ट है। पंक्ति में पुराण के श्लोक का अनुवाद है। युगधर्म के कार्यो   का वर्णन है ।
सत्ययुगे ध्यान, त्रेतायुगे यज्ञः द्वापरे पूजा। कलिते नाहिक नाम विने आनपूजा।।


युग एक काल्पनिक समय है। युग की कोई भी समयसीमा नहीं है। युग की बात ऋक्‌वेद में भी कहा गया है। पुराण में भी कहा गया है। ऋक्‌वेद एक मनुष्य के  सारे दिन के कर्म काण्ड के साथ युग की तुलना की है। मनुष्य की आलस्य या तामस अवस्था है कलि। अर्थात सुप्तअवस्था को कलियुग कहते  है। जागकर सोने को द्वापर युग। उठ कर बैठने को त्रेता एवं उठ कर उतसाह के साथ काम में लगने को सत्य युग कहते हैं।


कलिः शयानो भवति सञ्जिहानन्तु द्वापरः उत्तिष्ठं त्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरण चरैःवेति चरैःवेति।।


ऊपर के श्लोक के अर्थ में किन्तु अति बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है। पौराणिक साहित्य आत्मविचार एवं देहविचार कर व्यास मुनि के सब लिखा था। उस समय के व्यास सबसे ज्ञानी एवं शिक्षित थे। पुराण समूह यद्यपि महाकाव्य के पश्चात छन्दोबद्ध हुआ है  किन्तु उसकी  रूपरेखा कई हजार वर्ष पूर्व उपनिषद के समय में ही रचित हुआ था। कहानी की शुरुआत  उपनिषद से ही हुआ था। महाकाव्य दोनों  रूप द्वारा रचा गया था। एवं उसके पश्चात ही पुराण रचित हुआ था। पुराण का युग भारतवर्ष का स्वर्णयुग ना होने के कारण रौप्ययुग कहा जाता है। इस  युग में अर्थात ई.पू ३/४ से  ई. ७/८ पर्य्यन्त भारत में विज्ञान, अङ्क, अर्थनीति, राजनीति, साहित्य, भुगोल, खगोल (ज्योतिर्विज्ञान) इत्यादि प्राय सभी विषय में भारत विश्व में अग्रणी था।उसके पश्चात आया  अन्धकार युग। ई.पूः ४०० पहले भी प्राय २ हाजार वर्ष तक तामस युग था। इस  समय काल कुतन्त्र का एसा प्रभाव था की कि एक महापुरुष के रूप में बुद्ध का आविर्भाव हुआ। बुद्धदेव ने तन्त्र के प्रवाह में बाधा दिया, किन्तु सनातन वैदिक धर्म का अस्थि पंजर ही तोड़ दिया। दक्षिण पूर्व एशिया एवं मध्य एशिया उस समय हिन्दु था, बुद्ध ने बौद्ध धर्म फैलाया  एवं बौद्ध धर्मे में रस ना आने से सब मुसलमान हुए। वेद विरोधी शूण्यवादी बौद्धधर्म ने फिर एकबार सिर उठा लिया है। हिन्दुओं ने यदि फिर भूल किया, ५० वर्ष के भीतर बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र मुसलमान प्रधान राज्य में रूपान्तरित होगा। आम्बेदकर के वंशधर सब बौद्धधर्म ग्रहण करना शुरु किया है।   
ऊपर का श्लोक देहविचार का श्लोक है। मातृगर्भेर से  मृत्यु पर्य्यन्त जिस जिस अवस्था से मनुष्य अग्र्सर होता  है कवि ने उसकी वर्णना किया है। मातृगर्भे में प्रथम मत्स्यरूप अवतार होकर, उसके पश्चात कूर्मरूप होता है।  उद्धारिला चारि वेद प्रलय जलत। मातृगर्भे एक जलपूर्ण थैली अर्थात सब नागालेर बाइरे प्रलय जल में  चार वेद उद्धार होकर , वेद का अर्थ कर्म अर्थात दो हात एवं दो पैर चार कर्मेन्द्रिय की सृष्टि हुइ। इस भाव में गर्भ से जन्म तक शिशु से  वृद्ध अवस्था पर्य्यन्त दश अवस्था ही दश अवतार हैं । मातृगर्भ में भ्रून नीचे की तरफ माथा कर हात मोड़कर आँख बन्ध कर जन्म के समय पर्य्यन्त ध्यानमग्न रहते हैं। मातृ गर्भ में  पाप-पूण्य, धर्म-अधर्म, चन्द्र-सूर्य्य किसीका प्रवेश नहीं होता है। खाना पीना हगना मूतना वहां कुछ भी नहीं है। इस समय को लेखक सत्ययुग कहते  हैं। सत्ययुग में ध्यान करते हैं। उसके बाद जन्मलाभ कर कर्म आरम्भ करते है जैसे कि,जन्म होते ही रोते, पायखाना प्रस्रव कर, माँ का दूध पीता इत्यादि कर्म आरम्भ होता है । उसके बाद अल्प बड़ा होकर  पुतले, रेत के घर, बाँश के गाड़ी इत्यादि से खेल में  रत होता है। कर्मे का एक और नाम यज्ञ है। त्रेतायुगे यज्ञ। इसके बाद लड़का स्कूल जाता है। साहित्य, इतिहास विज्ञान आदि विषय अलग अलग  कर पढ़ता  है। पढ़ने के बाद गृहस्थी कर, कृषि, व्यवसाय इत्यादि में लगता है। कृषिकर्म ही देखिये, धान, गम, पाट, आख अलग  अलग  करना है क्या ? Subject wise analysis is Puja. एक विषय के आद्योपान्त अनुशीलन को पूजा कहते  हैं । हम  साधारनतः जिसको पूजा कहते हैं वह भी  Subject wise  जैसे कि  शिवपूजा – आवाहन से  विसर्जन पर्य्यन्त एनालिसिस को पूजा कहते  हैं ना कि? इस  समयकाल अर्थात द्वापर युग ही सबसे दीर्घ समय का युग है । इसके बाद वृद्ध होकर बिस्तर में गिरता है। हाथ पैर नहीं चलता, अलस जीवन, मन भी कष्ट से नकारात्माक हो जाता है। अशान्ति मृत्युभय, रोगाक्रान्त जीवन को ही कवि कलियुग कहते हैं । सारा जीवन दो हाथ लेकर आता है फिर स्थिर, अचल हो जाता है। मुख से राम नाम लेना छाड़कर और कुछ भी नहीं कर सकते है। “कलित नाहिके नाम बिने आन दुजा”। बार बार एक नाम उच्चारण करने को नाम लेना कहते  हैं। नाम लेना ही  जपयज्ञ अर्थात जपकर्म है। अब नाम बोलने से जितना बड़ा ताल नागड़ा बजाकर मनुष्य छाती कंपा सकते हैं उतना बड़ा  पाठक, और बड़ा नाम होता है। इस भाव से अधिक पैसा लेकर अभिनय  कर जयमती कुमारी, ल’रा राजा, खर्गेश्वर मृत्यु इत्यादि के पद रचना कर गाने से धर्म और अधिक होता है। ये मनोरञ्जन के लिए  प्रयोजन है। किन्तु धर्म का नाम से नहीं है । जो  सुललित कण्ठ से , ताल से , कम शब्द से , लालित्य पूर्ण एवं अर्थपूर्ण शब्द-पिरोकर  करते हैं वे मनोरञ्जन हो सकते हैं । किन्तु ये शास्त्र के अनुसार नाम नहीं है। एक बात जानने का प्रयोजन है कि शास्त्र में जिसको नाम कहा गया है वह देवता का नाम है  जो, जिसका  नाम चाहते हैं वह उसका नाम ले सकता है। जो जैसा होता है उसका वह नाम होता है। जैसे कि  नमो नारायनाय, ओँ नमो भगवते वासुदेवाय, ओँ नमः शिवाय, गं गणेशाय, ह्रीं दुं दूर्गायै इत्यादि। देवता के साथ दैत्य, राक्षस इत्यादि को नहीं जोड़ सकते हैं। जिसका  नाम लेते हैं वही जपकर्त्तार शरीर में आते हैं । देवता को बुलाने से देवता, दैत्य को बुलाने से  दैत्य, भूत को  बुलाने से भूत आते हैं। आत्मा की पुष्टि साधना के द्वारा देह के लाभ होने के लिए ही साधना, जप, भजनादि देवार्चना करते हैं।
यहाँ  महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमारे महापुरुष धर्म के भविष्य को अन्धकार कर गए हैं सोच सकते हैं क्या ? गुरु शिष्य का सम्पर्क टूट जायेगा बोलकर क्या हम सोच सकते हैं ? देवता, गुरु आदि के साथ भक्त या शिष्य का संयोग का सूत्र है ध्यान। धर्म जब पुरान होता है नए युग के भक्त चिन्ता, भावना, परिवेश भाषा संस्कार इत्यादि में परिवर्त्तन के फलस्वरुप पुराने वचनों को ग्रहण करने में असुविधा पाते हैं। उसके ऊपर चिन्ता के परिवर्तन के कारण बहुत समय में  धर्म की  व्याख्या में बहुधा व्याख्या से निकलकर भ्रम की सृष्टि होती है और धर्म का  विभाजन होता है। धर्म का (पन्थ) विभाजन विपद जनक है। धर्म गङ्गा के समान पवित्र है। इलाहाबाद में  तीन गङ्गा के मिलन को  त्रिवेनी सङ्गम कहते  हैं। इसी तरह का सङ्गम विष्णु की अध्यक्षता में ३३ कोटि देवता के सङ्गम स्थल में हुआ है। वहां स्नान करने से विष्णुलोक प्राप्त होता है। मृत्यु के पश्चात अस्थि देने से भी विष्णु पद पातें हैं। कुम्भ के सामान समान पवित्र कार्य वहां सम्पादन होता है। यह गङ्गा जब बङ्गाल के सुन्दरवन पंहुचता  प शतधारा होकर, सती जैसे नटी हो जाता है। सुन्दरवन में नौका में जाने से मगर खींच लेकर जाता है। जमीन से जाने से (बङ्गाल) बाघ खाता है। पेड़ पर चढ़ने से प्रकाण्ड सांप काट लेता है। जल भी विषाक्त है । धर्म के  भी  विभाजन होने से पवित्रता नहीं रहता है। अतएव धर्म के इस समस्या का हल गुरु से जिज्ञासा से पता चलता है  कौन सा वचन सत्य कौन सा पथ सत्य। इसीलिए तो कहते  हैं  – “गुरु बिना कौन बताये बात, बड़ा बिपद अमाघात”। धर्म संकट  से  गुरु छोड़कर कोई और उद्धार नहीं कर सकते है। गुरु को ध्यान में ही बुलाया जाता है। ध्यान यदि सत्य युग छोड़कर न हो तब तो  गुरु को पाने का  रास्ता अवरुद्ध होगा क्या नहीं ? गुरु मरने से  धर्म भी मर जायेगा। मृत देह लेकर बैठे रहने के समान होगा ना क्या ? गुरु यदि सत्यवादी ज्ञानी हों तब वे इस तरह की आत्मघाती भूल करेगें क्या? भारत में  बहुत से पन्थ है जहां गुरु को बुलाने की व्यवस्था नहीं है। गुरु न रहने से धर्म या पन्थ मृत होगा। सनातन धर्म अमर है। वहां कोई व्यक्ति ध्यान कर ऋषि, मुनि, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, अपने गुरु जिसका प्रयोजन हो बुलाकर अपने समस्या का समाधान कर सकते हैं। अतएव, ध्यान, यज्ञ, पूजा को छोड़ने की बात  श्लोक में नहीं  कहते हैं, ना समझ के कारण भूल व्याख्या किया जाता है। और इस तरह की भूल व्याख्या कुछ लोग करते देखे गए है। ये ना जान कर की गयी व्याख्या है। वास्तविक अर्थ जान लेने से कोई सत्यवादी धार्मिक व्यक्ति भूल कभी भी नहीं बोल सकते हैं। सत्य वचन चिरदिन रहता है , मिथ्या वचन अधिक दिन नहीं टिकता है। तत्व जानने के लिए अनुशीलन रत रहना पड़ता है। तत्व जानने के पश्चात के लोगों को बोलना चाहिए। लोगों के मुख से सुनकर पुस्तक में पढ़कर  धर्मक्षेत्र में कोई बात जोर देकर जन-साधारण को  कहना उचित नहीं है। इन बैटन को काटकर सर्वदा ही अपव्याख्या सुना जाता है  


“अन्य देवीदेवता की न करो सेवा, घर में मूर्त्ति को न रखे प्रसाद न खाए इससे भक्ति में व्याभिचार होगा”।


इसका अर्थ यह होगा कि मन्दिर नहीं जाओ, मूर्त्ति नहीं देखो, प्रसाद नहीं खाओ और देवी देवता को प्रणाम नहीं करो। ये करने से तुम्हारे भक्ति में व्यभिचार होगा। भक्ति को इतना हास्यास्पद करने से धर्म क्या  एक  नाटक खेलने के समान होगा ना? इस तरह के अद्भुत बात कभी कोई करता है क्या। इसका गंभीर अर्थ होना होगा। उसके पश्चात इस पुराण शास्त्र से  अनुवाद किया श्लोक। पुराण वेद का अर्थ, देवता का अर्थ। पुराण में इस  तरह देव विरोधी हल्का वचन कभी नहीं करते हैं। तब उसका कोई गूढ़ अर्थ अवश्य है। आइये देखें। ज्ञान मार्ग में जिसको सन्यासी कहते हैं भक्ति मार्ग में उनको कैवल्य कहते हैं। स+न्यास = सन्यास। न्यास का अर्थ स्थापन। स का अर्थ सकारान्त अर्थात ह्याँ। किसको कहाँ स्थापन? ब्रह्माण्ड को ब्रह्म में स्थापन। अपने को अपने में स्थापन।  अहं ब्रह्मास्मि या सोऽहम। एकमेव द्वितीय नास्ति। कैवल्य का अर्थ केवलम। मात्र एक जन ही। एक ही  एक शरण में। कैवल्य सब घर संसार त्याग कर आश्रम, सत्र इत्यादित में रहते हैं। कैवल्य धारणा होकर इस  ब्रह्माण्ड एक मैं ही हूँ। मुझको छोड़कर द्वितीय कोई भी देवता नहीं है । दृश्यमान सब मैं ही हूँ। कैवल्य के लिए ही कहते  हैं, कि अन्य देवी देवता की सेवा नहीं करो, अर्थात अपने को छोड़कर अन्य देवी देवता नहीं है (देवी देवता का अर्थ है आत्मा) देवी देवता को स्वीकृति (सेवन ) नहीं देना है। अर्थात समस्त विश्व को तुम अपने आप को ही  कहते हो। (गृहस्थ होने से घर गृह और देवता रहने से घर को मन्दिर कहते  हैं ) जो  घर से  कैवल्य में निकल आया है वह वहां नहीं जाता। गृह में रखे मूर्त्ति को नहीं देखना है। मूर्त्त शब्द से मूर्त्ति हुआ है। मूर्त्त का अर्थ वर्तमान होना, मूर्त्तमान होना है। अर्थात अपने परिवार के लोगों को देखने से मोह उतपन्न होगा उनको नहीं  देखना। उनका कोई भी अनुग्रह गहण नहीं करना। प्रसाद भी नहीं लेना। प्रसाद का अर्थ अनुग्रह। ये करने से तुम्हारा कैवल्य भक्ति में व्यभिचार होगा। नष्ट होगा। प्रतिमा और  मूर्त्ति में प्रभेद अनेक नहीं जानते हैं। गृह और  मन्दिर को एकाकार करते हैं । अर्थ में अनर्थ स्थापन करना दोषनीय बात है। धर्म का व्यभिचार होता है।


ज्ञान से जन्मा भक्ति से ही कैवल्य आ सकता है। कैवल्य एवं सन्न्यास एक ही है। प्राथमिक भक्ति द्वैतभाव  एवं कैवल्य अद्वैत है, इसी को अहं ब्रह्मास्मि कहते हैं। प्राथमिक भक्ति “तुमि नाथ, मैं नाथबन्त” से  आरम्भ होकर “केवलम्‌” में समाप्त होता है। द्वैतेर से अद्वैत में, बहुत से एक में अंत है। कैवल्य एवं सन्न्यास एक ही है। किन्तु कैवल्य या सन्न्यास एक विचार धारा मात्र है एवं यह आचार विचार से ही होगा। काम ही आचार है जो लगेगा ही। आचार रहने से, प्रत्यक्ष कर्म करने से ही ज्ञान, विज्ञान, प्रज्ञान आयेगा। प्रत्यक्ष कर्म ना करने से प्रत्यक्ष ज्ञान का लाभ कहाँ से होगा? रामायन में रावण ज्ञानी, विज्ञानी था। प्रज्ञान का अर्थ भी अध्ययन से जाना था। इसीलिए  मृत्यु के समय में  राम उनके पास ज्ञान लाभ करने के  लिए ही बैठे थे। किन्तु प्रत्यक्ष कर्म ना करने का  फल से रावण विज्ञान में ही देह संवरण करे थे। देह त्याग करने के लिए ही रावण को राम की सहायता का प्रयोजन हुआ था। किन्तु राम ! राम को प्रत्यक्ष साधना कर कर्म, ज्ञान, भक्ति, विज्ञान, प्रज्ञान लाभ कर भोग कर एक एक कर त्याग कर नारायन प्राप्त हुआ था। रामायन की कहानी एक मानव साधक दशर की कहानी है। दश इन्द्रियों के कारण   सब मानव साधक ही दशरथ हैं। इन्द्रिय ही रथ हैं। रां – राम अग्नि या सूर्य्य हैं। इसीलिए तो दशरथ सूर्य्यवंशी थे। दशरथ ने साधना कर जिस दिन आत्माराम का दर्शन हुआ उस दिन से उनका देहाभिमान नष्ट हुआ (दशरथ की मृत्यु हुई) आत्मज्ञानी राजा केवल मन(सीता) विवेक(लक्षण) को लेकर दण्ड साधना के लिए ही पञ्चवटी (पञ्चवायु) में  गए। इस साधन काल में भी देह में, मन में उतपन्न होता है कितने राक्षस भाव जिनका विनाश कर अग्नितप्त मन (सीता) को लेकर  अयोद्धा में (जहां कोई दण्ड नहीं है, युद्ध नहीं है शान्ति मिलता है) लौट जाते हैं। साधना क्या अंत हुआ? सबसे श्रेष्ठ त्याग है कामना, वासना का जन्मदाता चञ्चल मन को (सीता) विवेक से द्वारा वनवास देकर त्याग किया। किन्तु विवेक? एक दिन लक्षण को त्याग कर विवेक का भी  त्याग कर जीवात्मा राम अद्वैत आत्मा होकर नारायन समकक्ष हुये। एक धर्मी वस्तु का ही मिलन हो सकता है। जीवात्मा राम आज आत्मा होकर नारायन हुए और सरजू के जल में उतर कर जल में  नारायन के  साथ एकाकार हुए। यही बाल्मिकी के  रामायन का मूल वचन है। एक जन शास्त्र पड़कर  ज्ञानी रावण एवं दूसरा दण्ड साधन (गुहा साधन) कर प्रज्ञानी राम। “धर्मस्य (आत्मार) तत्वं निहितं गुहायां” धर्मतत्त्व ना जान कर  गुरु होना विडम्वना छोड़कर और कुछ भी नहीं है । इस तरह से प्रपञ्चना से  गुरु शिष्य नरक में जाकर एक दूसरे को दोषारोपण करते हैं। शिष्य गुरु से कहते  हैं , कि उनके वचन सुनकर नरकवास हुआ, आप पहले जाइये। गुरु कहते हैं, तू पहले जा, इस तरह कहते कहते   दो जन ठेला ठेलि कर नरक में गिरते हैं| “लोभी गुरु लालची चेला पड़े नतरहे ठेल्लाम ठेला”।  


आत्मा को जानना ही आत्मज्ञान है। आत्मा को जानने के लिए ही देह में रहने वाले जीवात्मा को जानना होगा। जीवात्मा को जानना और पहचानना आत्मा को जानने के समान ही है। जीवात्मा के परिचय से जगत को जान  सकते हैं। किन्तु आत्मज्ञानी आत्मा के परिचय होने से भी आत्मा का सम्पूर्ण परिचय ज्ञात नहीं होता है  एवं जगत को नहीं बता सकते हैं। जिस दिन, जिस मुहूर्त में वे देह त्याग कर समाधि लाभ करेंगे,आत्मा में मिलित होंगे, उस दिन यदि समय सुविधा मिले तो आत्मा का परिचय के सकते हैं | जिस तरह देह के जीवात्मा को परमात्मा के  साथ मिलने के मुहूर्त में वे पहले किये गए सङ्कल्प से जैसे  महात्मा गान्धी जगत को बता कर गए  ”हे राम”। यह राम ही  बाल्मिकी के तपोलब्ध राम (दशरथ) हैं। हे राम का अर्थ समस्त जगत ही राम है। राम बिना ब्रह्माण्ड में  अन्य कुछ भी नहीं है।


“गुरु कृपाञ्जन पायो मेरे भाइ, राम बिने कुछु देखत नाही”। गान्धी जी सत्य का लङ्घन नहीं करते। मानवीय धारणा के सत्य का भी पालन करते थे (आचार) एवं सत्य का भी (आत्मार) अन्वेषन करते थे। सर्व्वभुते हितव्रता थेे  गान्धिजी। सबल दूर्बल के युद्ध में सर्वदा दूर्बल का पक्ष लेते थे। राम तो एक ही हैं जो रूप लेकर विभिन्न देह में वर्तमान हैं। उसमे सङ्घर्ष का स्थान कहाँ हैं ? राम के विभिन्न रूप में भेद कैसे कर सकते हैं। राम तो एक ही हैं। गान्धिजी समस्त जीव में राम का दर्शन करते थे।


आत्मा के जानने को ही  आत्मज्ञानी कहते हैं। आत्मा के जानने से ही आत्मा का परिचालना कर सकते हैं।  ना जानने से परिचालना कैसे करेंगे? परिचालना न करने से आकाश तत्त्व विष्णु के पास कैसे जा सकते हैं ? मानव का चरम उद्देश्य उतक्रमण के योग से उन्नीत होकर जहां  से  इस  जीव जगत  में आये थे फिर वहां लौट जाना है । लौटना अपने को ही पड़ेगा ज्ञान के द्वारा। जिस ज्ञान के द्वारा जाना होगा वह है चरम ज्ञान, प्रज्ञान। प्रकृति ने जन्म के साथ जीव को एक सहजात बुद्धि प्रदान किया है। इसको अन्तःप्रेरणा कहते हैं | अन्तःप्रेरणा ही विज्ञान की  भाषा में  योग्यतम की उत्तरजीविता का कारण है। अर्थात जीवित रहने की  इच्छा। उतक्रमण के समय इस मानव की देह में  बुद्धि intellect के रूप में विकशित होती है। बुद्धि का विकाश ही ज्ञान है। ज्ञान की उन्नति को विज्ञान और  विज्ञान की उन्नति को प्रज्ञान कहते हैं। प्रज्ञान जीवेर क्रम विकाश का अन्तिम स्तर है। वैदिक शास्त्र में जिस ज्ञान शब्द का व्यवहार हुआ है वह इस  प्रज्ञान की बात ही कहते  हैं। प्रज्ञान का अर्थ आत्मज्ञान। साधना के द्वारा मानव इस  चरम स्तर में उपनीत हो सकते हैं। साधना का अर्थ दण्ड साधन, सतकर्म, सतविचार, मन्थन इत्यादि है। इस  विचारधारा को आगे लेकर जाने के लिए  सतकर्मे, सेवाकर्मे, विभेदहीन विचारधारा आचरण करना ही  होगा। आचरण नहीं तो  ज्ञान, विज्ञान, प्रज्ञान कुछ भी नहीं होगा। एसे लोग पथभ्रष्ट हो सकते हैं। आचार के द्वारा ही  विचार गठन होता है। इसीलिए  कहा जाता है  “आचारौ परमो धर्मः”। इस तरह आचरण  यथा, नाम, कीर्त्तन, श्रवण, भजन, पूजन, यज्ञादि सामूहिक भाव में हो सकते हैं। किन्तु उच्च स्तर की  साधना जैसे  जप, ध्यान, एकान्त में  चिन्तन मन्थन, आसन प्राणायाम, ग्रह ग्रहान्त में  अन्वेषण के  लिए शरीर से बाहर निकलना या लिङ्ग शरीर में काम (योग निद्रा) सम्पूर्ण एकान्त में ही होगा। साधना में अन्य मनुष्य के शरीर का वलय एवं मानवदेह का  कर्षण सम्पूर्ण बाधादायक है। साधना में  मन का उन्नीतकरण होने से तभी वाञ्छित फल का लाभ सम्भव हो सकता  हैं। मानव मन का भी आकर्षण है। इस  कर्षण को यन्त्रद्वारा मापा जाता है। यह जागतिक या महाजागतिक परिधिर के बहार है। समझने के लिए ही कहना होगा अतिमहाजागतिक।


धर्म का अर्थ है आत्मा यह बात हम आलोचना कर चुके हैं। आत्मा देह, जीव के शरीर में  रहने से जीवात्मा कहा जाता है। अलग अलग  बर्तन में जल को रखने से उस बर्तन का नामकरण होता है । जैसे कि एक बाल्टी, एक कलसी इत्यादि। उसी तरह अलग  अलग  देह में आत्मा या धर्म रहने से उसका वैसा नाम और  स्व-धर्म है।  स्व-धर्म का  स्व-भाव, स्व-रूचि के अनुसार चलने को ही स्वधर्म पालन कहते हैं | एक एक जीवात्मा स्वतन्त्र भाव से स्व-भाव अनुयायी श-श, हजार-हजार बार मानव जीवन भोग कर आये हैं। बहुत से जीवात्मा कल्प के बाद  कल्प में मानव योनी भोग किया है। इन  जन्मों में उनके कर्म के अनुसार से स्व-भाव या स्व-धर्म की एक एक संस्कार की सृष्टि हुई है जो अवचेतन या सहजात बुद्धि के अन्दर है। यह सहजात बुद्धि भी मानव की अपनी ही है। अपने मन का, कर्म के, भाव का  अभिलेख चित्र के समान  सुरक्षित रहता है। इसीलिए  शास्त्र में इसको  चित्रगुप्त कहते हैं। जो यम या धर्मराज आत्मा के साथ रहता है। आत्मज या आत्मा की संतान। यही योग्यतम की उत्तरजीविता है। पहले के जन्म के अभिलेख के अनुसार से जीव कर्म कर, कर्म फल भोग कर एवं उसका अभिलेख होता रहता है। इसीलिए  जीवात्मा एक होने से भी  सम्पूर्ण अलग अलग हैं । यहाँ  मा, बाबा, भाइ-दादा कहते हैं  यथार्थ में कोई भी नहीं है । किन्तु आञ्चलिक समाज व्यवस्था, सामूहिक भाव  अनुशीलन के  प्रभाव मन का  उपर में गिरते हैं, इस के अनुसार ही  मन का गठन होना निश्चय है। तथापि हम को जानना होगा कि  प्रतिजन व्यक्ति अलग  एवं उनका स्व-धर्म  पृथक है। जैसे कि पाँच तत्त्व, पाँच आयाम से समस्त विश्व रचित हुआ है  इस  तरह पाँच प्रकार के पन्थ से समग्र जीव का विभाजन हुआ है। इन पाँच पन्थ के  द्वारा जीव की गति निर्णय होती  है । इन पाँच पन्थों का नाम (भारतीय मत से) शिव, विष्णु, सूर्य्य, शक्ति, गनपति हैं । अन्य भाषा में  या धारणाओं में इन नामों में परिवर्तन हो जाता है इसमें दोष नहीं है | इन पाँच पन्थों के भीतर ही समस्त जीव जगत सम्मिलित हैं। निम्न कोटि के जीव प्रकृति की गति से आगे बढ़ते हैं। किन्तु मानव स्वतंत्र मन लाभ कर स्वतंत्र होने के कारण मानव को निजी प्रचेष्टा करना पड़ता है। मन या माइंड  का अर्थ है मनुष्य। मन या मनुष्य कर्म के आधार पर उपमन या सहजात मन में अभिलेखित होता है। निम्न कोटि का कोई अभिलेखा नहीं होता है। ये जीव प्रकृति के बहाव के स्रोत में गतिमान होते हैं। मनुष्य सम्पूर्ण सोलह कलाओं में पूर्ण होकर प्रकृति के  गोद  से स्वतंत्र होकर अपने समान चल सकते हैं एवं अपने कर्म फल भोग करने में समर्थ हैं। प्रकृति केवल मित्र के  समान है या आवश्यकता होने पर सहायता करता है। इसीलिए  कहते  हैं  “प्राप्तेतु षोड़श वर्षे पुत्रं मित्रं वदाचरेत”। मनुष्य भी वैसे ही हैं । समस्त मानव अवयव लाभ कर के  “पूर्ण षोड़श तत्त्व लाभ  अर्थात जीव सृष्टिर वीर्य्य” सोलह वर्ष में ही पूर्ण मानव होता है , सन्तान जन्म देने की क्षमता होती  है  इसीलिए  कहते  हैं की सोलह  वर्ष पूर्ण होने से  पुत्र का  साथ  मित्र के समान व्यवहार करना उचित है| अतएव मनुष्य के अपने बुद्धि, विवेक इत्यादि द्वारा चालित होने के कारण अपने कर्म का फल अपने को ही भोगना पड़ता है। अपने आत्मा को जानना, अपने पथक को जानना, इस  मत में अपना कर्म करना इत्यादि अपने को ही है। उपयुक्त शिक्षक या गुरु की  साहायता इन सब कर्म में स्वयं की प्रचेष्टा से होता है। यह  काम बहुत सहज भी  नहीं है। जीवन से जुड़ा प्रचेष्टा के द्वारा शनैः शनैः आगे बढ़ते हुए मानव किस जन्म में मुक्ति या मोक्ष लाभ करेगा। आजकल पुस्तक पढ़कर   पुस्तक लिखे बहुत से गुरु द्वारा बताये मुक्ति के पथ आँख बंदकर चलकर पथभ्रष्ट होना दुर्भाग्य छोड़कर और कुछ भी  नहीं है । इस तरह गुरु कोई बोलता पूजा-पाठ नहीं करो मुक्ति नहीं मिलेगा , कोई बोलता कुछ भी नहीं  करन होगा, ताल बजकर नाम-गान करिए , मोक्ष लाभ होगा इत्यादि। ये खण्डवाक्य हैं, पूर्ण वाक्य नहीं है । पूर्ण वाक्य द्वारा ही साहित्य होता है, खण्ड वाक्य द्वारा साहित्य नहीं होता है। जीवन के समस्त कर्म के द्वारा ही   जीवन पूर्ण होता है।
शास्त्र कहते हैं ब्रह्म को पाने के लिए ब्रह्मचर्य्य पालन करना होगा। हमारे शास्त्रज्ञ पण्डित ने अर्थ निकला कि विवाह न करने से ही ब्रह्म मिलेगा। किन्तु वे ये नहीं जानते हैं की विवाह न करने से भोग की  वासना मन से  विलुप्त नहीं होती है। वासना मुक्त ना होने से ब्रह्म को कैसे मिल सकते हैं ? एक को अनेक कर अनेक को एक करना ही सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति है। भोग करने से ही त्याग कर सकते हैं। भोग ना करने से त्याग किसका करेंगे? त्याग के पश्चात ही मोक्ष मिलता है | क्या ब्रह्मचारी का अर्थ ब्रह्म का आचरण करना और  ब्रह्म के  आचरण में संसार किस तरह बाधा हो सकती है। वैदिक मन्त्रदृष्टा ऋषि सब इसके प्रमान हैं। वे कोई भी अविवाहित नहीं थे। वर्णाश्रम पालन करके ही वे परमगति लाभ कियें। तब आजीवन अविवाहित क्यों ? इससे तो  मोक्ष में बाधा की सृष्टि होती है । अविवाहित को ब्रह्मचारी बोलने और सोचने एवं उसके फल के एक कहानी है। हनुमान अविवाहित होकर अति कठोर भाव से वीर्य्यरक्षा कर अपने को विश्व का श्रेष्ठ ब्रह्मचारी कहते हैं। अहिरावण राम लक्षण को हरण कर पाताल लेकर गए हनुमान पृथ्वी छिन्न कर पाताल में प्रवेश किया | अहिरावण के सिंहद्वार पर एक शिशु पहरा दे रहा था। हनुमान को प्रवेश करते उद्यत होने से  शिशु ने  हनुमान को  एकपाश से धक्का देकर १२ योजन दूर चितपतांग होकरे गिरा दिया। एक शिशु की एसी शक्ति देखकर हनुमान स्तब्ध होकर शिशु के पास जाकर जिज्ञासा किया, तुम्हारे पिता कौन हैं ? वीर हनुमान और मेरी माँ का नाम मतसगन्धा और मैं मकरध्वज। यह उत्तर सुनकर  हनुमान स्तम्भित होकर, निराश होकरे बोले, अपनी माँ को आह्वान कीजिये। मतसगन्धा के आने पर हनुमान बोले, मतसगन्धा! यह सन्तान यदि मेरी है तो इसका प्रमाण देना होगा कि नहीं ? मतसगन्धा ने कहा, आपने ब्रह्म का आचरण निष्ठा के साथ ही किया है। किन्तु वीर्य्यक्षय ना करने से ही यदि अपने  को  ब्रह्मचारी सोचते हैं तब भूल होगी। आपके शरीर में  वीर्य्य का आधिक्य होकर उर्धरेता हुआ है । गन्धमादन पर्वत लेकर आने के पश्चात सागर में  स्नान करते समय में आपके स्वेद के साथ मिला वीर्य्य खाने से इस सन्तान का जन्म हुआ है इसीलिए यह आप की ही सन्तान है। इसके सिवाय और कोई बात नहीं है। हनुमान अवाक होकर सोचने लगे वीर्य उत्सर्जन के बहुत स्रोत है एवं वीर्य उत्सर्जन ब्रह्मचर्य्य में बाधक नहीं है। सुस्थिर सुसंगत वीर्य्यक्षरण मनुष्य के मन और मष्तिष्क को शान्त रेखकर  मन में  एकाग्रता लाते हैं। भावातीत ध्यान सुस्थिर शान्त मन से ही सम्भव है एवं ध्यान से ही आत्म दर्शन होता है। इस प्रकार से से सोचा जा सकता है कि अविवाहित होकर रहना विज्ञान सम्मत कथन नहीं है, साधनाओं में  सहायक नहीं है , सर्व्वसाधारण के लिए  क्षतिकारक एवं प्रकृति विरोधी है। कैवल्य शब्द का भी अर्थ व्यञ्जक नहीं है । प्रकृति को बाधा देकर  मनुष्य  उच्च उच्चतम चिन्ता नहीं कर सकते है। आत्मचिन्तन सर्वोपरि उच्चचिन्तन है। नव्य महापुरुष कोई भी  अविवाहित नहीं हैं। जिस किसी विषय का ही न हो कोई अविवाहित दिव्य पुरुष मिलना एक विरल घटना है। दो एक जन शङ्कराचार्य्य एवं विवेकानन्द का उदाहरण देते हैं। इस कारण से दोनों नव्य उद्भावन की उम्र नहीं पहुंच सके| यद्यपि दोनों ही गंभीर चिन्ताधारा के पुष्ट आत्मा थे। वास्तविकता यह है कि ४५ वर्ष के पर्य्यन्त मानव की  दैहिक विवर्त्तन समूह होकर पार्थिव विकाश में सिद्ध हो सकती हैं। ४५ वर्ष के पश्चात मष्तिष्क का अर्थात चिन्ताधारा में परिर्त्तन शुरु होता है। इस समय में थाइरॉयड से नीचे के सभी ग्रंथि क्षीणकाय होकर, समस्त शक्ति, आध्यात्मिक भाव से मष्तिष्क में स्थान लेकर विकशित होता है। नई नई  चिन्ताधारा मष्तिष्क में विकाश लाभ करते हैं । किन्तु कठोर वीर्य्य-रक्षाकरने से वीर्य्यसमूह देह को शक्तिशाली कर मष्तिष्क की  चिन्ता में बाधा दान करते हैं|  सत्य वीर्य्यधारीयों का मष्तिष्क  दुर्बल होकर शिशु-सुलभ हो जाता है। देह (द्वैत या दैत्य ) शक्तिशाली होने से  मष्तिष्क  दुर्बल होगा ही  (अद्वैत बुद्धि या प्रज्ञा)। इस  विषय में विशेष आलोचना की आवश्यकता है। गृहस्थ जीवन पूर्ण करने से ही वाञ्छित फल लाभ किया जा सकता है | यदि संसार भोग कर यथा समय में  गृहस्थी त्याग कर पूर्ण ब्रह्मचारी होता है । ४५ – ५० वर्ष के भीतर संसार त्याग कर वाणप्रस्थी ब्रह्मचारी होकर सन्यास की ओर अग्रसरित होना चाहिए। इस  समय में  द्वैत या दैत्य शरीर दुर्बाल हो जाता है एवं अद्वैत या देव ज्ञान-विज्ञान-प्रज्ञान शक्तिशाली होकर नव उद्भावन करना शुरु करते हैं। अविवाहित अवस्था इसका सम्पूर्ण उल्टा है । पीयूषिका-ग्रंथि परिपूर्ण होता है ।


जगत सृष्टि के पाँच तत्त्व एवं पाँच पद्धति के विषय में प्रबन्ध के आदिभाग में उल्लेख किया गया है। इस भाव का  सृष्टि के मूल कारण आत्मा या धर्म को जानने के लिए पाँच पथ का निरूपन करना पड़ता है । पथ का अर्थ मनुष्य के रूचि की बात कही गयी है। पाँच तत्त्व का मुख्य-गौण अंश द्वारा गठित देह मन की रूचि भी इसी तरह से  गठित होता है। जिसके देह में जिस भाग का अंश मुख्य होता है उस देह की रूचि भी उस दिशा में होता है। अतएव रूचि के अनुसार से आगे बढ़ने से सहज ही साध्य की उपनीत हो सकती है। इन पाँच पथ / पन्थ के एक नायक या देवता है । विष्णु (वैष्णव), शिव (शैव), सूर्य्य (सौर), शक्ति (शाक्त), गणपति (गाणपत्य) इस  पद्धति या पन्थ के द्वारा अनुशीलन सुगम होता है। किन्तु ह्रस्व बुद्धि में इन सबको एक एक धर्म कहते हैं  सोचना भूल है। अनेक ही जिस पन्थ को लेते हैं उसको की  सत्य एवं बाकी को मिथ्या सोचना तर्क में लिप्त होना है। यह  अज्ञानता के फलस्वरुप है। एक बात हम को जानना  होगा की एक जन्म में कोई भी उन्नत मानव नहीं होते हैं। विभिन्न निम्न कोटि के योनी भोग कर मानव जन्म लाभ करते हैं शत शत जन्म व्यतीत करने के पश्चात। तथापि मनुष्य  सतकर्म्म कर कर उन्नीत होकर ही प्रज्ञान लाभ करने से ही  मोक्ष प्राप्त हो सकता या कुकर्म्म कर निम्न कोटि के  योनी में गिरना पड़ता हैं। किन्तु यदि आपका देह मन के  विरुद्ध पथ में जाये तो इस तरफ उस तरफ भटकेगा। यह सब जानने के लिए ही साधनसिद्ध सत गुरु का प्रयोजन है जो आत्मा को पहचानते हैं। जबतक ना वैसे  गुरु का सानिध्य मिले तब तक कुलधर्म का पालन करना होगा। गीता में  कृष्ण देव एक कथन  हैं कि जिसने मेरी साधना(योग) जिस व्यक्ति ने एकबार आरम्भ किया उसका अधोपतन नहीं होता है। मेरी साधना का अर्थ आत्मा का अन्वेषण। गीता के छठवें अध्याय में अर्जुन कृष्ण वार्तालाप में ये बाते उठी अर्जुन ने जिज्ञासा की,
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलित्मानसः। अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।। ३३/६
हे कृष्ण, श्रद्धासहित योगसिद्धि करने के पश्चात जो व्यक्ति योगभ्रष्ट होकर मोहग्रस्त योगी की क्या गति होती है ?
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति। अप्रतिष्ठो महावाहो विमूढ़ो ब्रह्मणः पथि।। ३८/६
हे महाबाहु! मोहग्रस्त ज्ञान एवं कर्म दोनों से पथभ्रष्ट होकर छिन्न मेघे के समान लोप हो जाता है।
पार्थ नैवेह नामुद्र विनाशस्तस्य विद्यते। न हि कल्याणकृत कश्चद्दुर्गतिं तात गच्छति।। ४०/६
भगवान बोले , हे अर्जुन! इहलोक या परलोके कहीं भी उसकी क्षति नहीं होती है। कारण हे वतस! कल्याणकाम की कहीं भी दुर्गति नहीं होती है।
प्राप्य पुण्याकृतां लोकानुषित्बा शाश्वतीः समाः। शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टऽभिजायते।। ४१/६
योगभ्रष्ट व्यक्ति पुन्यात्मालोक में जाकर वहां बहुतकाल तक  सदाचार सम्पन्न धनवान के  घर में जन्म लाभ करता है।
अथवा योगिनामेब कुले भवति धीमताम।एतद्बि दुर्ल्लभतरं लोके जन्म यदीदृशं।। ४२/६
अथवा पुण्यफल  से किसी योगीकूल में  जन्म लेता है। इस तरह का जन्मलाभ अति दुर्लभ है।
तत्र तं बुद्धि संयोगं लभते पौर्व्वदेहिकम। यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।। ४३/६
हे कुरुनन्दन ! इस तरह जन्म में जातक पूर्व्वजन्म के बुद्धिवृत्ति लाभ कर पुन: मोक्षलाभ की चेष्टा करता है।
पूर्व्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः। जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्त्तते।। ४४/६
इसी तरह योगभ्रष्ट व्यक्ति मुक्ति के लिए चेष्टा ना करने से भी  पूर्व्वजन्म के अभ्यास से ही योग के प्रति आकृष्ट होता है। योग के विषय में जिज्ञासु इस तरह के व्यक्ति वेदकर्म के फल का लाभ करते हैं।
तपस्वीभ्योऽधिको योगीज्ञानीभ्योऽपि मतेऽधिकः। कर्म्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्ताद योगी भवार्जुन ।। ४६/६
इस तरह योगी तपस्वी, ज्ञानी एवं कर्मी अपेक्षा श्रेष्ठ । इस लिए ही अर्जुन तुम इस तरह के योगी हो।
सर्व्व साधारण मनुष्य आत्मा नहीं पहचानते एवं साधना का उचित पथ नहीं दिखा सकते उसी तरह गुरु मिलने पर्य्यन्त कुलधर्म आचरण करन उचित है। नया पथ लेने का प्रयोजन नहीं है। वास्तविकता में सनातन धर्म में  धर्म परिवर्त्तन करने की कोई भी व्यवस्था नहीं है। गीता में  श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने पथ का त्याग न करने के प्रयोजन को दृढ भाव से कहते हैं।
श्रेयान स्वधर्मो विगुनः परधर्मात स्वनुष्ठितात। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह।। ३५/३
अपना पालन धर्मपथ यदि अन्य से दोषयुक्त भी है की धरणा है  तथापि स्वधर्म त्याग नहीं करना चाहिए। अपने धर्म पालन करने से मृत्यु भी श्रेय है, किन्तु अन्य का धर्म भयावह होता है।
पूनर्जन्म के सम्पर्क में  श्रीकृष्ण अर्जुनके कहते  हैं
बहुनि मे व्यतीतानि जन्मानि तब चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वानि न त्वं वेत्थ परन्तप।। ५/४
तुम्हारा और मेरा जन्म बहुत बार हुआ है । इस तुमको याद नहीं है  किन्तु मुझे सब स्मृति है। इसका अर्थ हुआ कि सब मनुष्य  बार बार जन्म लेता है एवं मारा जाता है। यह क्रिया सृष्टि के आदिकाल से चली आ रही है। यह इस तरह की बात है । प्रतिपद का चाँद धान के  खड़ के तेढ़े टुकड़े के समान है, द्वितीया, तृतीया में हँसिये  के समान  होता है धीरे धीरे पूर्णिमा में गेंद के सामान होता है ।  वे सोचते हैं कि चाँद बड़ा होकर, फिर छोटा होकर  ख़त्म हो जाता है। और फिर बाद में जन्म लेता है। चाँद के समान ही जन्म लेना और मरना है। प्रति मुहूर्त्त में यह   क्रिया चलती रहती है। यह दृष्टि शक्ति का भ्रम और कोण की बात है। हमने मूलतः अम्बा या अमीबा से जन्म लिया है। जन्म लिया है का अर्थ हम प्रत्येक एक एक अमीबा ही हैं। अमीबा झिक्‌मिक्‌ करने वाले स्थिर वस्तु हैं । अनवरत करते रहना एक स्पन्दन है। पार्थिव आँख से हम भेद नहीं कर सकते हैं स्पन्दन को  इस लिए यह  स्पन्दन स्थिर दिखाई देता है। जैसे ट्यूब लाइट हमको एकतरह से जलाता दिखता हें । किन्तु यह  सत्य नहीं है । एकबार बुझता है और एकबार जलाता है अर्थात एक स्पन्दन करते रहेता है, किन्तु हमारी आँख से भेद नहीं कर सकते हैं  हम एक सा जला है दिखता है। २ डाइमेन्सन के चलच्चित्र में  हम यह हमेशा ही देखते हैं। एक एक मनुष्य अनेक समय पकड़कर नाचते हैं । आना जाना, बोलना, खाना सब ही मनुष्य के सामान ही करते रहते हैं । अनजान मनुष्य इसको एक चलचित्र बोलकर सोचते हैं। किन्तु यथार्थ में एसा सत्य नहीं है, प्रति सेकेण्ड में  ४०  फ्रेम पर्दे में गिर कर  नाच गान इत्यादि करते हैं। ३ डाइमेन्सन में गति इससे भी अधिक होती है जिसे आंख से देखने से भ्रम होती है। ४था डाइमेन्सन गन्ध है। वैज्ञानिकों ने उसका भी सूत्र निकाला है। अब पर्दे से गन्ध दर्शकों को मिल सकता है। ५वां स्पर्श है। इस  सुत्र का वैज्ञानिकों ने चेष्टा नहीं की है। किन्तु सुपारसौनिक गति के  उपर की गति मानव को अभी समझ पाना सम्भव नहीं है।) हम  समस्त जीव जगत की जल से सृष्टि हई है। जल से  पहले जिस जीव की सृष्टि हुई है वह तो केवल एक स्पन्दन था। इस स्पन्दन जीव का नाम ही अम्बा बा अमीबा। इस  अम्बा को ही हिन्दु जगदम्बा या जगन्माता बोलकर शक्ति पूजा करते हैं। हम सब व्यक्ति एक एक अमीबा हैं। हमारी मृत्यु नहीं है एवं हम केवल स्पन्दन ही हैं, मात्र “श्लोमोशन” में। पुराना पार्थिव शरीर त्याग करके हम  मृत्यु बोलकर सोचते हैं और नए भ्रूण शरीर में  प्रवेश कर मातृगर्भे से भूमिष्ठ होने से ही जन्म होना सोचते हैं। यथार्थ में जन्म मृत्यु बोलकर कोई बात नहीं है। स्पन्दन को हम जन्म-मृत्यु बोलकर सोचते हैं। वैदिक वैज्ञानिक ऋषिगण इस बात को अति सुन्दर तरह से सोचते हैं  जानते थे और  इस लिए ही  बोलकर गये हैं  “ब्रह्मसत्य जगत मिथ्या”। ऋषि प्रदत्त ज्ञान का अनुसरण कर प्रमाण पाकर नव्य पदार्थ विज्ञानी भी एक सुर में कहते हैं, Electron is no matter। प्रश्न आता है कि, हम जो देखते हैं , स्वाद, रूप, गन्ध, स्पर्श लेते हैं वह सब एवं हम  क्या हैं? उसके उत्तर में ऋषि पदाङ्क अनुसरण कर विज्ञान कहते  हैं  ये युग युग से  चले आ रहा एसी धारणा है। सहजात बुद्धि या इनष्टिंक्ट या वेदोक्त ईक्षणे की जो धारणा है। आत्मा के साथ रहने वाला नेगेटिव शक्ति सहजात मन, इच्छाशक्ति, Survival of the Fittest जो पुराणोक्त चित्रगुप्त है। पदार्थ बोलकर कोई वस्तु नहीं है। चित्रगुप्त एक धारणा है केवल। सेटेलाइट इलेक्ट्रोन की सृष्टि कर मौल  प्रकृति द्वारा किया  डाइमेनसन को यदि सापेक्ष दृष्टि से  देखा जाये तो  पदार्थे का भाव होता है । भाव होने का अर्थ पूर्वधारणा है। जैसे कि हाइड्रोजेन, अक्सिजेन के योग होने से जल होता है। विभेद कर देने से जल नहीं रहता है। बहुत जन्म से प्राप्त धारणा द्वारा   जगत या पदार्थ धारणामात्र है।
विश्व का प्रथम महाकाव्य रामायण के कुछ वर्ष पश्चात द्वितीय महाकाव्य महाभारत लिखा गया है। रामायण में राम आत्मा को लेकर रचित योग का ग्रन्थ है। किन्तु महाभारत, (महा विशेषण) भा का अर्थ ज्ञान, रत का अर्थ लेगे रहना या  क्रियमान है। महाभारत महाज्ञान अर्थात ज्ञान-विज्ञान-प्रज्ञान की  ग्रन्थ है। महाभारत रचित हुआ है  देह जो शरीर है, शरीर में चैतन्य शक्ति आत्मा के क्रिया कलाप को लेकर। पञ्चपाण्डव का अर्थ पञ्च वायु द्वारा परिवेष्टित जीवात्मा कृष्ण एवं शतपुत्र सह (शत का अर्थ एकश नहीं है ,असंख्य) राष्ट्र का धारक राजा मन धृतराष्ट्र। महाभारत में विवेक एवं मन कुछ प्रतिनिधि को प्रस्तुत किया गया है। द्रौपदी मन के  एक अञ्चल का  प्रतिनिधित्व करता है। विदुर, भीष्म, गान्धारी आदि आञ्चलिक भाव से विवेक का कार्य किया है। इस तरह  मानव देह मन का  समस्त क्रियाकलाप का महाभारत में  विश्लेषण किया है। महाभारत समस्त विज्ञान, राजनीति, समाजनीति, साहित्य, इतिहासादि सब विषय में प्रतिपादन किया है। महाभारत पर्व ज्ञान, विज्ञान का  अंतिम  पर्य्याय की बात करने में समृद्ध है। इस  पर्व में व्यासदेव ने गीता की रचना की है। गीता विज्ञान,आध्यात्मविज्ञान एवं योग का  ग्रन्थ है। इस शास्त्र का परिचय शास्त्र के प्रथम श्लोक में ही पाया जाता है। प्रथम श्लोक में शास्त्र की भूमिका एवं परिचय है। गीता भी अपना परिचय प्रथम श्लोक में दिया है।
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुतसवः। मामेकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ।।
आत्मा ही धर्म है एवं आत्मा देह में रहता है बोलकर देह धर्मक्षेत्र है। आत्माके केन्द्र कर रहती है पञ्चवायु या पञ्च ज्ञानेन्द्रिय है। अन्यदि देह में उनके पाँच कर्मेन्द्रिय और असंख्य सहायक हैं। जो  सर्वदा ही युयुतसु अर्थात युद्ध कर या युद्ध के लिए ही प्रस्तुत होकर रहता है। देह में अनवरत जिसका युद्ध चलता ही रहता है । देह के  रक्षक, परिचालक राजा मन (ये राष्ट्र अर्थात देह जिसको पकड़ कर रखती है, परिचालना कर, किन्तु लोभ, मोह इत्यादि से अन्धकार मय रहता है) धृतराष्ट्र विवेक ने सञ्जय से जिज्ञासा करते हैं। इस भाव में गीता का  परिचय देकर  व्यासदेव ने गीता की रचना किया है। गीता में देह एवं आत्मा के रहस्य का विवरण है। इस  विवरण को सम्पूर्ण विज्ञान के आधार पर किया गया है। महान वैज्ञानिक व्यासदेव पदार्थ विज्ञान का इलेक्ट्रोन प्रोटन को गीता का  नायक कर गीता का वर्णना किया है। प्रोटन जिस कारण से ब्रह्माण्ड के कर्षण का  मूल केन्द्र एवं अपने कक्ष में  स्वयं नियन्त्रण में रहकर क्रियान्वित है इसीलिए अपने कक्ष में घूमते रहने के लिए सुदर्शन चक्र उनके हाथ में दिया है। अर्जुन सेटेलाइट इलेक्ट्रण जो सृष्टि के  मूल मौल समूह की सृष्टि कर, ध्वंस कर प्रोटन के चारो तरफ घूमता रहता है। घूमते घूमते धनुष के समान तेढ़ा हो जाता है  बोलकर अर्जुन के हाथ में दिया है गाण्डीव धनुष। विज्ञान, योग के गुह्य तत्व को प्रोटन कृष्ण के मुख से दिये व्यासदेव ने किया है। कृष्ण कहते  हैं कि “मयि सर्वमिदं प्रोतं सुत्रे मणिगणाइव”। (रिलेटिविटि का सूत्र) पदार्थ विज्ञान, आध्यात्मिक विज्ञान एवं योग के आधार पर गीता की रचना की है। सनातन धर्म जिसको हिन्दु धर्म ग्रन्थ बोलकर परिचय दिया है वह तो  विज्ञान की शिक्षा है। धर्म बोलने से विज्ञान का कथन ही है।
पदार्थ विज्ञान जिस पर्य्यन्त जाता है जहाँ तक पदार्थ रहता है। पदार्थ शेष होने से आध्यात्म विज्ञान का क्षेत्र आरंभ होता हैं । पदार्थ विज्ञान को भौतिक विज्ञान एवं आध्यात्म विज्ञानके आध्यात्मिक विज्ञान कहते  हैं । पदार्थ विज्ञान चर्म चक्षु द्वारा (प्रयोजन होने से  यन्त्र की साहायता से) देखा जाता है,  एवं आत्मा को देखने के लिए ज्ञान चक्षु का  प्रयोजन है। ज्ञान चक्षु सब के अन्दर है मात्र खोलने की चेष्टा करना पड़ता है। इस  चक्षु के द्वारा योग प्रवेश कर धर्म को जाना जाता है। योग विज्ञान ना जानने से धर्म में प्रवेश नहीं कर सकते है। इस तरह लोग काव्य पुराण को मनगड़ी कहानी को धर्म बोलकर सोचते हैं। शास्त्र पढ़कर  पाण्डित्य की ध्वजा उड़ाते हैं  जिनको बाल्मीकि रावण कहते  हैं और  साधना कर आत्मदर्शन कर राम बोलकर रामायन की रचना किया है। हमारेअनेकों की सोच से धर्म एवं विज्ञान अलग  नहीं है। राजनीति के क्षेत्र में जाने से भी सुनेंगे कि राजनीति और धर्म पृथक वस्तु है। इसका  कारण न रहना भी नहीं है। पहले धर्म एवं राजनीति राजा के लिए हाता था। जनक आदि असंख्य राजर्षि देश का शासन किया है। ५/६ हजार वर्ष आगे भी आसाम में राजर्षि कामरूपाधिपति सीरध्वज, ब्रह्मपुर कामपुराधिपति कुशध्वज, हंसध्वज आदि राजर्षिओं ने राजदण्ड एवं धर्मदण्ड चलाया था। विश्व के अन्य धर्मों में भी राजा ही धर्मगुरु थे, तिब्बत के दलाइ लामा, रोम के पोप, मुसलमान के हजरत मोहम्मद आदि राजा एवं धर्मगुरु थे। अतएव अतीत में धर्म पृथक नहीं था। अभी एसा होने का कारण क्या है ? धर्म का  रहस्य, धर्म का  तत्त्व छोड़कर  एकश्रेनी के व्यक्ति पुराण पढ़कर  पुराण की  मुख रोचक कल्प-कहानी पढ़कर  अपना को गुरु बोलकर धर्म का प्रचार करते हैं। अपने को गुरु बनाकर फोटो की पूजा सिखाते हैं। धर्मतत्त्व, ईशरतत्त्व छोड़कर  अपने को ईश्वर के समकक्ष किया। एक समय में तान्त्रिक साधक अनेक देव देवी ईश्वर को न मानकर अपनी  पूजा करने के लिए प्रजा को निर्देश दिया  एवं ना करने से उनका वध करते थे। काल्पनिक कहानी को मिथ (Myth) कहते  हैं । इस प्रकार कहानी प्रधान धर्म को माइथोलोजि कहते हैं। सनातन धर्म मिथ नहीं है । इस  धर्म को आध्यात्म विज्ञान या आध्यात्मिक विज्ञान कहते हैं। सनातन धर्म गठित हुआ है पदार्थ एवं स्पिरिट लेकर है। विज्ञान को निकाल देने से अन्य वस्तु सनातन धर्म में बहुत कम निकलेगा।


महाभारत का अंश गीता विज्ञान एवं योग का  ग्रन्थ है। गीता में  श्रीकृष्ण को प्रोतः एवं अर्जुन को ओतः कर (ओतप्रोतः) विज्ञान का  योग को धर्माचरण करते धर्मतत्व की व्याख्या किया है। पदार्थविज्ञान एटम को लेकर ही  हुआ है । आध्यात्मविज्ञान आत्मा को  लेकर  गठित हुआ है । आत्मा ने वेद को सृष्टि दिया है। आत्मा का अर्थ है ईश्वर। इस आत्मा से  जीवात्म सृष्टि होकर संसार या जगत बना है । संसार का अर्थ सं = सम्मुखपाने, सरति का अर्थ गतिशील या एगिये याओया। जगत शब्दटि दुटि उपशव्देर। मूल जगति । ज का अर्थ जन्मान और  गति का अर्थ सम्मुखपाने धावमान अर्थात जन्म से जन्म से एगते थाका। आत्मा  शब्द लेटिन  भाषा में  एटम उच्चारण हुआ। पदार्थ विज्ञान का  ६०-७० भाग शब्द संस्कृत भाषा से लिया है। उसका भी कारण है। शब्द को  वाङमय कहते  हैं । प्रत्येक शब्द की गति का रेञ्ज है। संस्कृत भाषा का  रेञ्ज इतना अधिक है कि उसके समकक्ष भाषा विश्व में नहीं है । संस्कृत अपना  सार्वभौम शब्द सृष्टि कर सकते हैं। किन्तु अन्य कोई भाषा सक्षम नहीं है ।
इसीलिए  विज्ञान समस्त सार्वभौम शब्द संस्कृत से ही लिया गया है।
पदार्थ विज्ञान का  स्रष्टा भी वेद है। आज भी वेद से ही परिपुष्टि लाभ कर चले हैं। वेद के  इस  आत्मा (Atom) को लेकर ही पदार्थ विज्ञान और आत्मा को  लेकर  आध्यात्म विज्ञान हुआ है। आत्मा का  या एटम को शक्ति जो  मुख्यतः दो हैं। ओतः-प्रोतः Electron & Proton, पुराण आदि में इसको ही हरि-हर की आख्या दिया है। और एक निरपेक्ष शक्ति है जिसको विज्ञान Neutron कहते हैं, शास्त्र ने जिसका नाम दिया है ब्रह्मा। इस  दृश्यमान ब्रह्माण्ड दो गति के बल पर चल रहा है, दृश्यमान और  क्रियामान। ओतःप्रोत वस्तु जगत की मौलिक सृष्टि कर पदार्थ  निर्माण किया है। ओतः बहार की दिशा में निकल जाने वाला बल एवं प्रोतः अपने अन्दर खींचने वाला बल । आकर्षण विकर्षण दोनों ही इस तरह ओतप्रोत भाव से जुड़े  हैं कि ये कभी भी विलग नहीं हो सकते हैं। ये दोनों  एक ही शक्ति हैं दोनो। इस लिए ही कृष्ण अर्जुन के सखा हैं। (गीता) प्रोत समस्त ब्रह्माण्ड को अपनी ओर  खींचता है अपने स्थान में सुदर्शन सव्य गतित में  (Clock-wise) घूमता  रहता है । ओत बाहर की तरफ निकलकर जाने की चेष्टा के कारन प्रोत के चरो दिशा में सव्यगति से घूमता रहता है। घूमते समय धनुष के समान टेढ़ा हो जाता है, इस कारन अर्जुन का चिह्न एक गाण्डिव धनुष  दिया है  व्यासदेव ने। बीच बीच में अर्जुन मोह वश बाहर जाना चाहते हैं लेकिन प्रोत उनको काम में लगा देते हैं लागिये देय। कृष्ण शब्द का  अर्थ कर्षण। हमारे पण्डित विज्ञान ना जानने के कारण हला कर्षण कहते हैं। ओत प्रोत के खिंचाव दो शक्तियों को  वैज्ञानिक ने Centrifugal Force विकर्षण, Centripetal force आकर्षण नाम दिया है। कृष्ण का अर्थ है कर्षण। वेद में भी ब्लैक होल को कृष्ण कहते  हैं। कृष्ण कोई  ऐतिहासिक पुरुष नहीं है वरन  जगत सृष्टि के स्रष्टा ईश्वर हैं। स्रष्टा का अर्थ है कृष्ण या कर्षण का अर्थ ही जगत है। कर्षण को विज्ञान में  गुरुत्वाकर्षण कहते  हैं । कृष्ण कोई  पदार्थ नहीं है, केवल खींचातानी, जिसके फल पर है। इन सब विषयों का इस  पुस्तक में  विभिन्न पृष्ठ
में विवरण किया गया है। नए  पाठक के समझने के लिए ही विज्ञान को बार बार बिच में लाया गया है। विज्ञान न समझने से मनुष्य  धर्म को भी नहीं समझ सकता है। क्योंकि धर्म विज्ञान ही है। हमारे दुर्भाग्य से हमारे प्रकाण्ड पण्डित, गुरु सब विज्ञान न जानने के कारन धर्म के तत्व को नहीं समझ पाते हैं। विज्ञान के आधार न होने के कारण शास्त्र या पुस्तक से उद्धरण दे कर प्रमान सिद्ध कर प्रबन्ध लिखते हैं। बंगला में  एक कथन है – यदि किसी बात का प्रमान न होने से  “कहते  हैं कि महाशय पुस्तक में लिखा है”। पुस्तक में रहने से ही प्रमान है। हमारी भी इसी तरह की अवस्था, पुराण पढ़कर उद्धरण देकर डाक्टरेट पा सकते हैं , बड़े शास्त्रज्ञ पण्डित, वक्ता की भी स्वीकृति पा सकते हैं । रेफरेन्स अकाट्य, सर्वधा सिद्ध, वहां युक्ति तर्क का कोई स्थान नहीं है। गीता में प्रतिअध्याय या पर्व में ओतःप्रोत से विज्ञान के सर्वोच्च स्थिति समूह को समझाया गया है। कोयान्टाम, प्रकृति पुरुष,  Time & Space, Theory of Relativity आदि व्याख्या की गयी है। हृदय में  विराट पुरुष के  दर्शन किस भाव से कैसे होगा उसकी प्रनाली सिखाया गया है। कृष्ण के हृदय में जिस विराट पुरुष का दर्शन अर्जुन ने किया था वह साधक को अपने हृदय में दर्शन करने का ही कथन है।


मत्तः परतरं नान्यत किञ्चिदस्ति धनञ्जय। मयि सर्वमिदं प्रोतं सुत्रे मणिगणाइव।। ७/७


हे अर्जुन, मुझसे (दोनों से ) श्रेष्ठ ब्रह्माण्ड में कोई भी नहीं है। मैं ही सर्वशक्तिमान प्रोटन हूँ। सूत में मनि गांथ कर रखने के सामान इस  ब्रह्माण्ड अविच्छिन्नभाव से मुझमे ही है। आइनष्टाइन का रिलेटिविटी भी  २०वीं  शति में  प्रकाशित हुआ है । सृष्टि का स्तुपीकृत काले रङ को  वेद में ब्लैक होल या कृष्ण विबर कहते  हैं। इस  काले से  सफेद रङ  मिश्रित होकर आकाशी श्याम रङ आदि के  द्वारा जगत सृष्टि की बात आध्यात्म विज्ञान में  हाजार हाजार वर्ष पहले हम कहते आये हैं। नव्य विज्ञान में भी इसका परीक्षा निरीक्षा कर प्रमान पाकर  जगत को बताया है कि यह सब सत्य है । गीता में  श्रीकृष्ण ने उसी बात को कहा है।
चातुर्वणं मया सृष्टं गुण कर्म विभागशः। तस्य कर्त्तारमपि मां विद्ध्यकर्त्तारमव्ययम।। १३/४


गुण कर्म के हिसाब से मैं चार वर्ण में सृष्टि का कर्ता और अकर्त्ता बोलकर जानों। काला, पीला, लाल, सफेद  चार वर्ण को वलय कहते  हैं । यह क्रमन्वय उन्नत होकर साधक के  शरीर में  सृष्टि होकर एवं एक शरीर का वलय कहते  हैं । इस  वर्ण या वलय लेकर ही यह जगत है । अतएव महाजगत के वलय से ही साधक अपने शरीर में   Cosmic Ray खींचते हैं। श्रीकृष्ण गीता में  बार बार मयि (मैं) शब्द का व्यवहार किया है। इस लिए ही यह कहा गया है कि अर्जुन - कृष्ण दो  मिलकर अविभाज्य एक हुआ है। कहने में समझने के  लिए ही  भेदपूर्ण शब्द भी  कहा गया है। ओतःप्रोत आत्मा की शक्ति है। तार का अर्थ है आत्मा। कृष्ण बार बार अर्जुन को साधक कहते  हैं  ये जगत सृष्टि –ध्बंसकारी मैं ही अर्थात आत्मा है , इसीलिए  आत्मा का दर्शन करो।
“आत्मानं बिद्धि” आत्मा को  जानने की  चेष्टा करो। सर्व धर्मान परित्याज्य मामेकं शरणं व्रज। दृश्यमान जगतटि आत्मा या एटमेर (धर्म) सृष्टि। देह भी आत्मा या एटम द्वारा गठित है। किन्तु यह एटम विकशित नहीं है। विकशित उतक्रमित केवल आकाशतत्त्व आत्मा है। इसीलिए बाकी समस्त धर्म बा  आत्मा को छोड़कर  केवल देहस्थ स्व-आत्म के शरणागत हो। ईश्वर आत्मरूप में , धर्मरूप में तुम्हारे ही भीतर में हैं। उनको जानने की  चेष्टा करो। अर्थात तुम अन्तर्मुखी होकर अपने अन्दर अपने को खोजो (ध्यान कर) एवं उनसे प्रश्न करों कि तुम कौन हो। अर्जुन लक्ष्यभेद करने के समय मछली, मछली के सिर, मछली के आँख , और अंत में आँख के मणि को देखे थे। ध्यान में मन के इस कोने में जाने को जहाँ कुछ भे न देखाई दे  “भावातीत ध्यान” होता है । इस  ध्यान में  एकदिन भीतरस्थ आत्मा दिखने से बोलेंगे कि  मै कौन हूँ । इसी को आत्मज्ञान कहते हैं । आत्मज्ञानी ब्रह्माण्ड को  जानेन के कारण वे इस आत्मा को और  इस  आत्मा के  द्वारा ही  ब्रह्माण्ड गठित हुआ है जानते हैं। यह आत्मा ही  आध्यात्मविज्ञान का धर्म एवं पदार्थ विज्ञान का  एटम है। अतएव धर्म को निकलने से विज्ञान कहाँ रहेगा। इसीलिए  आत्मा ही  विज्ञान और  विज्ञान ही धर्म है । धर्म या आत्मा को निकाल देने से विज्ञान बोलकर कोन वस्तुइ नहीं रहता ।
वास्तविक बात यह है  सनातनी मानव ज्ञान की अंतिम शिखर में खड़े होकर  ब्रह्माण्ड एवं आत्मा के  विभिन्न अनुसन्धान अनुशीलन करने के  लिए ही इस पद्धति को निकला जिसको धर्म (आत्मा) कहते हैं। सत, सतता, कर्मप्रेरणा, लोकहितार्थ में  कर्म एवं प्रज्ञान लाभ से अनुशीलन को धर्म बोलते हैं। किन्तु परवर्त्ती काल में इस  तरह भाव में अधोगति हुआ है। सबसे  दुर्गति और  दुर्भाग्य की बात यह है कि, जिसको मानव सभ्यता का उत्सर्ग बोलकर भ्रान्त धारणा, आज भी मनुष्य  पोषण कर चला है , जो युग युग से  ध्वंसलीला चलाया है , जिसने  अचिर ही  मानव कूल का ध्वंस करेगा यह  प्रयुक्ति विद्या विज्ञान के  साथ संयोग होने के कारण हुआ है। कालक्रम में  मनुष्य  प्रयुक्ति के  पराक्रम से  काछे नतशिर होकर प्रयुक्ति को  विज्ञान बोलकर सोचना  शुरु किया । विज्ञान जैसे कि  मानव की  उन्नति का   द्योतक, प्रयुक्ति अधोगति का  सूचक है । प्रयुक्ति प्रकृति को विकृत करता है। प्रकृति विकृति होने से  जीव का  विनाश होता है । इस तरह  क्रमन्वय मनुष्य  विज्ञान भूल कर प्रयुक्ति के  द्वारा परिचालित होकर (विज्ञान भूल जाना  का अर्थ धर्म को भूल जाना ) धर्म का  तत्त्व भूल  कल्प कहानी लिखना  शुरु किया। आत्म चिन्तन, आत्मविश्वास को छोड़कर कहानी में देवी दवता के  रूप में कल्पना आरम्भ किया। आत्मा के स्थान में  देहपूजा  (व्यक्तिपूजा) का प्रचलन शुरु हुआ। मृत्यु तिथि छोड़कर  जन्मदिन मनाने में  आनन्द मनाने लगे । देव देवी मिथ्या नहीं है । (33 orders of spiritual power) तैंतीस कोटि देवता अर्थात आत्मा द्वारा मानव देह गठित हुआ है । उनको जगाने और अनुशीलन को पूजा कहते  हैं । मानव की  मेरुदण्डटि ३३ हड्डियों से गठित है। यह ही ३३ राशि या कोटि या अर्डार (Order) हैं। इस तरह किसी दिन भी  क्षय प्राप्त ना होना  ३३ अक्षर (अकारादि ह कारान्त) हैं। देहस्थ ३३ कोटि देवता को जगाने  एवं कर्म में  प्रवृत्त करा काम को  पूजा कहा जाता है । पुराण के कहानी के अन्दर ही इन बातों को समझाया है। किन्तु मनुष्य  आकाश में मचान बना कर वहां अमरावती तैयार  कर देवराज्य बनाकर  स्वप्न देखने  लगा। ज्ञान साधना का  अन्त हुआ, कहानी बोलना ही धर्म हुआ। साधना न कर पुरान पढ़कर  एक एक धर्म निकाल  कर व्यक्ति पूजा सिखा  और  एक एक दल गठन कर सभ्य भर्त्ति करने लगे। अब किसके दल में कितने सदस्य है उसीका विचार होता है। एकएक पुराणक को लेकर  एकएक धर्म हुआ है। सनातन धर्म के वैज्ञानिक विचारधारा का  अन्त हुआ है । विज्ञान एवं धर्म पृथक होने का यही कारण है। इसीलिए  पश्चिम में  बुद्धिमान मनुष्य  Spiritual ना बोलकर कहानी को  धर्म माइथोलजि बोलना शुरु कर दिया। पुराण की कथाओं में जन्तु भी बात करते है , इन सबको  ‘मिथ’ ना बोलकर क्या बोलेंगे। विश्व में अभी जितने धर्म चल रहे हैं सभी मिथ हैं । आत्मा को जानना , आत्मज्ञानी होकर ब्रह्माण्ड को  जानना , विज्ञान प्रज्ञान की  अनुशीलन करना , व्यवहारिक सततार आचरण करना  अहं ब्रह्मास्मि के  ज्ञान आहरण कर अपने भीतर ईश्वर की अनुभुति करन ही  वास्तविक धर्म पालन है । अहं सोचना ही  ब्रह्मप्राप्ति है।
वस्तु या पदार्थ हम  मुख से खाते हैं। पेट में रहने वाले यन्त्र से मेटाबलाइज्‌ड्‌ होकरे देह में लगता है। देह की  पुष्टि साधन होता है। नाम कीर्त्तन, पाठ, जप, पूजा, यज्ञ हम  मन्त्र से करते हैं । भाषा जो भी हो  शब्द ब्रह्म के  द्बारा करते हैं। मंत्र शब्द के साथ मिलकर आत्मा का खाद्य होने को भजन कहते  हैं । इसके  साथ चिन्तन मन्थन होने से उसको  विचार कहते हैं। आगे का आचार शेष का  विचार है । पदार्थ को जानने को  पदार्थ विज्ञान और  तत्त्व जानने को  आध्यात्मविज्ञान जानना होगा। इन दोनों  विज्ञान को ना जानने से  धर्म को  सम्पूर्ण रूप से नहीं जान सकते हैं  सम्पूर्ण ना जानने से अभिमन्यु और  सम्पूर्ण जानसे  सव्यसाची होकरे विराट पुरुष के दर्शन कर राज्यलाभ होता है। इसको ही  धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चतुर्वग फल कहते  हैं । बाहर यदि कोई मुर्त्ति ना देखे  किन्तु अपने मुख अपने मुर्त्ति को न देख कर नहीं रहना चाहिए । केवल  मुर्त्ति देखने से ही नहीं होगा – भीतर  कृष्ण रूप में अपने मुर्त्ति को  दर्शन कर और  इस  कृष्णात्मा का  एकान्त भक्त होता है । अपने भीतर के प्रचण्ड आकर्षण-विकर्षण विराट पुरुष निज हृदय में ही हैं  – उनको जगाने से तुम भी  विराट पुरुष हो जाओगे। यह  विराट पुरुष ही  सत्य, सनातन, धर्म, पालनीय, यजनीय, पूजार्ह है। इसके लिए संसार छोड़कर कंही नहीं जाना होगा। पद्म जैसे कि  जल में रहता है  तुम भी समाज में ही रहो । केवल संसार को अपने भितर में नहीं रखना है । पद्म का पत्ता एसा ही  रहता है  किन्तु तुम भी  जागतिक समस्त काम में  लिप्त होकर रहना होगा । संसार चञ्चल गति से सम्पूर् धावमान है और तुम गतिहीन (कामना हीन) स्थिर अगस्ति हो।


ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः







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