Tuesday, June 20, 2017

भीमाशंकर का उद्भवन

भीमाशंकर का उद्भवन

पुराणों के विभिन्न कथाओं के अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भगवान भीमाशंकर की उत्पत्ति त्रेता युग के मध्य भाग में हुई थी वेद के दर्शन "सत्य युग" के मध्य भाग से "त्रेता युग" के आरंभ तक हुए थे | राजर्षि दशानन उस समय मायापुर (मयोंग) के शासक थे | भीमासुर का जन्म दशानन के छोटे भाई कुंभकर्ण के वीर्य  से  कर्कटी के गर्भ में हुआ | वे  क्षत्रिय[1] जाति के थे और सह्य पर्वत में रहते थे। दशरथ के पुत्र श्री राम द्वारा कुंभकर्ण के वध के पश्चात कर्कटी ने अपने पुत्र के साथ वहां रहना आरंभ कर दिया

बड़े होनेपर एक दिन भीम ने अपनी माँ से अपने पिता के बारे में पूछा? वे कौन थे और कहाँ रहते थे ? कर्कटी ने दुखी स्वर में कहा, तुम्हारे पिता कुंभकर्ण, राजा रावण के छोटे भाई थे। वे मेरे पास केवल एक बार आये थे, राम ने उनका वध कर दिया | मैने तो लंका भी नहीं देखी है | मेरे पिता का नाम करकट और माता का नाम पुष्कसी था मेरा विवाह विराध  से हुआ था | राम ने उनका भी वध कर दिया | मेरे पति की मृत्यु के पश्चात , मैं अपने पिता और मां के साथ रहने लगी | एक दिन मेरी माँ और पिता ने मुनि सुतीक्षन पर आक्रमण किया, पर उन्होंने क्रुद्ध होकर दोनों को भष्म कर दिया | तब से मैं अकेले हो गई, उस समय कुंभकर्ण मुझसे मिले और तुम्हारा जन्म हुआ |तुम्हारे जन्म के बाद, मैं यहाँ सिर्फ तुम्हारे लिए रहती हूं |
अपनी मां से यह सब सुनकर वह बहुत नाराज हो गया। वह सोचने लगा किस तरह हरि का अनिष्ठ किया जा सकता है | इस प्रकार सोच कर ,वह सहस्र वर्ष तक ब्रह्मा की तपस्या में लीन हो गया | एक पैर से उर्ध्वबाहू होकर, सूर्य की तरफ मुख कर ब्रह्मा की तपस्या की | इस कठिन तपस्या के फलस्वरूप भीम के सिर से निकले तेज पुंज से सारा जगत तपने लगा | आतुर देवताओं ने आकुल हो कर ब्रह्मा के चरणों में शरण ली और प्रार्थना किया | हे पितामह ! हम भीमासुर की घोर तपस्या से अत्यंत पीड़ित हो रहे हैं | अतः आप तुरंत ही उसे अपने इच्छित वरदान देकर देवताओं को विनष्टि से बचा लीजिये | देवताओं की प्रार्थना सुनकर, पितामह ब्रह्मा हंसारोहण हो भीम के समुख प्रकट होकर बोले: "भक्त! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं, जल्दी ही वर मांगो |" ब्रह्मा के वचन को सुनकर, भीम ने कहा, "हे कमलासन ! यदि आप मुझे वरदान देना चाहते हैं, तो, मुझे असीम शक्ति प्रदान करें" इस प्रकार वह ब्रह्मा के पैरों शरणागत हुआ | ब्रह्मा ने विवश होकर उसे अतुलित बल का वरदान दिया | ब्रह्मा के वरदान से पागल होकर भीमासुर ने मनुष्यों और देवताओं को यातना देना आरंभ  कर दिया | सर्वप्रथम भीमासुर ने राजा कामरुपेस्वर को बंदी कर एक निर्जन स्थान में भेज दिया |

 “ इत्युत्वा प्रथमं तत्र कामरूपेश्वरं  शुभं | ववध्द तरयामास  भीमो भीम पराक्रम ||”

अत्यधिक, समर्पित राजा, पत्नी दक्षिणा के साथ पृथक स्थान पर भक्ति के साथ स्नान कर तथा शिव लिंग स्थापित कर एकचित्त होकर शुद्ध भावना से पूजा करने लगे | दूसरी ओर, भीमासुर ने देवताओं पर आक्रमण कर उनका भी राज्य छीन लिया |अपने राज्य से विस्थापित देवताओं ने नदी महाकोशी के तट पर देवाधिदेव महेश्वर की पूजा आरंभ कर दी | ऋषियों और देवताओं के आह्वान से प्रसन्न होकर देवाधिदेव महेश्वर प्रकट होकर कहा; मैं तुम्हारी तपस्या से संतुष्ट हूँ, अपने वांछित वरदान मांगो | देवताओं और ऋषियों ने भीमासुर की कहानी सुनाकर परित्राण के लिए उनके शरणागत हुए |

देवाधिदेव शिव ने कहा, भीमासुर ने केवल आप देवताओं को परन्तु मेरे प्यारे भक्त कामरुपेश्वर को भी बंदी बना रखा है | अतः इस सन्दर्भ में जो कुछ भी करना है वह मुझे ही करना होगा, आप निर्भय होकर वापस लौट जाओ। यह कहकर प्रथम गण (गणेश) को साथ लेकर कष्ट निवारक कल्याणकारी शिव ने प्रस्थान किया | इस बीच, भीम के सेवकों ने, राजा (कामरुपेस्वर) के शिव की आराधना की सूचना दी |

एतस्मिननंतरे तत्र कामरुपेश्व् रेण | अत्यन्तं ध्यान मारध्वमं पार्थीववस्य पूरस्तदा||
केशि्चश्च तत्र गत्वा राक्षसाय निवेदितम | राजा किंचित करोत्येवं  त्वदर्थे राक्षसोत्तं |
अभिचारं करोति वै यथेच्चसि तथा कुरु ||”
"हे महान राजा! राजा कामरूप ने पार्थिव 'शिव लिंग' स्थापित कर आपके अभिचार के लिए पूजा में लीन है इसलिए, कृपया जो भी उचित है आप कर सकते हैं।

यह सुनकर भीमासुर क्रोध से व्यथित होकर अपने सैनिकों के साथ राजा (कामरुपेश्वर) को मारने के लिए जेल की ओर प्रस्थान किया | उन्होंने राजा को शिव पूजा में लीन देखकर क्रोधित होकर बोला; राजन यह सब क्या हो रहा है, सत्य बताओ वरना तुम्हारा वध कर देंगे | राजा कामरुपेस्वर शिव पूजा में इतने लीन थे कि अविचलित भाव से बोले मै इस पार्थिव लिंंग में शिव की अराधना कर रहा हूं | इस लिंग में साक्षात शिव निवास कर पूजा ग्रहण कर रहे हैंं | लेकिन क्योंकि मैं अति हीन व्यक्ति होने के कारण उन्होंने अभी तक मेरा कल्याण नहीं किया | परन्तु वे अपने भक्तो को उत्पीड़न करने वालों का वध कर रक्षा करने के लिए वचनबद्ध हैं | अतः मैं उनकी आराधना कर रहा हूं | अब आप जो उचित लगे कर सकते हैं |

राजा की बात सुनकर भीमासुर अट्टहास कर कहने लगा ; मैं शंकर को भली भांती जनता हूं, मेरे पिता के अग्रज दशानन ने शंकर को किंकेर की तरह अपने महल में रखा था | उस शंकर की शक्ति से तुम मुझ पर विजय पाना चाहते हो, क्या तुम पेड़ की खोह में कछुए का अंडा खोज रहे हो | जब तक तुम्हारे प्रतिपालक शंकर के साथ मेरा सामना नही होता, तुम्हारा भ्रम दूर नहीं होगा |

भीम की अभिमान युक्त बात सुनकर राजा बोले, राक्षसराज शंकर को तुच्छ समझकर क्या मैं यहाँ से हटा सकूँगा | वे तो महान हैं मेरा  कभी भी त्याग नहीं करेंगे | भीम राजा की बातों पर जोर से हँसा और बोला ; "अपने राज्य को खोने के बाद जिस तरह से तुम भिखारी बन गए हो, पागल भी  हो गए हो , उसी तरह तुम्हारा शंकर भी नशे में उन्मत्त है "| शंकर अत्यधिक सांसारिक है, वह अपने ही उदरपूर्ति के लिए भिक्षा का झोला लेकर घूमता है | उसे 'योगतत्त्व' का क्या ज्ञान है ? यदि तुम्हारे कल्याण की उसमे क्षमता थी, तो आज तुम्हारी यह दयनीय स्थिति होती | फिर भी, तुम्हारा भ्रम दूर नहीं हुआ है। इसलिए, तुम्हारे प्रभु के साथ-साथ तुम्हारा भ्रम भी मिटा दूंगा और दुनिया को भविष्य में भ्रम से मुक्त कर दूंगा | इस प्रकार कहकर, महान शक्तिशाली भीमासुर ने राजा पर प्राण घातक अस्त्र से प्रहार किया उसी मुहुर्त पृथ्वी एक प्रलयंकारी गर्जना से अन्धकारमय हो गया, और उस पार्थिव लिंग से सहस्र सूर्य के समान दिव्य ज्योति रूप में रूद्र देव का आविर्भाव हुआ | रूद्रदेव ने कहा "मैंहंस मंत्रकी रक्षा के लिए भीमाशंकर के रूप में अवतरित हुआ हूँ अपने भक्तो की रक्षा करना मेरी प्रतिज्ञा है |

तावच्च पर्थिवात तस्मादविरास स्वयं हर:| पश्य भिमेश्वरोहहेस रक्षार्थ प्रकाट्यँहम  ||

इस प्रकार कहकर, जगत हरण कारी रुद्रदेव भीम के निक्षेपित अस्त्रों को खंडित कर दिया। रुद्रदेव और भीम के बीच भीषण युध्य आरंभ हुआ | युध्य की विभीषिका को देखकर देवतागण विस्मित हुए | कुपित रुद्रदेव के भार से असहनीय दिगपाल गण त्राहि त्राहि करने लगे | पृथ्वी व्याकुल हो गई, समुद्र, पर्वत, ग्रह, नक्षत्र सभी क्षोभित हुएब्रह्मादि देवतागण प्रमाद मनाने लगे | सभी व्याकुल होकर नारद के पास सहायता के लिए पहुंचे | देवतओं के आग्रह पर नारद युद्ध स्थल पर पहुंचकर रुद्रदेव से बोले; लोगों को भ्रम में डालने वाले महेश्वर ! मेरे नाथ ! आप क्षमा करे , क्षमा करे | तिनके को काटने के लिए कुल्हाड़ा चलाने की क्या आवश्यकता है | कृपया शीघ्र ही इसका संहार कीजिए | नारद की प्रार्थना सुनते ही रुद्रदेव ने हुंकार मात्र से भीमासुर और समस्त राक्षसों को भस्म कर दिया | राक्षसों के वध के पश्चात भी रुद्रदेव शांत नहीं हुए और उनके क्रोध की ज्वाला सारे जंगलो में फैलकर ओषधिय वृक्षों में परिणित हुई | इन पौधों को भूत-प्रेतों से निवारण और विभिन्न रोगों के समाधान के लिए उपयोग किया जाता है |

प्रार्थित: शम्भू शांति समाधी गच्छवै | स्थातवं स्वमिना ह्यत्र लोकानां सुख हेतवे ||
अयम् वै कुतिस्तो देश: औषध्यो लोक दुःखदा | भवन्तंच तदा दृष्ट: कल्याणं सम्भविष्यति ||
भिमाशंकरानाम त्वं भविता सर्वसाधक | इतयेवं प्रथि्रत: शम्भू स्तत्रैव स्थितवांस्तदा || 

रुद्रदेव के क्रोध से चराचर जगत आतंकित हुए | देवतओं और ऋषियों ने प्रार्थना की किआप यहाँ लोगों को सुख देने के लिए सदा निवास करे | यह देश निन्दित माना गया है | यहाँ आने वाले लोगों को प्राय: दुःख प्राप्त होता है | आपका दर्शन मात्र से सबका कल्याण होगा | आप भीमाशंकर के नाम से विख्यात होंगे और सबके सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध होंगे | आपका यह ज्योतिर्लिंग सदा पूजनीय और समस्त आपत्तियों का निवारण करनेवाला होगा | सभी देवी-देवताओं के अनुरोध पर "हेरुक" का नाम "भीमासुर के विध्वसंक" के रुप में "भीमाशंकर" पड़ा

देवतओं का उद्योग देखकर महाकाल रुद्रदेव का क्षोभ शांत हुआ और ज्योतिर्लिंग के रूप में रहने लगे | अकाल मृत्युमोचंकारी रुद्रदेव की पूजा करके मानव अकाल मृत्यु और कुष्टादी सभी रोगों से मुक्ति पा सकते हैं | दही मधु धी मिश्रण द्वारा रुद्रदेव का अभिषेक करके तथा उन्ही के स्वरुप महाकाल को दुग्ध स्नान कराके बलिदान से मनुष्य दुर्भाग्य और दु:साध्य रोगों से मुक्त हो सकता है |

महादेवी कामख्या दर्शन कर उर्वर्शी में स्नानन्तरे, उमा भैरव सेवन करते हुए कांता के महाकुंड में स्नान करके पंच्योनी (पंचकन्या ) और हरुकेश्वर (भीमाशंकर ) ज्योतिर्लिंग के पूजन का विधान हैततपश्चात संध्या के अमृत कुंड में स्नान करके महामुनि वशिष्ठ देव का दर्शन करते हुए भगवान पर्वत में अरुंधती गुफा में विष्णु देव का दर्शन कर अक्षयपुण्य अर्जन कर सकते है | भैरव मंत्र से भीमाशंकर हरुकेश्वर के पूजा का विधान है | त्रिपुरवाला या कामेश्वरी मंत्र से पंच योनी की पूजा का विधान तंत्र ने किया है |

त्रिपुरायास्तु तंत्रेण ता: पूज्या साधकोत्त्मै | कामेश्वरी तन्त्र मंत्रैरथवा पूजयेत शिवाम ||
भैरवस्य तु मंत्रपेण पूजयित्वा दिव्यं व्रजेत | निर्माल्य धारिणी देवी चंडगौरिति  कीर्तिता ||

देवतओं की प्रार्थना सुनकर विश्वात्मा हरेश्वर रुद्रदेव संतुष्ट हुए और क्षोभ त्यागकर शांत होकर इस स्थान में लिंग रूप में प्रतिष्ठित हुए और इन्द्रादि देवगण अपने अपने स्थान पर आसीत हुए | जगत संहारक प्रभु के क्षोभ के कारण इस स्थान को क्षोभक के रूप में नामित किया गया | दुःख हरण कारी रूद्र का नाम हरक या हेरुक नाम से प्रसिद्ध हुआ | '' का अर्थ है 'आकाश' जो भीम स्वरूप विशाल है, इसलिए अष्ट मूर्तियों की अराधना भीमाय आकशमुर्तये नम:” ​मंत्र से की जाती है | 'हरि' द्वारा पोषित माया और दुखमय संसार से, जीव का हरण कर मुक्ति प्रदान कारी हर ही हेरुक के नाम से जाना जाता है | वही महाकाल हर है | उनका व्योम (शून्य) रूप आकाश ही शब्द स्वरूप,स्वर है, ओंकार ब्रह्म है, पूर्ण है, हम उन्हें ही ईश्वर ( + स्वर ) कहते हैं |

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते | पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते



[1] क्षत्रिय जाति के लोग  प्रजा की "रक्षा" करते थे।  क्योंकि राजा  क्षत्रिय जाति से होते थे और अपने राज्यों के संरक्षक थे, समय के साथ "रक्षा" शब्द "राक्षस" में बदल गया इस तरह "रक्षक" शब्द  विकृत होकर  "राक्षक" (दानव) बन गयी। और रावण, कुम्भकर्न​, भीमासुर आदि "रक्षक" से "राक्षक" कहलाये | ब्राह्मण जाति के ऋषि सात्त्विक गुणों के अधिग्रहण के लिए तपस्या करते थे | राक्षस (क्षत्रीय़), राजसिक गुणों के अधिग्रहण के लिए राजा और राजऋषि के पात्र थे |

प्रागज्योतिषपुर के तपोभूमि डाकिनी (क्षोभक) पर्वत

भगवान पर्वत सन्ध्याचल के दक्षिणी भाग में, और बाएँ में दुर्जय पर्वत स्थित है | डाकिनी पर्वत (वर्तमान क्षोभक पर्वत) के उत्तरी भाग में, वशिष्ठ मुनि ने अपने सातवें अवतार में जीवन के अंतिम काल में मुक्ति से पहले, सन्ध्याचल आश्रम की स्थापना की और, ध्यान किया | सन्ध्याचल से केवल ३०० मीटर की दूरी पर दक्षिण-पश्चिम कोने में डाकिनी और भगवान पर्वत के संगम में महर्षि भृगु की तपोभूमि स्थित थी | जहां  उन्हे वेद- मंत्रों का दर्शन मिला , और भृगु संहिता की भी रचना की |
रुद्रदेव के क्रोध (क्षोभ) से, भीमासुर के भस्मफ़ैलकर​,असंख्य औषधीय पौधों का सृजन हुआ | इस जगह का नाम देवी-देवताओं द्वारा "डाकिनी " के स्थान पर क्षोभकरखा गया। क्षोभकपर्वत में, भीमाशंकर और पंचयोनि पर केंद्रित होकरतैंतीस कोटि देवी-देवताओं ने उनके आसपास आसनग्रहन किया | इस जगह में, सातवें भृगु ने देव समाज निर्मित किया, जो भृगु संहिता के विज्ञान के साथ निष्क्रिय किया , और ऐसा करने के बाद, वे तपस्या के लिए हिमालय चले गए |

भगवान पर्वत के उत्तरी दिशा मेंजो संध्याचल के दक्षिण में स्थित हैऔर क्षोभक के उत्तर-पूर्व, "ईशानकोण" में, ऋषि के "ज्ञान-चक्र" के केंद्र स्थितहै इस जगह से, ललिता (सरस्वती) भूमिगत होकर​ "त्रिवेणी" में मिलती है। क्षोभक से, पावन सलिल , कांता नदी, नीलकंठ  की जटाओं से निकलकरत्रिवेणी में मिलती है | "संध्या" नदी वशिष्ठ मुनि के आह्वान करने से आयी | त्रिवेणी इन तीन नदियों का संगम है | संगम के दक्षिणी तट में, ऋषियों के परिसंवाद हुआ करते थे |

पंचकन्या धाम का उद्भव


भगवान और दुर्जय पर्वत के बीच डाकिनी पर्वत एक कम ऊंचाई का समतल क्षेत्र है | इस पहाड़ी क्षेत्र में, जब एक लंबे समय तक चली लड़ाई के बाद, भीमासुर की मौत हो गई | रुद्रदेवइतने उत्तेजित हो गये कि उनके  क्रोधाग्नि (क्षोभ) की ज्वालाओं से पूरे पर्वत का विध्वंस होने लगा | सभी दिशाओं के  देवी देवता  भी पीड़ित होने लगे, तब उन्होंने देवी कामाक्षी से अनुरोध किया | देवी कामाक्षी ने अपने पांच शक्तियों के साथ मिलकर हरुकेश्वरकी सेवा के लिए अपने कुंवारी रूपपंचयोनीकी स्थापना की | हेमाद्रि नंदनी भगवती दुर्गा रूद्र रूपा  देवाधिदेव भीमाशंकर की सेवा के लिए कुमारी पञ्चरूपा पंचकन्या हैं | ये योगिनियां उग्र शक्तियों से संपन्न हैं

पञ्च पुष्करिणी देव्याः पञ्च योनी स्वरूपिनी |
पंचभि दुर्गा योनिभि:पूजयते पंचवक्त्रकम | स्थिता रमयितं तत्र नित्यमेव हिमाद्रिजा ||
उग्रचंडा, प्रचंडा च्चन्दोग्रा, चन्दनाइका | चन्दाचेती च् योगिन्या: पंचाया: परिकीर्तिता: ||

पचंयोनी का पंचकन्या व्यक्त नामहै जो देवी-देवताओं के अनुरोध पर आकरपंचवक्त्र रुद्र (भीमाशंकर) के क्रोध ("क्षोभ") को शांत करने के दिव्य कार्य को पूरा किया। हिमाद्रि नन्दिनी (श्री श्री कामाक्षी) सती के ५१ शक्ति पीठजो विष्णु के चक्र द्वारा खन्डित होकर ५१  स्थानों में बिखरे हुए थे, उसीके योनि के भाग से प्रकासितश्री श्री कामाक्षी देवी है, इनका ही कुँवारी रुप देवी-देवताओं के अनुरोध पर श्री श्री भीमाशंकर के क्षोभ को शांत करने के लिए आयी थी | परन्तु देवी-देवताओं और भीमाशंकर की उत्सुकता के कारण , वहाँ रह करउनकी सेवा करना आरंभ कर दिया। वक्त्र शब्द काअर्थ मुंह है और मुंह जिससे नाद उत्पन्न होता है, जो  ब्रह्म है, और सृष्टि का 'बीज' है | पंचवक्त्र महादेव के पांच मुंह से सृष्टि के सृजन के लिए नादनिकलता है | पूरी सृष्टि की अभिव्यक्ति माँ की "योनि" के माध्यम से हुइ है। यही कारण है कि पंचयोनी को भृगु गिरी के द्वारा पंचकन्या नाम दिया गया |

इस प्रकार से ३३ कोटि देवता रुद्रदेव को केन्द्रित होकर क्षोभक पर्वत पर विराजमान हुए | रुद्रदेव के आदेश सेसरिद्वारागंगा नीलग्रीव के जटाओ से निकलकर कांता बनकर बहने लगी | देवताओं ने दैनिक स्नान के लिए वहाँ एक दिव्य कुंड की स्थापना की। इस कुंड में स्नान कर देवी पूजन से मानव योनिभोग (जन्म) से मुक्त हो जाता है |

तच्चैल पुर्वभागेतु कन्ता नाम महानदी दक्षिणं सागरं यान्ति प्रथमं चोत्रबस्रवा
दिव्यं कुण्डं महाकुंडं तच्छैलोपत्यकाक्षितो | सस्थितं तत्र स्नात्वा तु तां देवी परिपूजयते ||
दिव्य कुंडे नरः स्नात्वा पञ्च पुष्कर्णी शिवाम् | यः पुजयेन्ममहाभागः योनौ नहीं जायते ||
कन्तायां सलिले स्नात्वा वसन्ते मानवोत्तमः | रूपवान गुणवान भुत्वा शिव्लोकाय गच्छति  ||

श्री श्री भीमेश्वर (शिव) और वराह पर्वत


भीमाशंकर और भीमासुर के युद्ध में, भीमाशंकर  की क्रोधाग्नि की ज्वाला से भीमासुर का पर्वत शहर भी नष्ट हो गया | पामोहि में स्थित भीमेश्वर इसी ज्याला का स्वरुप है , और आज भी, " भीमेश्वर " के रूप में पूजी जाती है।
"वराह पर्वत" में "भीमेश्वर", जो दुर्जय पर्वत के उत्तर-पश्चिमी दिशा में स्थित है। गढ़भंगा और रानी पश्चिम में, तथा ब्रह्मपुत्र नदी उत्तर में है | नीलांचलपर्वत भी वराह पर्वत का एक हिस्सा है। इस वराह पर्वत में ही "वराह अवतार" हुए। इस वराह पर्वत में राजर्षि सीरध्वज ने अपने राज्य की स्थापना की, और भगवान वराह की पूजा की | सीरध्वज के पहले भीमासुर ने इस वराह पर्वत में तपस्या किया, और महान पराक्रम का वरदान प्राप्त किया, और वहाँ अपनी राजधानी की स्थापना की | वर्तमान पामोही गाँवके ऊपरी भाग में, भीमासुर की राजधानी थी | वहां से कुछ दूरी पर, जो लोग प्रभु वराह की पूजा करते थे, एक शहर है जो वराह नगर के रूप में नामित किया गया | अब, यहविकृति होकर​ "बोरागाँव​" बन गया है