Wednesday, January 4, 2017

कामरूप और असम के प्राचीन धर्मस्थल

असम में विष्णु और शिव के अवतार

विष्णु के तीन अवतार वामन, वराह और नरसिंह असम में हुए थे | "भीमाशंकर" और “षरभ” ​ शिव के भाग हैं | इस क्षेत्र में वामन, वराह, षरभ और भीमाशंकर अवतरित हुए | नरसिंह अवतार का स्थान, नगांव जिले में नरसिंह क्षेत्र (बढ़मपुर) है |

प्रागज्योतिषपुर के तपोभूमि डाकिनी (क्षोभक) पर्वत

भगवान पर्वत सन्ध्याचल के दक्षिणी भाग में, और बाएँ में दुर्जय पर्वत स्थित है | डाकिनी पर्वत (वर्तमान क्षोभक पर्वत) के उत्तरी भाग में, वशिष्ठ मुनि ने अपने सातवें अवतार में जीवन के अंतिम काल में मुक्ति से पहले, सन्ध्याचल आश्रम की स्थापना की और, ध्यान किया | सन्ध्याचल से केवल ३०० मीटर की दूरी पर दक्षिण-पश्चिम कोने में डाकिनी और भगवान पर्वत के संगम में महर्षि भृगु की तपोभूमि स्थित थी | जहां  उन्हे वेद- मंत्रों का दर्शन मिला , और भृगु संहिता की भी रचना की |
रुद्रदेव के क्रोध (क्षोभ) से, भीमासुर के भस्म​ फ़ैलकर​,असंख्य औषधीय पौधों का सृजन हुआ | इस जगह का नाम देवी-देवताओं द्वारा "डाकिनी " के स्थान पर क्षोभक​ रखा गया। क्षोभक​ पर्वत में, भीमाशंकर और पंचयोनि पर केंद्रित होकर​ तैंतीस कोटि देवी-देवताओं ने उनके आसपास आसन​ ग्रहन किया | इस जगह में, सातवें भृगु ने देव समाज निर्मित किया, जो भृगु संहिता के विज्ञान के साथ निष्क्रिय किया , और ऐसा करने के बाद, वे तपस्या के लिए हिमालय चले गए |
भगवान पर्वत के उत्तरी दिशा मेंजो संध्याचल के दक्षिण में स्थित हैऔर क्षोभक के उत्तर-पूर्व, "ईशानकोण" में, ऋषि के "ज्ञान-चक्र" के केंद्र स्थित​ है । इस जगह से, ललिता (सरस्वती) भूमिगत होकर​ "त्रिवेणी" में मिलती है। क्षोभक से, पावन सलिल , कांता नदी, नीलकंठ  की जटाओं से निकलकर​ त्रिवेणी में मिलती है | "संध्या" नदी वशिष्ठ मुनि के आह्वान करने से आयी | त्रिवेणी इन तीन नदियों का संगम है | संगम के दक्षिणी तट में, ऋषियों के परिसंवाद हुआ करते थे |

वामन अवतार और सिद्धाश्रम

क्षोभक और भगवान पर्वत जुड़वे​ भाइयों की तरह आगे बढ़े | इस पहाड़ी के पश्चिमी किनारे में 'वामन' अवतार हुए, जहां असंख्य गुफाऐं थी। जब दैत्य राज (द्वैत राजर्षि) बलि ने स्वर्ग पर विजय प्राप्त​ किया, और देवी-देवताओं को निष्कासित कर दिया, तो देवता वामन अवतार​ से सहायता के लिए प्रार्थना की।​ तब वामन बलि के पास गये और अपने पैरों को रखने के लिए दान के रूप में सिर्फ 'तीन कदम' भूमि मांगा, और अपने विरत रूप प्रकट कर तीनो लोकों को ले लिया | इस तरह  देवताओं को उनका खोया हुआ राज्य मिल गया | देवताओं ने इस आश्रम का नाम "सिद्धाश्रम" दिया इस जगह में साधना कर ने से "सिद्धि" (विज्ञान ,पूर्णता) प्राप्त होती है |

विश्वामित्र, सिद्धाश्रम और प्राकज्योतिषपुर

साधक विश्वामित्र को जब गंभीर तपस्या करने के पश्चात भी "सिद्धि" प्राप्त नहीं हुई तब वे अपने गुरु, वशिष्ठ के पास गये और आत्मसमर्पण कर इस तरह बोले  "गुरुदेव , निरंतर चेष्ठा करने के पश्चात भी मैं सफलता प्राप्त करने में असमर्थ हूँ और इस कारण मैने अपने आत्म-शक्ति को खो दिया है। मुझे सच्चाई का अच्छे ढंग से ज्ञान हो गया है, कि आर्षवाक्यानुसार जैसे कहते थे : "गुरु बिने कौन बतावे बात , बड़ा  विपदा अमाघात " गुरु की सहायता के बिना कोई भी प्रतिकूलता पर विजय नहीं पा सकता है । मैं अहंकार के प्रभाव से गुरु की सहायता के बिना "सिद्धि" के सभी प्रयत्न​ किया, परन्तु सफ़ल न हो सका, इसलिए, कृपया मुझे आदेश  दें कि मुझे क्या करना चाहिए”। वशिष्ठ ने सबसे बुद्धिमान और उत्साही शिष्य विश्वामित्र को सिद्धाश्रम में तपस्या करने के निर्देश दिए, जहां  विश्वामित्र तपस्या कर "ब्रह्मर्षि" हुए ।
इतना ही नहीं, सिद्धाश्रम पर बैठे उन्हे, सर्वोच्च प्रकाश के माध्यम से "सावित्री मंत्र" की दृष्टि हुई  और इसके साथ उन्हे "विश्वामित्र" या विश्व का मित्र कहा गया। यह सर्वोच्च प्रकाश ही प्रथम​ या " प्राक ज्योति" है। असम को  इस 'प्राक ज्योति "के कारण "प्राकज्योतिषपुर "या" प्रागज्योतिषपुर​ " कहते  है। इतिहासकारों ने इस ज्योति शब्द का गंभीरता से विचार किये बिना , "ज्योतिष" के साथ सम्बन्ध जोड़कर स्वीकार करना आरम्भ कर दिया | ज्योतिष ​ विज्ञान का पहले के समय में असम में व्यापक प्रचलन था । कामरुप का कोइ इतिहास न जानने के कारण, इसे पौराणिक कथाओं से जोड़ा गया है, जो असम के साथ एक उपहास मात्र है | इतिहास की शुरुआत होती है, पौराणिक कथाओं, की नहीं | क्योंकि "पुराण-कथा" का अभिप्राय काल्पनिक कहानीयों से है |
इस महान ऋषि ने अपने क्षत्रीय-शरीर की प्रभामण्डल को ब्रह्म-शरीर की आभा में परिणत किया | और "सर्वोच्च प्रकाश" की दृष्टि पाकर​ "वेद-मंत्र-दृष्टा" हो गये | 'आकाश' से उन्होने विज्ञान के कई पक्षों की खोज की, और मानवता की प्रगति के लिए उपयोग किया । उन्होंने ही आकाश मे प्रक्षेपास्र भेजे | कृषि विज्ञान के आविष्कारक भी विश्वामित्र ही थे। कॉस्मिक रे से उन्होने कई पेड़ पौधों की प्रतीति की, जिसके फलस्वरूप सभी प्राणियों का अत्यंत  कल्याण हुआ | वृक्षों और वनस्पतियों  की कई प्रजातियों का अन्वेषण उनकी तपस्या का ही परिणाम है |

विश्वामित्र की गुफायें

समय बीतने के साथ, विश्वामित्र की कई गुफायें लुप्त हो  गयीं | वर्ष, १९६८ में, भृगु गिरि महराज ने हरिहर नर्मदेस्वर (मारकणडेय मुनि) के मार्गदर्शन और देखरेख में, विश्व को इस जगह से पुन: अवगत करवाया | उस समय यह स्थान​ यात्रा के लिए उपुक्त  नहीं था, और गुफाऐं भूमिगत थी | भृगु गिरि ने ५ गुफाओं को पुनःर्स्थापित किया, इनमें से तीन खंडहर बन गए | इनमे से एक बहुत बड़ा था, और उपयोग के लिए उपयुक्त था, लेकिन वह भी १०-१२ साल के अंतराल  वन मे पुनः लुप्त हो गया | अब, केवल दो ही गुफाओं का उपयोग किया जाता है।
सिद्धाश्रम से आधे किलोमीटर की दूरी पर नदी के तट पर  एक झरना है, जहां महामुनि गौतम  का आश्रम था । विश्वामित्र की उत्तरी दिशा में पानी की धारा के साथ दुर्जय पर्वत है और इस के मध्य भाग में "हातिलोतन​" स्थित है। इस हातिलोतन मे एक विशाल दलदली झील है | भृगु ऋषि की संतान मारकणडेय, और्ब, मृकंड और शुक्राचार्य आदि की असंख्य तपोभूमि इस झील के किनारे थी | यह हातिलोतन हाथियों के लिए संभोग की जगह थी । इस से आगे वराह पर्वत, नरक की उत्तरवर्ती राजधानी थी |

श्री श्री भीमेश्वर (शिव) और वराह पर्वत


भीमाशंकर और भीमासुर के युद्ध में, भीमाशंकर  की क्रोधाग्नि की ज्वाला से भीमासुर का पर्वत शहर भी नष्ट हो गया | पामोहि में स्थित भीमेश्वर इसी ज्याला का स्वरुप है , और आज भी, " भीमेश्वर " के रूप में पूजी जाती है।

"वराह पर्वत" में "भीमेश्वर", जो दुर्जय पर्वत के उत्तर-पश्चिमी दिशा में स्थित है। गढ़भंगा और रानी पश्चिम में, तथा ब्रह्मपुत्र नदी उत्तर में है | नीलांचल​ पर्वत भी वराह पर्वत का एक हिस्सा है। इस वराह पर्वत में ही "वराह अवतार" हुए। इस वराह पर्वत में राजर्षि सीरध्वज ने अपने राज्य की स्थापना की, और भगवान वराह की पूजा की | सीरध्वज के पहले भीमासुर ने इस वराह पर्वत में तपस्या किया, और महान पराक्रम का वरदान प्राप्त किया, और वहाँ अपनी राजधानी की स्थापना की | वर्तमान पामोही गाँव​ के ऊपरी भाग में, भीमासुर की राजधानी थी | वहां से कुछ दूरी पर, जो लोग प्रभु वराह की पूजा करते थे, एक शहर है जो वराह नगर के रूप में नामित किया गया | अब, यह​ विकृति होकर​ "बोरागाँव​" बन गया है |

नरसिंह क्षेत्र, कपिली और कामरूप

इनमें, कपिली और त्रिवेणी (संध्या-ललिता-कांता) विशेष रूप से अलंकृत हैं | गंगा की तरह - कपिली, "ब्रह्मबील​" (ब्रह्मझील​) से निकलकर​, लोहित सागर में गिरती है | क​ "का" अर्थ है "ब्रह्म" और "पिल" या "बिल​" का अर्थ है "छोटे छेद"। कपिली नदी के तट पर, तपस्वी तपस्या करते थे । क्योंकि, साधकों की सभी इच्छाऐं गंगा (कपिली) के तट पर बैठ कर पूरी हो जाती थी, इस जगह का नाम​ कामरूप पड़ा अर्थात जंहा सभी कामनाये पूरी हों | कपिली के पूर्वी तट के साधको की कमना पूर्ण होने के कारण कामपुर और पश्चिमी तट के साधको की कामनाये वास्तव रूप में परिग्रहण करने के कारण कामरूप कहते थे | कामपुर एक छोटा नगर के रूप में आज भी विद्यमान है |
कपिली के पूर्वी दिशा में "ब्रह्मपुर राज्य" था और उसके राजा  राजर्षि कुशध्वज, जो कामरूप के सीरध्वज के भाई थे । कुशध्वज के पुत्र हंसध्वज और उनके पुत्र सुरथ और सुधन्ना थे, जिनकी कथा महाभारत में आती है | युधिष्ठिर के यज्ञ के अश्व को बन्दी बनाने से दोनो पुत्रो की मृत्यु के पश्चात राजा  हंसध्वज ने संन्यास ले लिया  , और ७५ बीघा (१९ एकड़) क्षेत्र में एक बड़ा सरोवर खुदवाया, जिसके तट में तपस्या में लीन हो ग​ए | इस महान सरोवर, जिसके के तट पर जिस वट वृक्ष के नीचे राजा हन्शध्वज ने तपस्या की थी, बाबा भृगु गिरि महाराज​ ने गणेश-यज्ञ करने के बाद एक मंदिर का निर्माण करवाया। चापनला से ३ किमी की दूरी पर , जियाजुरि चाय उद्यान ​,में अभी भी राजधानी के अवशेष शेष हैं | यह कहानी ५००० वर्ष पुरानी है | कपिली के पूर्वी तट पर​ , ब्रह्मपुर कुशध्वज के राज्य का नाम था। तत्पश्चात, यह बधरमपुरऔर आज यह एक बड़ा तहसील​, "बढ़मपुर​" का नाम है।

“कपिली” नरसिंह के केंद्र  पर, कपिली नदी के तट पर​ "ब्रह्मबील​"(ब्रह्मझील) एक​ अन्य पवित्र क्षेत्र था | कार्बी पर्वत की पहाड़ियों में से एक का नाम था "कंदली " पहाड़ी | ऋषि यंहा "कदोलि" या "कोल"(केले) की खेती करते थे, और यही कारण है, नाम कन्दली पर्वत पड़ा | सरस्वती नदियों से और कंदली  जल-प्रपात से, शुद्ध नदियां "सलिला" (चम्पमाला), "चम्पावती", नाम से नीचे आती है, जो नरसिंह क्षेत्र के मैदान से कपिली के रूप में बहती है और लोहित सागर में गिर जाती है | चम्पावती "सरयू" नदी की तरह है, समय के साथ तिरोहित होकर एक छोटे से नाले  के रूप में “चापानला" कहलाया । वहाँ से, एक छोटी सी धारा, "नोनोई" के नाम से बहती है और कपिली में मिलती है। चम्पावती नदी ब्रह्मपुर राज्य (बढ़मपुर) मे थी। चम्पावती के तट पर, राजर्षि हिरण्यकशिपु, प्रहलाद, बलि आदि सभी राजर्षियों ने तपस्या किया | यहीं, "नरसिंह” अवतार हुए | इस क्षेत्र के गुरू भृगु परिवार से थे। इस स्थान में भृगु ऋषि ने "मृत्युंजय" - मृत​संजीवनी के विज्ञान का अविष्कार  किया | हिरण्यकशिपु एक विशेष नाम नहीं है - यह पदवी "हिरण्य" का अर्थ है 'सोना' और "कशिपु" का अर्थ है परिधान | मृत्युंजय साधना सोने के माध्यम से पूरा किया जाता है | यही कारण है कि, कि राजर्षि सोने के धागे की कढ़ाई से किये वस्त्र पहनने के कारण हिरण्यकशिपु के नाम से जाने जाते थे |

'द्वैत गुरु' शुक्राचार्य के शिष्य १.५ क्विंंटल शिला का मृत्युंजय शिवलिंग स्थापित कर वहाँ साधना करते थे | समय के साथ वह भूमिगत हो गया और आसपास के पहाड़ों से आ रही मिट्टी से जमीन के ४४ फुट नीचे फुट चली गयी | "लिंग" भूमि के नीचे बढ़ती गयी और अब ५१ क्विंटल वजन का हो गया है | जहां बाबा भृगु गिरि एक "लिंग" के रूप में बहुत बड़े शिव मंदिर का निर्माण करवा रहे है, १२६ फुट ऊंचा यह इस संसार का सबसे बड़ा शिवलिंग होगा | सन​ २०१९ साल की एक शुभ घ​ड़ी में, वहाँ मृत्युंजय की पूजा की एक असाधर​ण ऐतिहासिक घटना होगी, जिसके पश्चात​ भक्तों के लिए यहाँ साधना सुलभ हो जाएगी | वह वर्ष धार्मिक क्रांति के आरम्भ के  रूप में मनाया जाएगा | इस धार्मिक क्रांति से लोगों दिलों में भक्ति की एक उच्च ज्वाला का उद्गम होगा यह बाबा का संकल्प है | इस मंदिर के निर्माण में उन सभी व्यक्तियों को, जिनका योग दान होगा , शिव के असीम अनुक्मपा के भागी होंगे  | यहां तक कि एक गरीब व्यक्ति यदि एक मिट्टी का ढेला भी ले जाता है, वह शिव के अनुग्रह का भागीदार होगा |

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