Wednesday, January 4, 2017

पंच कन्या धाम का परिचय


गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर:। गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नम:।।

प्रस्तावना

भारतवर्ष विश्व का एसा देश है जो तीर्थ स्थानों से भरा है | तीर्थ स्थानों का अभिप्राय पुण्य स्थानों से है, जहां पाप और दुःख का निवारण और जीवन के मुख्य लक्षों धर्म अर्थ काम मोक्ष की पूर्ति होती है | तीर्थो का संबंध पर्वो और त्योहारों से जुड़ा है और पर्व किसी अतीत घटना से |
पंचकन्या धाम की कथा उतनी ही रहस्यमय है जितना असम और सनातन धर्म | असम मूल रूप “असमान” जिसका अर्थ “सूर्य का  धारक”  के नाम से जाना जाता था | वर्त्तमान गुवाहाटी जिसे प्रागज्योतिषपुर या जहां प्रथम ज्योति के दर्शन होते हैं , के अध्यात्मिक नाम से प्राचीन काल में प्रचलित था | कामरूप राज्य का नाम कामनाओं की पूर्ति होने के कारण रखा गया | इन सभी का संबंध प्राचीन ऋषियो की तपोभूमि वेद मंत्रो के दृष्टि और सिद्धि या कामनाओं की पूर्ति से था |
पंचकन्या धाम गुवाहाटी शहर के दक्षिणी सीमा में रा.मा. ३७ से लगभग ४ कि.मी. की दूरी पर वशिष्ठ आश्रम से कांता नदी पारकर दाहिनी दिशा में ३०० मी. की दूरी पर क्षोभक दुर्जय पर्वत में एक बहुत ही प्राक्रितिक, मनोरम और आध्यात्मिक स्थल है |
पंचकन्या धाम.JPG
पंचकन्या धाम का परिचय श्री प्रभाकर जी ने पहले मराठी में लिखा जिसका श्रीमती इन्द्राणी जी ने अंग्रेजी में अनुवाद किया, जिसका यह हिंदी अनुवाद है |

पंचकन्या धाम का उद्भवन

श्री श्री भृगु गिरि महाराज का परिचय

श्री श्री भृगुगिरी महाराज का  जन्म नालबाड़ी शहर में १९३२ में महर्षि भृगु के प्रतिरूप के रूप में हुआ था | १९५४ में उन्हें अपने गुरु गुप्तेस्वर​ श्री श्री हरिहरा नन्द गिरि जो और कोई नहीं अमर महर्षि मारकणडेय का दर्शन अल्मोड़ा जिले में हुआ | तीन दिनों के बाद उन्हें अपने गुरु से विलग होना पड़ा | १९६८ में वशिष्ठ के पास कांता नदी से उनका पुनाराविर्भाव हुआ | वे भृगु गिरी के साथ ९ वर्षों तक सनातन धर्म के सभी पहलुओं और वेद, उपनिषदों, इतिहास और पुराणों से अवगत करवाया | गुरु के अन्तर्धान होने के पश्चात ३ वर्षो तक उन्हें अकेले ही कड़ी तपस्या करनी पड़ी | महर्षि मारकणडेय ने त्रेता युग में कालिका पुराण में लोगों को यह इतिहास सुनाई थी | और कलियुग की शुरुआत में वे स्वयं ही प्रकट हुए ।

फरवरी (फाल्गुन) १९६८ के महीने बाबा मार्कंडेय संध्या नदी के तट पर वशिष्ठ बांध पर बताया कि भगवान गणेश के चार मूर्तियों की पूजा की थी वे यहाँ पर गुप्त हैं | तभी चालीस से पचास श्रद्धालुओं ने मिल कर उस स्थान के खुदाई शुरू की और बाबा द्वारा वर्णित भगवान गणेश की चार मूर्तियों का उत्खलन किया | अगले दिन वशिष्ठ आश्रम के चार 'पांडों ने मूर्तियों को घेर कर पूजा के लिए अवरोध उत्पन्न किया | बाबा भृगु गिरि दुखी होकर शाम को भारी मन से जल्दी सो गए | रात मैं देवी महालक्ष्मी ने स्वप्न में एक हाथी पर हाथ पर सवार भगवान विष्णु के एक चार इंच की कांस्य प्रतिमा के साथ आयी | उसने कहा, जहाँ भी यह प्रतिमा मिलेगी वह पूरे देवी देवताओं का राज्य स्थान होगा | देवी लक्ष्मी के आसपास वहाँ कुछ, आठ से नौ वर्ष के बालक थे। अचानक बाबा की निद्रा भंग हो गई और सुंदर स्वप्न पर विचार करते करते सवेरा हो गया।

सवेरे बाबा मार्कंडेय ने का प्रस्ताव दिया कि वशिष्ठ आश्रम से तीन मील की दूरी पर पहाड़ियों में अर्धचन्द्राकार झील है आज घूमने के लिए पहाड़ी की ओर चलना हैं। । जो वर्ष भर पानी से भरा रहता है और यह जंगली हाथियों को सर्वाधिक प्रिय है, इसलिए बाबा मार्कंडेय  ने इसको  हतिलोतन नाम दिया। उस समय, वशिष्ठ आश्रम से नदी के किनारे में घना जंगल था | वे जंगल के बीच में पग डंडी से गए और 'ब्रह्मा आसन' की जगह पर पहुंच कर एक विशाल शिला पर बैठ गये। बाबा मार्कंडेय ने अपने भांग का चुरूट जलाया तभी एक सत्रह वर्षीय युवा वर्तमान 'कृष्णा आशान' की ओर से घने जंगल से प्रकट होकर उनके पास पहुंचा। वह भी बाबा के साथ भांग पीने का आनंद लेने लगा | उसने अपना नाम कृष्णकांत बताया और कहा यह देव भूमि है जहाँ हर एक शिला एक  देवता का स्थान है | प्राचीन काल में यह मुनियों की तपोभूमि थी | उसने एक स्वप्न की तरह देवी पञ्च कुमारी के स्थान का परिचय करवाया | फिर उसने (कृष्ण) जंगल के रास्ते देवी महामाया के स्थान का परिचय करवाकर किसी बहाने जंगल में लुप्त हो गया | लौटने पर बाबा मार्कन्डेय गहरी निद्रा मे सो रहे थे । तभी वहां पर छह से सात युवा बालक नदी में मछली पकड़ रहे थे, यह बड़े आश्चर्य की बात थी इस घने जंगल में जानवरों के बीच उनका आना | तभी एक बालक आनंद से चिल्लाया और पानी के अन्दर से किसी वस्तु को लेकर बाहर आया | जब बाबा भृगु गिरि पास गए तो यह कुछ और नहीं वही स्वप्न की भगवान विष्णु की कांस्य मूर्ति | उसके पश्चात वह बालक अपने साथियों के साथ घर जाने के बहाने जंगल में लुप्त हो गये |

तभी बाबा मार्कंडेय ने पीछे से पुकारा और हातिलोतन चलने को कहा | भृगु गिरि अपने विचारो में ही मग्न चल रहे थे कि एक हाथी के चिंघाड़ ने उन्हें सचेत किया | वे एक हाथी के झुण्ड के पास पुहुँच गए थे | बाबा मार्कंडेय ने हाथियों से न डरने को और उन्ही के सामान सरल मन के होने को कहा | हमारे दिल देवाओं की तरह शुद्ध और सरल हो जाये तो हम उनके पास पहुँच सकते हैं और वे हमें स्वीकार करते है | यदि हम प्रकृति के सभी प्राणियों को स्वीकार कर अपना समझते हैं तब हम उनके साथ विलय हो सकते हैं | यदि कोई भय और ईर्ष्या का त्याग कर सकते हैं तो संसार के सभी प्राणी उनके बंधु बनकर उनकी तरफ आकर्षित होते हैं | यदि एक व्यक्ति अपने मन से अशुद्ध विचार का त्याग नहीं कर सकते, तब तक वह दूसरों में इस तरह के मन बनाने की अपेक्षा नहीं कर सकते | बुद्धि का त्याग और स्वाभाविक प्रवृत्ति को पुर्स्थापित करके हम प्रकृति के साथ विलय हो सकते हैं | तब देवी-देवता और अन्य प्राणियों के साथ संवाद कर सकते हैं | बाबा के दिव्य वचनों को सुनते सुनते वे झील के किनारे पर पहुंच गये। वर्धमान के आकार के झील के पास जंगली हाथियों के सैकड़ों पैरों के निशान थे | क्षेत्र कर्दममय था, और जंगली हाथियों की तीव्र सुगंध वायु में भरी थी | बाबाजी (मार्कंडेय) ने पास के पेड़ पर चढ़ने को कहा जिससे पास के हाथियों के झुंड को देखने में सुविधा होगी | उन्हें केवल दो घंटे का समय था इस अवधि में वे वहां शांतिपूर्ण ढंग से रह सकते थे | पेड़ से दूर पर होथियो के झुण्ड आपस में व्यस्त दिखाई दिए | होथियो को भगवान गणेश का रूप मानकर भृगु गिरि ने उन्हें प्रणाम कर वृक्ष से नीचे उतर आये |
बाबा ने कहा यही हथिलोतन है गणेश की भूमि | इस जल को पीकर हाथी परमानन्द का अनुभव करते हैं | उन्होंने भृगु गिरि को भी उस जल का पान करने को कहा ओर भगवान गणेश की तरह बुद्धिमान, सरल और आयुवान होने का आशीर्वाद दिया | बाबा ने बताया एक समय इस झील के किनारे इन औषधिक वनस्पतियों को खाकर उन्होंने हजारो वर्ष व्यतीत किये और मार्कंडेय हुए | आज यदि तुम निर्भय होकर जंगल से कोई फल लाकर दोगे तो मैं अति प्रसन्न हो जाऊंगा और मेरी अतीत की स्मृतियां ताजी हो जाएगी | निर्भयता से काल भी दूर रहता है |

बाबा के प्रज्ञान मय वचनों को सुनकर भृगु जी का ह्रदय परमानंद में डूब गया, और उनकी आंखे बंद हो गयी | जैसे ही उन्होंने आँखें खोली, बाबा को पच्चीस से तीस फुट सामने खड़े देखकर आश्चर्य से रोंगटे खड़े हो गए | उन्होंने दंडवत होकर अपने को गुरु के चरणों में समर्पित किया | बाबा ने कहा - डरो नहीं, यही मेरा वस्त्विक मूल रूप है | अतीत में मैं इस रूप में विश्व में घूमा करता था | मैं ही गुप्तेश्वर मृत्युंजय , त्रिकलपति मार्कंडेय हूँ जिसने भूत भविष्य और वर्त्तमान पर विजय प्राप्त कर ली है | मैं दुनिया में अपना रूप बदलकर घूमता हूँ जिससे कोई पहचान न सके | जबतक मैं इस दुनिया में हूँ इस बात को गुप्त ही रखना | जो स्वयं को जान सकता है वह आत्मज्ञानी है | इस भगवान देवेंद्र गणपति की , ज्ञान की शुद्ध और दिव्य भूमि में अपनी आत्मा को पहचने की चेष्ठा करो | भगवान महा विष्णु नारायण ने मानवता की भलाई के लिए भगवान गणेश का रूप लिया। तुम भी उन्ही के एक महान रूप हो |

द्वापर युग के अंत में अग्नि ऋषि भृगु ने भगवान विष्णु की छाती में लात मरकर उन्हें जगाया था | भगवान विष्णु ने शांत भाव से उठकर प्रेमपूर्वक ऋषि से उनके पैरों को दबाते हुए बोले ; हे प्रभु मेरी पत्थर के सामान छाती से आपके कमल जैसे नरम पैरों को निश्चय ही कष्ट पंहुचा होगा । देवी लक्ष्मी, जो भगवान विष्णु के पास सो रही थी, अपने पति और गुरु का अपमान सहन न हो सका। वे  ऋषि को संबोधित कर बोली , मेरे पति तुम्हें क्षमा कर सकते हैं, लेकिन मैं इस अपमान को सहन नहीं कर सकती। आप को दंडित करने के पश्चात् ही मैं शांत हो सकती। भृगु महर्षि पश्चाताप में दोनों के पैरों पर गिर कर क्षमा याचना की। उन्होंने भगवान विष्णु से पूछा कि वह इस पाप का पश्चाताप कैसे कर सकते है। भगवान विष्णु ने कहा, "इस स्थान से उत्तर पश्चिम की ओर हिमालय की तरफ एक मृग चर्म आसन लेकर चलते जाओ | जहाँ कहीं भी वह मृग चरम होथो से गिर जाये वहाँ तपस्या करना आरंभ कर दीजिये | समय ही आपको इस पाप से मुक्ति देगा |

भृगु संहिता की रचना

भगवान विष्णु से आशीर्वाद लेकर भृगु देव अपने स्थान लौट आये | अपने योग शक्तियों का उपयोग करते हुए वह एक 'महाविद्या' जिसके उपयोग से वह पूरे देवी देवताओं की जन्म कुंडलियों को एक सूत्र में बांध दिया | इस बंधन के प्रभाव से देव-देवी जिस ज्ञान से सभी प्राणियों के जीवन को नियंत्रित करते थे, खो दिया |और इस शक्ति के लिए खुद को प्रस्तुत किया यही भृगु संहिता है । दूसरी ओर 'योगीराज कृष्णदेव ने अपने शरीर छोड़ दिया, जो द्वापर युग अंत था | इस तरह से 'ऋषिश्रेष्ठ भृगु देव देवी -देवताओं को योग शक्ति से निष्क्रिय करने के पश्चात अपनी तपोभूमि की खोज में हिमालय की ओर निकल गए | उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में ऋषि के हाथ से मृग चर्म आसन गिर गया और उन्होंने वहीं तपस्या आरंभ कर दी |

वह महा-अमावस्या योगमाया का दिन था। योगमाया कृष्ण माया या महाकाली है, और उसके नाम से जाना जाता 'कृष्ण'। कलि काल महाकाली से नियंत्रित होता है। उनका दिन महा-अमावस्या है, और समय दोपहर में बारह बजे | इस दिन अतीत में सिद्धि दाता भगवान गणेश की गोद में बैठे, त्रेता द्वापर युग में मै आपका पौत्र मार्कंडेय और आप मेरे दादा भृगु थे | आप मेरे गुरु और मैं अपका शिष्य था, आपने मुझे आत्म ज्ञान की शिक्षा दी थी | आपके आशीर्वाद और परामर्श से तुंगभद्रा नदी के तट पर करौदा वृक्ष के नीचे बैठ कर त्रिकाल विजेता अमर हो गए और, मृत्युंजय मंत्र सीखा | आज वही 'महाविद्या' मैं तुम्हें दूंगा और आप काल पर विजय प्राप्त कर सकेंगे | मैं महा गुप्तेश्वर हूँ, तुम भी बारह वर्ष तक छद्म वेश में रहना पड़ेगा। बारह वर्ष किसी को भी इस बात को व्यक्त नहीं करना | पूरी अवधि के लिए साधना को रहस्य के रूप में रखना पड़ेगा । लोगों को न तो आप और न ही अपने साधना के बारे में प्रदर्शन का पता चलना चाहिए | वर्ष १९८० इस महीने के में अब से बारह साल बाद इस दिन पर एक पूर्ण सूर्यग्रहण की घोषणा से विश्व में हलचल पैदा करेगा | यह अराजकता प्रतिध्वनित होगा और इंसानों में डर में पैदा हो जाएगा। इस दिन आपके पूर्व रूप महर्षि भृगु पांच हजार अस्सी साल तपस्या पूरा कर अपने पूर्व स्थान क्षोभाक पर्वत पर लौटेंगे | उनके आगमन से उनका विशाल लिंग शरीर सूर्य भगवान को ढक कर आसमान में त्रास पैदा कर देगा | पूरा गृह अन्धकार मय हो जायेगा | सूरज से किरणों, उनके नीले रंग के लिंग शारीर पर गिरने से एक नीले रंग का प्रकाश प्रतिबिंबित होकर कुछ समय के लिए पृथ्वी नीले रंग की दिखाई देगी | मानव बुद्धि इस घटना को अनुभव करने में सक्षम नहीं होगा। इस कारण से, ज्योतिष एक महान आपदा के आने की भविष्यवाणी और मानव मन में भय उत्पन्न करेंगे | सूर्यग्रहण के इस दिव्य दिन में आप एक यज्ञ करना और महर्षि भृगु की आत्मा का स्वागत करना | अगले दिन पर आप अकाल बोधन देवी यज्ञ करना | द्वापर में देवी -देवताओं की शक्तियों को बंधन में डाल दिया था । उसी शक्ति का उपयोग कर आप उन्हें मुक्त कर कली युग में परिवर्तन लाना होगा | कैसे पूजा करना होगा वे खुद ही आपको पता चल जायेगा | इस यज्ञ का उद्देश्य देव शक्ति को बंधन मुक्त करना है जो पांच हजार अस्सी वर्ष तक सभी प्राणियों को नियंत्रित करते हैं | आज आप क्षोभक पर्वत में पंच कुमारी के स्थान को देखा है | अतीत में जहां पञ्च देवी के दर्शन हुए थे वहीं देवी देवता समस्त्र प्राणियों के जीवन को नियंत्रित करते थे | महामुनि भृगु का मुख्य स्थान भी यहाँ है | इस पवित्र स्थान क्षोभक पर देव-देवी जो सभी के भाग्य का निर्णय करते थे का राज्य था | आप को अपने जीवन को भी इस स्थान पर ही अंत होगा | बारह वर्ष के बाद जब तुम यहाँ रहने लगोगे अपनी पहचान दुनिया से करवाना | भविष्य में अपने कर्तव्यों का पालन, ज्ञान प्राप्त, कल पर विजय पाना यही मेरी इच्छा है | वर्ष १९८१-८२ पुन: यह दिन लौटेगा, समय से सभी ज्ञात होगा | मैं भक्ति के साथ गुरुदेव के दिव्य वचनों में लीन होकर और उसकी कमल चरणों पर गिर पड़ा। जब मैंने सिर उठाया तो बाबा को एक गंभीर मुद्रा में बैठे पाया | 'बाबा-परम आराध्या बाबा' ने कहा, अब यहाँ से प्रस्थान का समय हो गया है, हमने यथेष्ट समय व्यतीत किया है | घड़ी दो बजे थे सुदूर जंगल में हाथियों के झुंड में अशांति और हलचल से वातावरण गंभीर हो गया था | वे वापस झील आने के लिए बेचैन हो रहे थे। मैं जंगल के बीच बाबा के पीछे एक सीधे पथ से नीचे उतर आया |  

थोड़ी ही देर में हम पहाड़ी को पार कर नदी के किनारे तक पहुँच गए | मैं नदी के तट पर एक रूद्राक्ष के वृक्ष को देखा और नीचे जाकर रुद्राक्ष की खोज शुरू कर दी। तभी विपरीत पहाड़ी से, हम एक तीखी सीटी आकाश में गूँजती सुनाई दी | बाबा ने अचानक कहा, "जबाब दो शर्माजी कोई हमको सीटी बजा रहा है।" मैंने भी सीटी से  उत्तर दिया | थोड़ी देर के बाद, एक मध्यम आयु का आदमी हमारी ओर पहाड़ी की चोटी से आया | उनकी विशेषताएं एक उत्तर भारत की पहाड़ी आदमी की तरह था | उनका नाम पूछने पर उन्होंने विष्णु शर्मा बताया और अपने बारे में कोई जानकारी देने से इन्कार कर दिया | विष्णु मेरे पास आया और मुस्कराकर धीरे से बोला "मुझे अभी जो चार मुख का रूद्राक्ष मिला कृपया दे दीजिये | इसके बदले में मैं तुम्हें एक नई पवित्र स्थान दिखाउंगा । जब मैंने बाबा को देखा, तो वे पाइप से धूम्रपान में व्यस्त थे और धुएं को देखने में तल्लीन थे | मैंने विष्णु को वह चारमुखी रूद्राक्ष दिया और उनका निमंत्रण स्वीकार कर लिया | उन्होंने नदी के दूसरे किनारे पर पहाड़ी पर ले गए | हम पहाड़ी के शीर्ष पर पहुंच गये | चोटी से थोड़ी नीचे हम एक विशाल गुफा के पास रुके | गुफा के आकार से मैं चकित रह गया | मैंने हिमालय में कई गुफाओं को देखा है, लेकिन कभी इतना बड़ा नहीं | गुफा अद्वितीय था एक दो कमरों वाले घर के सामान, प्रत्येक कमरे में लगभग पचास साठ लोगों को बैठ कर ध्यान करने का स्थान था | चूंकि गुफा प्रवेश स्तर के बारे में पाँच फुट नीचे है, गुफा में सीधे प्रवेश नहीं किया जा सकता। इसके बाद उन्होंने पास के एक और विशाल गुफा के लिए हमें ले गए | वहाँ गहरा अंधेरा था और हमें कुछ बांस जला कर अन्दर प्रवेश करना पड़ा | अंदर, से गुफा बहुत, विशाल आकार का था , लेकिन गुफा में कुछ छिद्र थे | कई बड़े पत्थर गुफा को अवरुद्ध कर रहे थे | गुफा के ऊपर एक विशाल बरगद का पेड़ था, जिसकी जड़ें कई स्थानों पर गुफा की छत से अन्दर प्रवेश कर गई थी | हम गुफा के थोड़े ऊपर ए तो देखा एक प्राकृतिक पुल की आकृति की संरचना जो दो पहाड़ियों को जोड़ रहा था | उसके पास वहाँ एक बड़ी शिला थी | पुल के नीचे एक लंबी, गहरी सुरंग थी | हमने वहां प्रवेश किया, तब विष्णु ने पहली गुफा के महत्व का वर्णन किया। यह सिद्धाश्रम है जहां भगवान विष्णु के चौबीसवें अवतार प्रसिद्ध विश्वामित्र ऋषि ने सत्य की स्थापना और मानवता के कल्याण के लिए गहरी तपस्या की थी | यह वामन अवतार की तपस्या का स्थान भी था | एक बार, दानव राजा बलि ने देवताओं का राज्य और तीनों लोकों को भय से व्याप्त कर दिया | तब देवताओं और ऋषियों ने भगवान वामन की शरण ली | वामन ऋषि बलि के पास गए और तीन पग भूमि मांगी | अपनी योगमाया से उन्होंने दो पग में पृथ्वी और आकाश को ले लिया, और तीसरे पग का स्थान माँगा | उन्हें भगवान विष्णु का अवतार जानकर महान राजा बलि ने तीसरे पग के लिए अपना सिर पेश किया | धरती मां और देवाताओं को राजा बली के अत्याचारों से मुक्त कर दिया | क्योंकि इस पवित्र कार्य का संचलन यहाँ से हुआ और ऋषियों को मोक्ष प्राप्त हुआ देवताओं ने इसका नाम 'सिद्धाश्रम' दिया | भगवान विष्णु के चौबीसवें अवतार के रूप में क्षत्रिय राजा विश्वामित्र ने सत्य और बलिदान की अवधारणा को स्थापित करने के लिए दुनिया में जन्म लिया | वशिष्ठ मुनि के साथ युद्ध में अपनी हार को स्वीकार करते हुए और ब्रह्म ऋषि होने के लिए विश्वामित्र ने इस दिव्य भूमि पर तपस्या कर मोक्ष प्राप्त किया। यह आश्रम सिद्धाश्रम के रूप में जाना जाता है, प्रसिद्ध वामन भगवान ऋषि ने यहाँ पुण्य कार्य किया | मैं उनको नमन करता हूँ |

“एष पुर्वश्रमो राम वामनस्य महात्मनः | सिद्धाश्रम इति ख्यात सिद्धो यत्र महायास: ||
तेनैव पूर्वाध्युषित आश्रमः पुण्य कर्मणा | मयापि भकत्या तस्येव वामनस्य निषेव्यते ||”

'गायत्री मंत्र' और योग शक्तियों का उपयोग कर राजा त्रिशंकु को शरीर और आत्मा के साथ स्वर्ग में भेजा था | राजा त्रिशंकु को स्वर्ग से निर्वासित किया था | राजा त्रिशंकु के निर्वासन के पश्चात विश्वामित्र मुनि ने 'भारतवर्ष' के चरम सीमा पर जम्बु द्वीप का दक्षिणी प्रांत बनाया | यह नया ब्रह्मांड, भु: भूवर स्वः के रूप में जाना जायेगा | श्री वशिष्ठ मुनि ऐसे काम करने से उन्हें रोका था | पाली भाषा में कालिदास संस्कृत के प्रसिद्ध नाटक अभिज्ञान शाकुन्तलम' में त्रिशंकु के इस प्रयास का संदर्भ मिलता है “भो तिसंक वि अ अंतारा चिठ्ठ”  | मुनि विश्वामित्र सिद्धाश्रम के इस पवित्र स्थान में बैठकर मानवता के कल्याण के लिए असंख्य आविष्कार किये | उन्होंने यहीं पर जगत गुरु वशिष्ठ मुनि की पदवी ली और भगवान राम और लक्ष्मन को विद्यार्थियों के रूप में मंत्रो की शिक्षा दी | उन्होंने सत्य के विध्वंसकों का नाश किया और राक्षसों के भय से तीनों लोकों को मुक्त किया | प्राकृतिक पुल की तरह संरचना के आगे, दो "पहाड़ियों के बीच एक लंबी मूर्ति सुन्द और उपसुन्द के बेटे दानव सुबाहा की है जो वैदिक धर्म और यज्ञ का  एक बड़ा शत्रु था | मारीच को भी सर्वोच्च धनुर्धर भगवान राम ने लंका भेज दिया जब वह मुनि विश्वामित्र की यज्ञ शाला को निशुद्ध करता था | विष्णु ने बाबा का आशीर्वाद लेकर किसी काम के बहाने पहाड़ी के ऊपर चला गया | बाद में, बाबा निर्देसन से हमने गुफा के तल में चार से पांच फुट गहरा गढ्ढा खोदा लोंगो को रहने के लिए | पहाड़ से गुफा तक जाने के लिए सीढ़ी बनाई | पूजा और होम ऋषियों और भगवान रामचंद्र के सम्मान में किया गया। लेकिन, कुछ ही महीनों के बाद साधु का निधन हो गया। आज कई लोग अपनी तीर्थ यात्रा के लिए इन गुफाओं पर आते हैं । भविष्य में सिद्धाश्रम के सुधर के लिए बहुत काम किया जाना है। लोगों को विश्मामित्र ऋषि के संदेशों को पालन करना चाहिए।

१६ फरवरी १९८० की (माघ/फाल्गुन) अमावस्या के दिन महर्षि भृगु ने ५०८० वर्ष हिमालय में तपस्या करने के पश्चात श्री श्री भ्रिगुगिरी (जो क्षोभक पर्वत पर १२ वर्षो की तपस्या में लीन थे ) के शरीर में प्रवेश कर “आकाल बोधन” यज्ञ करके अपने ही द्वारा सुप्त किये ३३ कोटि देवी देवताओं को विश्व की परिचालना के लिए जागृत करने का महान कार्य किया | श्री श्री पंचकन्या और श्री श्री भीमाशंकर  के गुप्त​ रूपों को पुनरुध्धार करके, जगत के साथ  परिचय करवाया और अपनी तपस्या सम्पूर्ण की |

पंचकन्या धाम का परिचय

क्षोभक पर्वत नाम प्रभु भीमाशंकर के क्रोध (क्षोभ) के कारण पड़ा, जिस समय वे भीमसुर के वध के लिए अवतरित हुए थे | त्रिकाल रुद्रदेव पहाड़ी के नायक है इसलिए उनका स्थान मंदिर के उत्तर पश्चिमी भाग में है | उनके पास भगवान विष्णु शेषनाग की सहस्त्र फणों की छाया में स्थित है, कालभैरव, माँ पंचकन्या की सुन्दर कढ़ी (मनो मोह) वाहक, प्रधान शिल्पी भगवान विश्वकर्मा के द्वारा बनाई गयी गरुड़ के आकार की वाहन है | इसके पश्चिम में वायु पुत्र भगवान महावीर हनुमान का स्थान है | श्री श्री 'रुद्र काली' मंदिर के पूर्वी कोने में कलियुग की देवी 'महामाया' के रूप में है |

यज्ञ शाला मंदिर के दक्षिणी भाग में है | यज्ञ कुंड में भगवान अग्नि हर समय प्रतिनिधित्व किया जाता है | यहाँ वर्ष भर यज्ञ किया जाता है | फाल्गुन में आकाल बोधन यज्ञ (९ दिन ), चैत्र में वसंती दुर्गा यज्ञ (९ दिन), 'रुद्र यज्ञ' 'श्रावण' के पूरे महीने के लिए किया जाता है | अश्विन महीने में ९ दिनों का शरद कालीन दुर्गा यज्ञ, कार्तिक में विष्णु यज्ञ बारह दिनों के लिए 'गणेश यज्ञ 'वसंत के मौसम में पांच दिनों के लिए' माघ 'और' चंडी यज्ञ ' | 'माँ परमेश्वरी ' की कृपा और आशीर्वाद ये कुछ महत्वपूर्ण यज्ञ यहाँ किये जाते हैं |

भगवान भीमाशंकर जो बारह ज्योरिलिंगो में एक हैं | हरुकेश्वर आकाश के सामान विशाल और समय के सामान अनंत है। क्षोभक पर्वत में उनका रुद्र रूप होने से उन्हें दही बहुत पसंद है | दही से अभिषेक करने से भक्तों को विशेष अनुकम्पा और आशीर्वाद मिलता है |

हरुकेश्वर जब संस्कृत में लिखा जाता है 'ह' का अर्थ है 'आकाश' जो भीम स्वरूप विशाल है, इसलिए अष्ट मूर्तियों की अराधना “ ॐ भीमाय आकशमुर्तये नम:” ​मंत्र से की जाती है | इस मंत्र, से परमेश्वर की निराकार लिंग के आठ पार्थिव रूपों (आकाश, आदि ) की पूजा की जाती है। 'हरि' द्वारा पोषित माया और दुखमय संसार से, जीव का हरण कर मुक्ति प्रदान कारी हर ही हेरुक के नाम से जाना जाता है | वही महाकाल हर है | उनका व्योम (शून्य) रूप आकाश ही शब्द स्वरूप,स्वर है, ओंकार ब्रह्म है, पूर्ण है, हम उन्हें ही ईश्वर (ई + स्वर ) कहते हैं |

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते | पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥

शिव पुराण, ज्ञान संहिता ५८ अध्याय ज्ञाता के अगम, (वेद) निगम (वेदांत) और महा मुनि व्यास के शिष्य का कहना है:
अतः परं प्रवक्ष्यामि माहात्म्यं भिमशंकरे कामरुपेश्वरे देशे शंकरो लोकमायया |
अवतीर्ण: स्वयं साक्षात कल्यान गुण भाजन: ||

इसमें भी कोई शक नहीं है कि कामरूपेश्वर क्षेत्र में सभी पाप धुल जाते है | शंकर का माया के माध्यम से जन्म होता है और इस प्रक्रिया शुभ गुणों से अभिभूत होते है |

दानव कुंभकर्ण और कर्कटी का बेटा भीमासुर किसी समय कामरूप पर राज्य करता था | वह 'हरि' का कट्टर दुश्मन था। 'हाजो' में , केदारनाथ मंदिर से माधव मंदिर के रास्ते में एक विशाल का पत्थर पात्र रखा है | आज भी यह भीमासुर की याद दिलाता है | कामरूप में इस तरह के कई पुरावशेष दिखाई देते है जो भीमासुर की याद दिलाते है | भस्मासुर के पराक्रम और अत्याचारों के कारण, देवताओं को अतीत में एक बार अपना स्वर्ग का राज्य छोड़ना पड़ा | कामरूप के राजा कमरुपेश्वर को भी इस कारण से अपने राज्य छोड़ कर एकांत जंगल में रुद्रदेव की तपस्या करना पड़ा। यह देखकर भीमासुर राजा को मारने आया |अपने भक्तों के रक्षक, सूलपानी रुद्रदेव प्रकाश के रूप में प्रकट होकर भीमासुर का वध किया | मृत्यु के पश्चात भीमासुर को मोक्ष की प्राप्ति हुई और वह 'भगवान शिव' में विलय हो गया,  तब से, हर 'भीमाशंकर' के नाम से जाना जाने लगा |
वर्तमान, भूत और भविष्य में जो है ,जो था और जो रहेगा (४ युगों के पश्चात भी ) वह केवल त्रिकालपति ही हैं, जो स्वयं काल हैं, और जिन्होंने समय को प्रकट किया है | रुद्रदेव मायाऔर मोहा को नष्ट करते हैं |वे इतने स्वतंत्र है, कि उन्हें स्वयं से भी मोह नहीं | उन्हें मृत्यु के देवता के रूप में पूजा जाता है |
हरंकारी, हर, जो पंच्वक्त्र हैं, देवी दुर्गा उनकी सेवा के लिए 'कुमारी' रूप में यहाँ सर्वथा उपस्थित हैं |

पञ्च पुष्करिणी देव्याः पञ्च योनी स्वरूपिनी |
पंचभि: दुर्गा योनिभि:पूजयते पंचवक्त्रकम | स्थिता रमयितं तत्र नित्यमेव हिमाद्रिजा ||
उग्रचंडा, प्रचंडा च् ​ चन्दोग्रा, चन्दनाइका | चन्दाचेती च् योगिन्या: पंचाया: परिकीर्तिता: || (का.पु.)

भगवान और दुर्जय पर्वत के बीच डाकिनी पर्वत एक कम ऊंचाई का समतल क्षेत्र है | इस पहाड़ी क्षेत्र में, जब एक लंबे समय तक चली लड़ाई के बाद, भीमासुर की मौत हो गई | रुद्रदेव​ इतने उत्तेजित हो गये कि उनके  क्रोधाग्नि (क्षोभ) की ज्वालाओं से पूरे पर्वत का विध्वंस होने लगा | सभी दिशाओं के  देवी देवता  भी पीड़ित होने लगे, तब उन्होंने देवी कामाक्षी से अनुरोध किया | देवी कामाक्षी ने अपने पांच शक्तियों के साथ मिलकर हरुकेश्वर​ की सेवा के लिए अपने कुंवारी रूप “पंचयोनी” की स्थापना की | हेमाद्रि नंदनी भगवती दुर्गा रूद्र रूपा  देवाधिदेव भीमाशंकर की सेवा के लिए कुमारी पञ्चरूपा पंचकन्या हैं |

ये योगिनियां उग्र शक्तियों से संपन्न हैं पचंयोनी का पंचकन्या व्यक्त नाम​ है, जो, देवी-देवताओं के अनुरोध पर आकर​ पंचवक्त्र रुद्र (भीमाशंकर) के क्रोध ("क्षोभ") को शांत करने के दिव्य कार्य को पूरा किया। हिमाद्रि नन्दिनी (श्री श्री कामाक्षी) सती के ५१ शक्ति पीठ,  जो विष्णु के चक्र द्वारा खन्डित होकर ५१  स्थानों में बिखरे हुए थे, उसीके योनि के भाग से प्रकासित​ श्री श्री कामाक्षी देवी है, इनका ही कुँवारी रुप देवी-देवताओं के अनुरोध पर श्री श्री भीमाशंकर के क्षोभ को शांत करने के लिए आयी थी | परन्तु देवी-देवताओं और भीमाशंकर की उत्सुकता के कारण , वहाँ रह कर​ उनकी सेवा करना आरंभ कर दिया। वक्त्र शब्द काअर्थ मुंह है और मुंह जिससे नाद उत्पन्न होता है, जो  ब्रह्म है, और सृष्टि का 'बीज' है | पंचवक्त्र महादेव के पांच मुंह से सृष्टि के सृजन के लिए नाद​ निकलता है | पूरी सृष्टि की अभिव्यक्ति माँ की "योनि" के माध्यम से हुइ है। यही कारण है कि पंचयोनी को भृगु गिरी के द्वारा पंचकन्या नाम दिया गया |
इस प्रकार से ३३ कोटि देवता रुद्रदेव को केन्द्रित होकर क्षोभक पर्वत पर विराजमान हुए | रुद्रदेव के आदेश से ‘सरिद्वारा’ गंगा नीलग्रीव के जटाओ से निकलकर कांता बनकर बहने लगी | देवताओं ने दैनिक स्नान के लिए वहाँ एक दिव्य कुंड की स्थापना की। इस कुंड में स्नान कर देवी पूजन से मानव योनिभोग (जन्म) से मुक्त हो जाता है |

तच्चैल पुर्वभागेतु कन्ता नाम महानदी । दक्षिणं सागरं यान्ति प्रथमं चोत्रबस्रवा ॥
दिव्यं कुण्डं महाकुंडं तच्छैलोपत्यकाक्षितो | सस्थितं तत्र स्नात्वा तु तां देवी परिपूजयते ||
दिव्य कुंडे नरः स्नात्वा पञ्च पुष्कर्णी शिवाम् | यः पुजयेन्ममहाभागः स योनौ नहीं जायते ||
कन्तायां सलिले स्नात्वा वसन्ते मानवोत्तमः | रूपवान गुणवान भुत्वा शिव्लोकाय गच्छति  ||

मंदिर में देवी 'पंचकन्या दुर्गा', महा दुर्गा, महा लक्ष्मी महा सरस्वती, महा अन्नपूर्णा और महा काली के पांच रूप
हैं |
पञ्च पुष्करिणी देव्याः प्रचंडा सर्वकामदा | त्रिपुरायास्तु तंत्रेण ताः पूज्याः सध्कोत्तमै: |
कामेश्वरी तंत्र मन्त्रेरथवा पूजयेच्छिवाम ||
बालायारित्रपुरयास्तु मंत्र मस्या: प्रकीर्त्तितम् | कामेश्वर्यास्तु वा मंत्रं पूजनेहस्याः प्रकीर्त्तितम् || (का.पु.)

त्रिपुरा बाला या कामेश्वरी' मंत्र से देवी की पूजा करना सर्वश्रेष्ठ  है | यदि कोई भक्ति और विश्वास से पांच, माला, फल, नैवेद्य, लाल चंदन और पांच घी के दीपक और अगरबत्ती, से पूजा करता है, देवी उसकी सभी इच्छायें पूरी करती हैं | देवी की 'कुमारी पूजा' सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि यह उसकी समक्षता का एक प्रतीकात्मक रूप है | कुमारी पूजा से सभी मनोकामनाए पूरी होती हैं | यदि कोई पूरी आस्था और भक्ति से कुमारी पूजा करता है, वह रोगों, गरीबी और दुख के चक्र से मुक्त हो जाता है |

नदी के तट पर, उत्तर मुखी भगवान 'महा गणेश' जिसे प्रातः जागृत किया गया है, अकाल बोधन यज्ञ की उमा चतुर्थी के दिन 'कली काल' में जगत को नियंत्रित करने का उत्तरदायित्व लिया है | कलि काल में उन्हें त्रिकाल गणेश' के रूप में जाना जायेगा और घोड़ा उनका वाहन होगा | सत्य युग में उनका वाहन सिंह था, त्रेता में मोर और द्वापर युग में मूषक। पुराणों और तंत्र शास्त्र में लिखा है, कि भगवान गणेश एक घोड़े पर सवार होकर कली काल का अंत करेंगे। उनके दाहिने तरफ कलि देवी दक्षिणा और बाएँ तरफ वाम कलि एक तलवार हाथ लिए होती है , जो उनकी आज्ञा के लिए तैयार रहती है | यदि भगवान गणेश की पूजा घी के दीपक, प्रसाद, माला, कुमकुम, जनेऊ, लड्डू से की जाती है और एक नारियल फोड़ा जाता है, तो वह सभी इच्छाओं को पूरा करते है।
भगवान गणेश के सामने पवित्र 'कांता' नदी, सब पापों का हरण करने के लिए बहती है | अपने प्रवाह में नदी कांता महाकुंड की संरचना करती है और इसमें देवी देवता प्रतिदिन स्नान करते हैं | जो इस दिव्य नदी 'कांता', जो क्षोभक की पुत्री में स्नान करता है वह पूर्व जन्म के बंधन से मुक्त हो जाता है, सुंदर, चरित्र से भरा जाता है और भगवान शिव की दुनिया जीतता है। वर्तमान में, संरचनात्मक रूप में कुंड नहीं है, लेकिन नदी के गुण अपरिवर्तित हैं । मुझे विश्वास है, कि भविष्य में नदी का पुराना स्वरूप वापस आ जाएगा।

तच्छैल पुर्वभागेतु कन्तानाम महानदी | दक्षिणं सागरं याति प्रथम ञ्चोत्तररस्त्रवा ||
दिव्यं कुण्डं महाकुण्डं तच्छैलापत्य काङिक्षतौ | संस्थितं तत्र स्नात्वा तु तां देवीं परिपूजयेत ||
कान्ताया: सलिले स्नात्वा वसन्ते मान्वोत्तम: | रूपवान गुणवान भुत्वा शिवलोकाय गच्छति ||

पूर्वी पहाड़ी से निकलकर कांता नदी दक्षिणी महासागर में बहती है | नदी में स्नान कर, देवी पूजा करने से व्यक्ति | महान व्यक्ति जो देवी कुण्ड में स्नान कर देवी पञ्चकरणी की पूजा करते हैं पुर्नजन्म से मुक्त होते हैं | महान व्यक्ति जो बसंत के मौसम में नदी कांता में स्नान करता है, वह सुंदर, चरित्रवान होकर शिव लोक को पा लेता है |

यदि कोई नदी 'कांता' में स्नान कर , भगवान महा गणपति का आशीर्वाद लेता है, और माँ पंचकन्या की पूजा करता है उसकी सभी इच्छायें पूर्ण होती हैं |

नदी के तट पर थोड़ा जाने से, वहाँ, नदी के बीच में भगवान महाकाल का वाहन गेंडा एक बड़े पत्थर के रूप में निहित है | उनके आशीर्वाद से असामयिक मृत्यु से मुक्त हो सकते हैं। उनका दूध से अभिषेक कर और एक सेब के द्वारा पूजा का विधान है। जो विश्वास से उनका चरणामृत ग्रहण करता है वह सभी रोगों से मुक्त हो जाता है |
सुंदर पत्थर जो मंदिर के सामने पहाड़ी से जुड़ा हुआ है, कृष्ण देव की जगह है। उनकी पूजा 'रास यात्रा',दोल में गोपाष्टमी के दिन किया जाता है | उनके पश्चिम में दो बड़े पत्थर हैं, नीचे देवताओं के योद्धा और अस्त्रों के स्वामी भगवान कार्तिक की जगह है, उसके ऊपर बाघ पर बैठी देवी जगद्धात्री की जगह है। आगे ऊपर पहाड़ी पर एक विशाल पत्थर भगवान कुबेर की जगह है | वे भगवान शिव के कोषाध्यक्ष है | उनके पास सभी प्राणियों के पापों का लेखा होता है और दोषकर्ता कभी निर्दोष नहीं छोड़े जाते है। जो उन्हें प्रसन्न करता है वह विपुल धन का भागीदार होता है | भगवान कुबेर के ऊपर तीन विशाल पत्थर में तीन देवी देवताओं की जगह है | बीच में भगवान गणेश और दोनों पक्षों पर माता-पिता भगवान शिव और देवी पार्वती विराजमान हैं | इस पवित्र जगह में प्रथम भगवान गणेश फिर भगवान कुबेर की पूजा के पश्चात अन्य देवी देवतोओं की पूजा का विधान है | भगवान कुबेर की पूजा के लिए आवश्यक प्रसाद सरल एवं सस्ता है | एक घी का दीपक,अगरबत्ती और केले का एक अटूट गुच्छा उन्हें तुष्ट करने के लिए पर्याप्त है।

भगवान कुबेर के बाईं ओर एक और स्थान एक पत्थर के रूप में है। वे नव नाथ, 'पंच पीर' (मौलाना साहिब) के अंतिम अवतार है। उनके मुगल दोनों पक्षों पर मुग़ल और पठान दो अंगरक्षक है। वे एक मुसलमान देवता है और पूर्नश्क्ति के रूप में है | पंचपीर की पूजा मोमबत्तियों,अगरबत्ती और शाकाहारी भोजन के प्रसाद से की जानी चाहिए | 'अजान' देने के बाद पवित्र पुस्तक कुरान पढ़ा कर नमाज किया जा रहा है | मौलाना साहब हमेशा वहाँ मौजूद होकर सभी की इच्छाओं को पूरा करते है।

'वैदिक महर्षि भृगु' का स्थान थोडा ऊपर है | द्वापर युग के अंत में पांच हजार अस्सी वर्ष पूर्व भगवान विष्णु की छाती पर लात मारकर और उन्ही की सम्मति से हिमालय जा कर उत्तर प्रदेश में बलिया जिले में तपस्या शुरू की | वहाँ से, तपस्या समाप्त कर १६ फरवरी १९८० के महीने में, महा अमावस्या के दिन एक पूर्ण सूर्यग्रहण में जगतगुरु विष्णु का पुनर्जन्म 'भृगु महात्मा', अपने स्थान क्षोभक लौटे। इस घटना ने महान वैज्ञानिकों, खगोलविदों और ज्योतिषियों को एक आपदा के आने की भविष्यवाणी करने के लिए के लिए मजबूर किया और मनुष्य भय में डूब गये | महर्षि भृगु की मंत्रणा से सूर्यग्रहण के अगले दिन, ऐतिहासिक 'अकाल बोधन' यज्ञ 'मानवता की भलाई के लिए किया गया था। भृगु के पौत्र 'मृत्युंजय महाकाल मार्कंडेय बाबा का आशीर्वाद लेने से काल पर विजय प्राप्त होती है |

थोड़ी ऊपर बाईं ओर दानव महिषासुर का शरीर है जिसका क्रुद्ध देवी भगवती महिषासुर मर्दिनी ने तलवार से वध किया था, यह त्रिनयनी दुर्गा का मुख्य स्थान है। इस जगह में जीवन के चार लक्ष "धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष" पर विजय प्राप्त होती है। उसके ऊपर, जटाओं के साथ महा नील्कंठ, जिन्होंने समुद्र मंथन के समय विष निगलकर अपने गले में रखा था | त्रिलोक ज्ञानी, देवी गंगा लगातार उनकी जटाओं से प्रवाहित हो रही है | इस पवित्र अमृत जैसे जल के पान से पापों का निवारण और मन और शरीर शुद्ध होता है |

थोड़ा ऊपर, अघोरी देव' का भ्रामक शरीर इतना शक्तिशाली है कि हम उन्हें छू नहीं सकते | थोड़े ऊपर बाई ओर सीतला माता का स्थान है, उनकी पूजा करते समय कुमारी अच्छी तरह से अलंकृत होना चाहिए | देवी शीतला को चावल के आटे का मीठा हलवा ,बड़ा नींबू जो अंदर से लाल हो, कटहल और आम जैसे फल पसंद है। बाईं ओर ऊपर सौ फुट पर 'अमरावती' है, जहाँ देवराज इंद्र और देवताओं का सम्मलेन होता है | दोपहर बारह बजे हर शनिवार को तैंतीस करोड़ देवी-देवता यहां मिलते हैं। यहाँ आना निषिद्ध है, नीचे यम कुंड है। नीचे का रास्ता बहुत ही कठिन है, आप नीचे नहीं जा सकते हैं। पूर्व में, पहाड़ी के बीच एक गंभीर मुद्रा में एक पत्थर है | यह देवी तारा है जिसे महान ऋषि वशिष्ठ द्वारा पूजा की गई थी | बाएँ तरफ कई गुफाये हैं और वहां तक मंदिर से सीधे जा सकते हैं | क्षोभक पहाड़ी कालीखात में सभी देवी देवता पांच हजार और अस्सी साल जो सोने के बाद जागे थे और अपने कर्तव्य कर रहे हैं, का वास है |

पंचकन्या धाम के वार्षिक पूजा और यज्ञ

  1. बैशाख (१५ अप्रैल - १५ मई ) अक्षय तृतीया
  2. जेष्ठ (१५ मई से जून 15) बुद्ध पूर्णिमा उमा चतुर्थी
  3. आषाढ़ (जून १५ से १५ जुलाई) अम्बुबाशी
  4. श्रावण (१५ जुलाई से १५ अगस्त ) गुरु पूर्णिमा से राखी पूर्णिमा तक श्री श्री रुद्र यज्ञ और संक्रांति मनसा पूजा
  5. भादों (अगस्त १५ से सितंबर १५ ) सौभाग्य चतुर्थी (गणेश पूजा) जन्माष्टमी
  6. आश्विन (सितम्बर १५ से अक्तूबर १५ ) श्री श्री दुर्गा उत्सव, वार्षिक शिव चतुर्दशी और लक्ष्मी पूजा
  7. कार्तिक (अक्टूबर १५ से नवंबर १५ ) विष्णु यज्ञ दीप अनंता
  8. माघ (१५ जनवरी से १५ फरवरी) गणेश चतुर्थी, सरस्वती पूजा
  9. फाल्गुन (फरवरी १५ से मार्च १५ ) शिवरात्रि, अकाल बोधन यज्ञ
  10. चैत्र (मार्च १५ से अप्रैल १५ ) बसंती पूजा








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