Wednesday, June 28, 2017

भीमाशंकर और असम का माहात्म्य


भीमाशंकर और असम का माहात्म्य


गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर:। गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नम:।।

प्रस्तावना

शिव रात्रि के  पावन पर्व ने इस वर्ष मेरे जीवन में एक ऐसा मोड़ लाया जिसकी मुझे वर्षो से प्रतीक्षा थी | मेरा गुवाहाटी आना एक अनुत्तरित प्रश्न था | जून २०११ को जब मै सहारा चैनल पर “ॐ नमः शिवाय” टीवी सीरियल में भीमाशंकर का एपिसोड देखकर हैदराबाद लौट रहा था | एयरपोर्ट के रास्ते में लंकेश्वर धाम के सन्यासी से पूछने पर “भीमाशंकर कहाँ है?” उन्होंने खड़े होकर पीछे गढ़भंगा पहाड़ी की तरफ इशारा किया | उन्होंने भीमाशंकर की कथा  भी सुनाइ जो टीवी सीरियल से कुछ भिन्न थी | नेट में खोजने से “भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग”, के बारे में जानकारी कुछ और थी | सबसे लोकप्रिय शिव पुराण में वर्णित ज्योर्तिलिंग और इसके साथ जुड़ी हुई कहानियाँ थी, जिसमें  एक भीमासुर के वध की कथा भी थी | मेरी जिज्ञासा और भी बढ़ गयी |  

गुवाहाटी लौटने पर  कई दिनों तक गढ़भंगा पहाड़ी के इर्द गिर्द चक्कर लगाने के बाद भी भीमाशंकर का कोई पता न चलने पर, लंकेस्वर धाम के  सन्यासी ने गोरसुक (रा.मा.३७) के रास्ते से अन्दर जाने की सलाह दी | करीब ५ कि.मी. दूर पहाड़ो के बीच वह एक बहुत ही मनोरम स्थान  है , जहाँ एक छोटे से पहाड़ी श्रोत के मध्य परमेश्वर शिव का प्राकृतिक लिंग शोभनीय है | एक छोटी सी पहाड़ी नदी जिसका निरंतर जलाभिषेक करती  हुई एक झरने से ब्रह्मपुत्र की ओर बहती है | बरगद की जटाओं ने शिव लिंग को एक प्राकृतिक मंदिर का स्वरूप दे रखा है | लोगो का विश्वास  है कि मंदिर बनाने की कोई भी कोशिश अचानक नदी में बाढ़ आने से  विफल हो जाती है | मंदिर बनाने के कई प्रयास खँडहर के रूप में चारो तरफ बिखरे पड़े हैं |
पहाड़ी के अन्दर जाने के रास्ते पर पुरातत्त्व विभाग का “पंचधारा डिम्बेस्वर स्वामी” का पट लगा था, जिससे स्थानीय (कार्बी) लोग अनभिज्ञ थे | दूसरी ओर कुछ असमी और मारवाड़ी समाज के भक्तो को भगवान शिव की अनुभूतियों और प्रेरणा से इसी को श्रद्धा से भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग समझकर प्रचार प्रसार आरम्भ कर दिया | गणेश मंदिर बना, रास्ते का निर्माण हुआ, और इस गुप्त लिंग के रहष्य को लोगों तक पहुचाने का अभूतपूर्व  कार्य होने लगा | मैंने भी भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग की खोज के विषय  में अपने विचार “मेडिसिन बियॉन्ड मेडिसिन” ब्लॉग में लिखा | इन सभी प्रयासों के फलस्वरूप निरंतर बढ़ती श्रधालुओं की संख्या से आज यह स्थान गुवाहाटी में भक्तो की पूजा-आस्था का एक प्रमुख केंद्र बन गया है  |

२७ फरवरी २०१६ को  श्री पंकज दास जी के एक ईमेल ने सारी दृष्टि ही बदल दी | उन्होंने लिखा, जिसको आप भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग समझ रहे है, वह यथार्थ में भीमेश्वर लिंग है, जो भीमाशंकर का उपलिंग है | इस विषय में उन्होंने बाबा  भृगुगिरी महाराज के कई लेख भेजे और उनसे परिचय करवाया | फिर तो जैसे एक नए अध्याय का आरम्भ हुआ, भक्ति और आस्था के पुराने विचार ढहने लगे |

श्री श्री भृगुगिरी महाराज जिनका जन्म नालबाड़ी शहर में १९३२ में महर्षि भृगु के प्रतिरूप के रूप में हुआ था | गृहस्थ जीवन पूरा करने के पश्चात १९६६ में उन्हें स्वप्न मे भीमशंकर और पंच कन्या की पूजा की अनुभुतियां आरम्भ हुई | इसके कुछ वर्ष पूर्व अल्मोड़ा जिले में एक अालौकिक ऋषि से तीन दिनों का सानिध्य हुआ था जिन्होंने फिर मिलने का संकेत दिया और जनवरी १९६८ मे कांता नदी के तट पर दर्शन दिया | वे गुरु गुप्तेस्वर​ श्री श्री हरिहरा नन्द गिरि अमर महर्षि मारकणडेय थे | २८ फरवरी १९६८ में उन्होंने श्री श्री पंचकन्या श्री श्री भीमाशंकर और अन्य देवी देवताओं के गुप्त​ रूपों का परिचय करवाया और  भृगु गिरी के साथ ९ वर्षों तक उन्होंने सनातन धर्म के सभी पहलुओं और वेद, उपनिषदों, इतिहास और पुराणों से अवगत करवाया | गुरु के अन्तर्धान होने के पश्चात ३ वर्षो तक श्री श्री भृगु गिरी ने अकेले ही कड़ी तपस्या की |

१६ फरवरी १९८० की (माघ/फाल्गुन) अमावस्या के दिन महर्षि भृगु ने ५०८० वर्ष हिमालय में तपस्या करने के पश्चात श्री श्री भ्रिगुगिरी के शरीर में प्रवेश कर “आकाल बोधन” यज्ञ करके अपने ही द्वारा सुप्त किये ३३ कोटि देवी देवताओं को विश्व की परिचालना के लिए जागृत करने का महान कार्य किया |

भीमाशंकर ही केवल ऐसा ज्योतिर्लिंग है जिसके विषय में कई मतान्तर है | उनमें से अधिकांश इसे महाराष्ट्र में पुणे के पास भीमा नदी के तट पर मानते है, दूसरे इसे नैनीताल में उजनक के पास | परन्तु शिव पुराण में उल्लेख किया गया है कि भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग कामरूप (गुवाहाटी, असम) में स्थित है |

“श्रुत्वा पापं हरेत सर्वं नात्र कार्य विचारणा | अतः परं प्रवक्षामि माहात्य्मं भीमाशंकरे ||
कामरुपेश्वरे देशे शंकरो लोकमयया | अवतीर्ण: स्वयं साक्षात कल्याणगुण भाजन: ||”

प्रभु भीमाशंकर की उत्पत्ति त्रेता युग के मध्य भाग में हुआ था। उस समय राजर्षि दशानन मायापुर (मयोंग) के शासक थे। उनका जन्म​ दशानन के भाई  कुंभकर्ण के वीर्य से कर्कटी नामक महिला की कोख से हुआ था |

डाकिनी पर्वत का नाम भीमसुर के वध के समय उत्पन्न भगवान भीमा शंकर के असीम क्रोध (क्षोभ) के बाद क्षोभक पर्वत में बदल गया | आज भी क्षोभक पर्वत पर भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग (पंचकन्या धाम) में पूजा जाता है। परन्तु कुछ पंहुचे हुए ध्यानस्थ साधू और पुन्य योगी  आत्माए ही इस तथ्य से अवगत हैं |भ्रुगुगिरी भ्रिगुगिरी महाराज ने आध्यात्मिकता पर कई पुस्तकें लिखी है, किन्तु अधिकतर विषय सदियों पुरानी विभिन्न अवधारणाओं और विश्वासों का वैज्ञानिक आधार से स्पष्टीकरण पर हैं | उनका वेद, उपनिषद और महाकाव्यों में छुपी हुई गहरी अंतर्दृष्टि से इस पवित्र खजाने की सत्यता पर प्रकाश पड़ा है | यह केवल एक महर्षि के द्वारा ही संभव हो सकता है। उन्होंने वर्ष १९८४ में द्वादश ज्योतिर्लिंग नामक एक पुस्तक असमिया भाषा में लिखा लिखा था, जिसमे भीमेश्वर लिंग जो पमोही गाँव के निकट है को मुख्य भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के उपलिंग के रूप में स्पष्टीकरण दिया है | जिसको आज भक्तगण भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग समझकर पूजा करते हैं |

श्री श्री भृगु गिरी महाराज के दिव्य दृष्टि के प्रकाश से श्री श्री भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग और इसके ऐतिहासिक उत्पति के संदर्भ पर उठाए कई प्रश्नों का उत्तर देते समय​ न केवल कामरूप को समझने के लिये अपितु पूरे असम के इतिहास ​ के प्रतिलेखन का यह​ एक मौलिक​ संकलन है | यह​ असम के इतिहास, भौगोलिक​ उत्पत्ति, विकास और कई पारंपरिक अवधारणाओं की वास्तविकता को लोगों तक पहुंचाने और असम की भूमि से जुड़े अदभुत आध्यात्मिक गौरव को जानने की कोशिश है |

इस​ पुस्तिका को पढ़ने के बाद, आध्यात्मिकता और इस देश (असम, मूल रूप से ' आसमाम' जो अतीत में आध्यात्मिक कांति के साथ जुड़ा था) के बारे में कई मिथ्या धारणाऐं बदल जाएंगी | और एक नइ दृष्टि , से इस रहस्यवादी तपोभूमि के गौरवशाली इतिहास और आध्यात्मिकता की ओर आत्मा निश्चित रूप से आकर्षित होगी ।

श्री श्री भृगु गिरी महाराज के द्वारा लिखित मूल असमी भाषा के अंग्रेजी अनुवाद का यह हिंदी अनुवाद  है |इस दोहरे अनुवाद में कुछ मौलिक संकल्पनाओं में अल्प विकार आना स्वाभाविक था , फिर भी अनुवाद का भाव मूलप्रति के अनुरूप ही है  |
सबसे पहले मैं उस परमात्मा और उसकी ज्योति पुंज श्री श्री भीमाशंकर का आभारी हूँ जिनकी इच्छा के बिना कलम से एक शब्द भी नहीं निकल पाता | श्री श्री भ्रिगुगिरी महाराज जिन्होंने अपनी वृधावस्था के बाद भी जिस उत्साह से अपने अपूर्व ज्ञान को लोगों तक पंहुचाने की कोशिस की है, को लाखो प्रणाम | श्री पंकज दास को धन्यवाद, जिन्होंने अंग्रेजी भाषा में अनुवाद कर इस लेखनी को सरल कर दिया | श्री प्रदीप कन्डोत्त, श्री मुकेश महोबिया, अर्धांगिनी तृप्ति देब , बहिन स्वपना देब, और उन सभी का जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से इस लेख में सहयोग दिया का अत्यंत आभारी हूं | और अंत में गुगल अनुवादक एप, “संस्क्रिप्ट”  वेबसाइट को धन्यवाद, जिसकी मदद के बिना यह कार्य असंभव था |

अनुवादक - एक अनन्य भक्त                           जुलाई  २०१६


श्री श्री भीमाशंकर और असम का माहात्म्य


प्राचीन असम और ब्रह्मपुत्र नदी


हिमालय पर्वत लद्दाख से तिब्बत, सिक्किम, भूटान, पटकाई पास​, नागा हिल्स, कार्बी, खासी, गारो हिल्स तक  एक हाथी के आकार का दिखता है। हिमालय-पर्वत का वह हिस्सा या भाग जो हिंदू कुश की ओर है  हाथी की पूंछ औरअरुणाचल;  हाथी के चेहरे के समान है प्रतीत होता है। नागा, खासी और गारो हिल्स हाथी की सूँढ जैसे लगते हैं। जल जो 'हिमालय जैसे हाथी' के मुंह से बाहर आता है, अरुणाचल का परशुराम कुंड, "लोहित सागर” है | जो अब  "बोरलुईत" के नाम से जाना जाता है। ​

मिकिर पर्वत (कार्बी पहाड़ी) से गारो पर्वत तक ये सभी स्थान, कामरूप, प्रागज्योतिषपुर और असम जैसे नामों से प्रसिद्ध थे | वर्तमान असम-घाटी  और बांगला देश समुद्र में  जलमग्न था । प्राचीन लोहित सागर सदियों से प्रवाहित होकर​ और बंगाल की खाड़ी के साथ मिलता था | समय बीतने के साथ असम और बांगला देश समुद्र के पीछे जाने से प्रकट हुआ | इसी तरह भूटान के दक्षिण से, कामरूप, असम के  भूमि से यह  समुद्र संकुचित होकर​ एक नदी के रूप में परिणत हुआ जो  बोरलुइ (लोहित सागर​) और , तदन्तर​  "ब्रह्मपुत्र" कहलाया |
सागर पुलिंग होने के कारण​ ब्रह्मपुत्र नद है, इस​के विपरीत अन्य नदियां स्त्री-लिंग होने के कारण​ नदी कही जाती है। कामरूप, असम, प्रागज्योतिषपुर से, समुद्र में एक बड़ी संख्या में छोटी और बड़ी, गंगा की तरह पवित्र नदियां निकलती हैं, क्योंकि ये सभी नदियां उत्तर  की  ओर प्रवाहित होती  हैं |

असम और प्रागज्योतिषपुर शब्द की उत्पति




वराह, क्षोभक, सन्ध्याचल​, भगवान और दुर्जय इन पांचों पर्वतों पर​, और ब्रह्म पर्वत (कार्बी आंगलांग) जहां लगभग सभी आर्यावर्त के तपस्वी, तपस्या करते थे | "देव-शक्ति" पर विजय प्राप्त करना उनका परम उदेश्य था | यही कारण है कि आर्यावर्त के लोग पहले इस देश को " आसमान" कहते थे | असमान का एक अन्य अर्थ भी है - "आस" का अर्थ है सूर्यदेव ,और "मान" का अर्थ "धारक", जैसे, "शक्तिमान", "धीमान, श्रीमान​", आदि, आकाश सूर्यदेव  को धारण करती इसीलिये "आसमान"। असम भारत के पूर्व में है जहां सूर्य प्रातःकाल में उगता है, यही कारण है कि असम सूर्य के देश के रूप में "आसमान”  जिसका विकृत रूप ही "असम" है। यथार्थ मे असम शब्द "अहोम" का विकृत रूप नहीं है जैसा कि अधिकतर इतिहासकार मानते हैं ।


वेद का दर्शन सत्य युग के मध्य से त्रेता युग के आरम्भ तक हुआ। आर्यावर्त के प्राय: सभी ऋषि, जो वैदिक मंत्रों के दृष्टा थे, तपस्या और सिद्धि प्राप्त करने के लिए इस जगह आते थे | सभी को साधना में, सबसे पहले, "ज्योति" के दर्शन होने के कारण, आर्यों ने इस जगह का नाम "प्राज्ञज्योति" दिया। "आसमान", नाम आर्यावर्त के लोगों में प्राचीन समय से प्रचलित था | वामन और वराह पर केंद्रित तपोभूमि आसमान थी | "प्राज्ञज्योति" नाम संन्यासियों (तपस्वियों) के मध्य प्रचलित था |

मायापुर या लंका

लोहित सागर में, मायापुर द्वीप राजऋषि दशानन की तपोभूमि थी। उस समय यह लंका के रूप में जाना जाता था। संस्कृत भाषा में, “लं” शब्द का अर्थ है माया और “कर​” का अर्थ है “धारक" । उसी तरह, "अलं" का अर्थ निर्माया या भ्रम से रहित , "कर" का अर्थ है "धारक" और संयुक्त शब्द​ "अलंकार" का अर्थ माया से रहित।  इस तरह "लंका" या "माया" से   "मायापुर",  और अन्त में मायोंग कहलया। आज हम  जिसे मायोंग के रुप से जानते हैं, वह प्राचीन काल में राजऋषि दशानन की लंका थी। जो माया या जादू विज्ञान के प्रवर्तक ,और आप (जल) तत्व के साधक थे। इस साधना से उन्होने उड़ान​, बुरान​ , मारन,  लुक्कायनआदि सिध्दियां प्राप्त की, और "आसम​"  या कामरूप की भूमि पर इस ज्ञान का प्रसार किया।

असम में विष्णु और शिव के अवतार

विष्णु के तीन अवतार वामन, वराह और नरसिंह असम में हुए थे | "भीमाशंकर" और “षरभ” ​ शिव के भाग हैं | इस क्षेत्र में वामन, वराह, षरभ और भीमाशंकर अवतरित हुए | नरसिंह अवतार का स्थान, नगांव जिले में नरसिंह क्षेत्र (बढ़मपुर) है |

प्रागज्योतिषपुर के तपोभूमि डाकिनी (क्षोभक) पर्वत

भगवान पर्वत सन्ध्याचल के दक्षिणी भाग में, और बाएँ में दुर्जय पर्वत स्थित है | डाकिनी पर्वत (वर्तमान क्षोभक पर्वत) के उत्तरी भाग में, वशिष्ठ मुनि ने अपने सातवें अवतार में जीवन के अंतिम काल में मुक्ति से पहले, सन्ध्याचल आश्रम की स्थापना की और, ध्यान किया | सन्ध्याचल से केवल ३०० मीटर की दूरी पर दक्षिण-पश्चिम कोने में डाकिनी और भगवान पर्वत के संगम में महर्षि भृगु की तपोभूमि स्थित थी | जहां  उन्हे वेद- मंत्रों का दर्शन मिला , और भृगु संहिता की भी रचना की |
रुद्रदेव के क्रोध (क्षोभ) से, भीमासुर के भस्म​ फ़ैलकर​,असंख्य औषधीय पौधों का सृजन हुआ | इस जगह का नाम देवी-देवताओं द्वारा "डाकिनी " के स्थान पर क्षोभक​ रखा गया। क्षोभक​ पर्वत में, भीमाशंकर और पंचयोनि पर केंद्रित होकर​ तैंतीस कोटि देवी-देवताओं ने उनके आसपास आसन​ ग्रहन किया | इस जगह में, सातवें भृगु ने देव समाज निर्मित किया, जो भृगु संहिता के विज्ञान के साथ निष्क्रिय किया , और ऐसा करने के बाद, वे तपस्या के लिए हिमालय चले गए |

भगवान पर्वत के उत्तरी दिशा मेंजो संध्याचल के दक्षिण में स्थित हैऔर क्षोभक के उत्तर-पूर्व, "ईशानकोण" में, ऋषि के "ज्ञान-चक्र" के केंद्र स्थित​ है । इस जगह से, ललिता (सरस्वती) भूमिगत होकर​ "त्रिवेणी" में मिलती है। क्षोभक से, पावन सलिल , कांता नदी, नीलकंठ  की जटाओं से निकलकर​ त्रिवेणी में मिलती है | "संध्या" नदी वशिष्ठ मुनि के आह्वान करने से आयी | त्रिवेणी इन तीन नदियों का संगम है | संगम के दक्षिणी तट में, ऋषियों के परिसंवाद हुआ करते थे |

वामन अवतार और सिद्धाश्रम

क्षोभक और भगवान पर्वत जुड़वे​ भाइयों की तरह आगे बढ़े | इस पहाड़ी के पश्चिमी किनारे में 'वामन' अवतार हुए, जहां असंख्य गुफाऐं थी। जब दैत्य राज (द्वैत राजर्षि) बलि ने स्वर्ग पर विजय प्राप्त​ किया, और देवी-देवताओं को निष्कासित कर दिया, तो देवता वामन अवतार​ से सहायता के लिए प्रार्थना की।​ तब वामन बलि के पास गये और अपने पैरों को रखने के लिए दान के रूप में सिर्फ 'तीन कदम' भूमि मांगा, और अपने विरत रूप प्रकट कर तीनो लोकों को ले लिया | इस तरह  देवताओं को उनका खोया हुआ राज्य मिल गया | देवताओं ने इस आश्रम का नाम "सिद्धाश्रम" दिया इस जगह में साधना कर ने से "सिद्धि" (विज्ञान ,पूर्णता) प्राप्त होती है |

विश्वामित्र, सिद्धाश्रम और प्राकज्योतिषपुर

साधक विश्वामित्र को जब गंभीर तपस्या करने के पश्चात भी "सिद्धि" प्राप्त नहीं हुई तब वे अपने गुरु, वशिष्ठ के पास गये और आत्मसमर्पण कर इस तरह बोले  "गुरुदेव , निरंतर चेष्ठा करने के पश्चात भी मैं सफलता प्राप्त करने में असमर्थ हूँ और इस कारण मैने अपने आत्म-शक्ति को खो दिया है। मुझे सच्चाई का अच्छे ढंग से ज्ञान हो गया है, कि आर्षवाक्यानुसार जैसे कहते थे : "गुरु बिने कौन बतावे बात , बड़ा  विपदा अमाघात " गुरु की सहायता के बिना कोई भी प्रतिकूलता पर विजय नहीं पा सकता है । मैं अहंकार के प्रभाव से गुरु की सहायता के बिना "सिद्धि" के सभी प्रयत्न​ किया, परन्तु सफ़ल न हो सका, इसलिए, कृपया मुझे आदेश  दें कि मुझे क्या करना चाहिए”। वशिष्ठ ने सबसे बुद्धिमान और उत्साही शिष्य विश्वामित्र को सिद्धाश्रम में तपस्या करने के निर्देश दिए, जहां  विश्वामित्र तपस्या कर "ब्रह्मर्षि" हुए ।
इतना ही नहीं, सिद्धाश्रम पर बैठे उन्हे, सर्वोच्च प्रकाश के माध्यम से "सावित्री मंत्र" की दृष्टि हुई  और इसके साथ उन्हे "विश्वामित्र" या विश्व का मित्र कहा गया। यह सर्वोच्च प्रकाश ही प्रथम​ या " प्राक ज्योति" है। असम को  इस 'प्राक ज्योति "के कारण "प्राकज्योतिषपुर "या" प्रागज्योतिषपुर​ " कहते  है। इतिहासकारों ने इस ज्योति शब्द का गंभीरता से विचार किये बिना , "ज्योतिष" के साथ सम्बन्ध जोड़कर स्वीकार करना आरम्भ कर दिया | ज्योतिष ​ विज्ञान का पहले के समय में असम में व्यापक प्रचलन था । कामरुप का कोइ इतिहास न जानने के कारण, इसे पौराणिक कथाओं से जोड़ा गया है, जो असम के साथ एक उपहास मात्र है | इतिहास की शुरुआत होती है, पौराणिक कथाओं, की नहीं | क्योंकि "पुराण-कथा" का अभिप्राय काल्पनिक कहानीयों से है |
इस महान ऋषि ने अपने क्षत्रीय-शरीर की प्रभामण्डल को ब्रह्म-शरीर की आभा में परिणत किया | और "सर्वोच्च प्रकाश" की दृष्टि पाकर​ "वेद-मंत्र-दृष्टा" हो गये | 'आकाश' से उन्होने विज्ञान के कई पक्षों की खोज की, और मानवता की प्रगति के लिए उपयोग किया । उन्होंने ही आकाश मे प्रक्षेपास्र भेजे | कृषि विज्ञान के आविष्कारक भी विश्वामित्र ही थे। कॉस्मिक रे से उन्होने कई पेड़ पौधों की प्रतीति की, जिसके फलस्वरूप सभी प्राणियों का अत्यंत  कल्याण हुआ | वृक्षों और वनस्पतियों  की कई प्रजातियों का अन्वेषण उनकी तपस्या का ही परिणाम है |

विश्वामित्र की गुफायें

समय बीतने के साथ, विश्वामित्र की कई गुफायें लुप्त हो  गयीं | वर्ष, १९६८ में, भृगु गिरि महराज ने हरिहर नर्मदेस्वर (मारकणडेय मुनि) के मार्गदर्शन और देखरेख में, विश्व को इस जगह से पुन: अवगत करवाया | उस समय यह स्थान​ यात्रा के लिए उपुक्त  नहीं था, और गुफाऐं भूमिगत थी | भृगु गिरि ने ५ गुफाओं को पुनःर्स्थापित किया, इनमें से तीन खंडहर बन गए | इनमे से एक बहुत बड़ा था, और उपयोग के लिए उपयुक्त था, लेकिन वह भी १०-१२ साल के अंतराल  वन मे पुनः लुप्त हो गया | अब, केवल दो ही गुफाओं का उपयोग किया जाता है।
सिद्धाश्रम से आधे किलोमीटर की दूरी पर नदी के तट पर  एक झरना है, जहां महामुनि गौतम  का आश्रम था । विश्वामित्र की उत्तरी दिशा में पानी की धारा के साथ दुर्जय पर्वत है और इस के मध्य भाग में "हातिलोतन​" स्थित है। इस हातिलोतन मे एक विशाल दलदली झील है | भृगु ऋषि की संतान मारकणडेय, और्ब, मृकंड और शुक्राचार्य आदि की असंख्य तपोभूमि इस झील के किनारे थी | यह हातिलोतन हाथियों के लिए संभोग की जगह थी । इस से आगे वराह पर्वत, नरक की उत्तरवर्ती राजधानी थी |


भीमाशंकर का उद्भवन

पुराणों के विभिन्न कथाओं के अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भगवान भीमाशंकर की उत्पत्ति त्रेता युग के मध्य भाग में हुई थी । वेद के दर्शन "सत्य युग" के मध्य भाग से "त्रेता युग" के आरंभ तक हुए थे | राजर्षि दशानन उस समय मायापुर (मयोंग) के शासक थे | भीमासुर का जन्म दशानन के छोटे भाई कुंभकर्ण के वीर्य  से  कर्कटी के गर्भ में हुआ | वे  क्षत्रिय जाति के थे और सह्य पर्वत में रहते थे। दशरथ के पुत्र श्री राम द्वारा कुंभकर्ण के वध के पश्चात कर्कटी ने अपने पुत्र के साथ वहां रहना आरंभ कर दिया ।

बड़े होनेपर एक दिन भीम ने अपनी माँ से अपने पिता के बारे में पूछा? वे कौन थे और कहाँ रहते थे ? कर्कटी ने दुखी स्वर में कहा, तुम्हारे पिता कुंभकर्ण, राजा रावण के छोटे भाई थे। वे मेरे पास केवल एक बार आये थे, राम ने उनका वध कर दिया | मैने तो लंका भी नहीं देखी है | मेरे पिता का नाम करकट और माता का नाम पुष्कसी था । मेरा विवाह विराध  से हुआ था | राम ने उनका भी वध कर दिया | मेरे पति की मृत्यु के पश्चात , मैं अपने पिता और मां के साथ रहने लगी | एक दिन मेरी माँ और पिता ने मुनि सुतीक्षन पर आक्रमण किया, पर उन्होंने क्रुद्ध होकर दोनों को भष्म कर दिया | तब से मैं अकेले हो गई, उस समय कुंभकर्ण मुझसे मिले और तुम्हारा जन्म हुआ |तुम्हारे जन्म के बाद, मैं यहाँ सिर्फ तुम्हारे लिए रहती हूं |
अपनी मां से यह सब सुनकर वह बहुत नाराज हो गया। वह सोचने लगा किस तरह हरि का अनिष्ठ किया जा सकता है | इस प्रकार सोच कर ,वह सहस्र वर्ष तक ब्रह्मा की तपस्या में लीन हो गया | एक पैर से उर्ध्वबाहू होकर, सूर्य की तरफ मुख कर ब्रह्मा की तपस्या की | इस कठिन तपस्या के फलस्वरूप भीम के सिर से निकले तेज पुंज से सारा जगत तपने लगा | आतुर देवताओं ने आकुल हो कर ब्रह्मा के चरणों में शरण ली और प्रार्थना किया | हे पितामह ! हम भीमासुर की घोर तपस्या से अत्यंत पीड़ित हो रहे हैं | अतः आप तुरंत ही उसे अपने इच्छित वरदान देकर देवताओं को विनष्टि से बचा लीजिये | देवताओं की प्रार्थना सुनकर, पितामह ब्रह्मा हंसारोहण हो भीम के समुख प्रकट होकर बोले: "भक्त! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं, जल्दी ही वर मांगो |" ब्रह्मा के वचन को सुनकर, भीम ने कहा, "हे कमलासन ! यदि आप मुझे वरदान देना चाहते हैं, तो, मुझे असीम शक्ति प्रदान करें"। इस प्रकार वह ब्रह्मा के पैरों शरणागत हुआ | ब्रह्मा ने विवश होकर उसे अतुलित बल का वरदान दिया | ब्रह्मा के वरदान से पागल होकर भीमासुर ने मनुष्यों और देवताओं को यातना देना आरंभ  कर दिया | सर्वप्रथम भीमासुर ने राजा कामरुपेस्वर को बंदी कर एक निर्जन स्थान में भेज दिया |

“ इत्युत्वा प्रथमं तत्र कामरूपेश्वरं  शुभं | ववध्द तरयामास  भीमो भीम पराक्रम ||”

अत्यधिक, समर्पित राजा, पत्नी दक्षिणा के साथ पृथक स्थान पर भक्ति के साथ स्नान कर तथा शिव लिंग स्थापित कर एकचित्त होकर शुद्ध भावना से पूजा करने लगे | दूसरी ओर, भीमासुर ने देवताओं पर आक्रमण कर उनका भी राज्य छीन लिया |अपने राज्य से विस्थापित देवताओं ने नदी महाकोशी के तट पर देवाधिदेव महेश्वर की पूजा आरंभ कर दी | ऋषियों और देवताओं के आह्वान से प्रसन्न होकर देवाधिदेव महेश्वर प्रकट होकर कहा; मैं तुम्हारी तपस्या से संतुष्ट हूँ, अपने वांछित वरदान मांगो | देवताओं और ऋषियों ने भीमासुर की कहानी सुनाकर परित्राण के लिए उनके शरणागत हुए |
देवाधिदेव शिव ने कहा, भीमासुर ने न केवल आप देवताओं को परन्तु मेरे प्यारे भक्त कामरुपेश्वर को भी बंदी बना रखा है | अतः इस सन्दर्भ में जो कुछ भी करना है वह मुझे ही करना होगा, आप निर्भय होकर वापस लौट जाओ। यह कहकर प्रथम गण (गणेश) को साथ लेकर कष्ट निवारक कल्याणकारी शिव ने प्रस्थान किया | इस बीच, भीम के सेवकों ने, राजा (कामरुपेस्वर) के शिव की आराधना की सूचना दी |

“एतस्मिननंतरे तत्र कामरुपेश्व् रेण च | अत्यन्तं ध्यान मारध्वमं पार्थीववस्य पूरस्तदा||
केशि्चश्च तत्र गत्वा राक्षसाय निवेदितम | राजा किंचित करोत्येवं  त्वदर्थे राक्षसोत्तं |
अभिचारं करोति वै यथेच्चसि तथा कुरु ||”
"हे महान राजा! राजा कामरूप ने पार्थिव 'शिव लिंग' स्थापित कर आपके अभिचार के लिए पूजा में लीन है । इसलिए, कृपया जो भी उचित है आप कर सकते हैं।
यह सुनकर भीमासुर क्रोध से व्यथित होकर अपने सैनिकों के साथ राजा (कामरुपेश्वर) को मारने के लिए जेल की ओर प्रस्थान किया | उन्होंने राजा को शिव पूजा में लीन देखकर क्रोधित होकर बोला; राजन यह सब क्या हो रहा है, सत्य बताओ वरना तुम्हारा वध कर देंगे | राजा कामरुपेस्वर शिव पूजा में इतने लीन थे कि अविचलित भाव से बोले मै इस पार्थिव लिंंग में शिव की अराधना कर रहा हूं | इस लिंग में साक्षात शिव निवास कर पूजा ग्रहण कर रहे हैंं | लेकिन क्योंकि मैं अति हीन व्यक्ति होने के कारण उन्होंने अभी तक मेरा कल्याण नहीं किया | परन्तु वे अपने भक्तो को उत्पीड़न करने वालों का वध कर रक्षा करने के लिए वचनबद्ध हैं | अतः मैं उनकी आराधना कर रहा हूं | अब आप जो उचित लगे कर सकते हैं |

राजा की बात सुनकर भीमासुर अट्टहास कर कहने लगा ; मैं शंकर को भली भांती जनता हूं, मेरे पिता के अग्रज दशानन ने शंकर को किंकेर की तरह अपने महल में रखा था | उस शंकर की शक्ति से तुम मुझ पर विजय पाना चाहते हो, क्या तुम पेड़ की खोह में कछुए का अंडा खोज रहे हो | जब तक तुम्हारे प्रतिपालक शंकर के साथ मेरा सामना नही होता, तुम्हारा भ्रम दूर नहीं होगा |

भीम की अभिमान युक्त बात सुनकर राजा बोले, राक्षसराज शंकर को तुच्छ समझकर क्या मैं यहाँ से हटा सकूँगा | वे तो महान हैं मेरा  कभी भी त्याग नहीं करेंगे | भीम राजा की बातों पर जोर से हँसा और बोला ; "अपने राज्य को खोने के बाद जिस तरह से तुम भिखारी बन गए हो, पागल भी  हो गए हो , उसी तरह तुम्हारा शंकर भी नशे में उन्मत्त है "| शंकर अत्यधिक सांसारिक है, वह अपने ही उदरपूर्ति के लिए भिक्षा का झोला लेकर घूमता है | उसे 'योगतत्त्व' का क्या ज्ञान है ? यदि तुम्हारे कल्याण की उसमे क्षमता थी, तो आज तुम्हारी यह दयनीय स्थिति न होती | फिर भी, तुम्हारा भ्रम दूर नहीं हुआ है। इसलिए, तुम्हारे प्रभु के साथ-साथ तुम्हारा भ्रम भी मिटा दूंगा और दुनिया को भविष्य में भ्रम से मुक्त कर दूंगा | इस प्रकार कहकर, महान शक्तिशाली भीमासुर ने राजा पर प्राण घातक अस्त्र से प्रहार किया । उसी मुहुर्त पृथ्वी एक प्रलयंकारी गर्जना से अन्धकारमय हो गया, और उस पार्थिव लिंग से सहस्र सूर्य के समान दिव्य ज्योति रूप में रूद्र देव का आविर्भाव हुआ | रूद्रदेव ने कहा "मैं ‘हंस मंत्र’ की रक्षा के लिए भीमाशंकर के रूप में अवतरित हुआ हूँ । अपने भक्तो की रक्षा करना मेरी प्रतिज्ञा है |

तावच्च पर्थिवात तस्मादविरास स्वयं हर:| पश्य भिमेश्वरोहहेस रक्षार्थ प्रकाट्यँहम  ||
इस प्रकार कहकर, जगत हरण कारी रुद्रदेव भीम के निक्षेपित अस्त्रों को खंडित कर दिया। रुद्रदेव और भीम के बीच भीषण युध्य आरंभ हुआ | युध्य की विभीषिका को देखकर देवतागण विस्मित हुए | कुपित रुद्रदेव के भार से असहनीय दिगपाल गण त्राहि त्राहि करने लगे | पृथ्वी व्याकुल हो गई, समुद्र, पर्वत, ग्रह, नक्षत्र सभी क्षोभित हुए |  ब्रह्मादि देवतागण प्रमाद मनाने लगे | सभी व्याकुल होकर नारद के पास सहायता के लिए पहुंचे | देवतओं के आग्रह पर नारद युद्ध स्थल पर पहुंचकर रुद्रदेव से बोले; लोगों को भ्रम में डालने वाले महेश्वर ! मेरे नाथ ! आप क्षमा करे , क्षमा करे | तिनके को काटने के लिए कुल्हाड़ा चलाने की क्या आवश्यकता है | कृपया शीघ्र ही इसका संहार कीजिए | नारद की प्रार्थना सुनते ही रुद्रदेव ने हुंकार मात्र से भीमासुर और समस्त राक्षसों को भस्म कर दिया | राक्षसों के वध के पश्चात भी रुद्रदेव शांत नहीं हुए और उनके क्रोध की ज्वाला सारे जंगलो में फैलकर ओषधिय वृक्षों में परिणित हुई | इन पौधों को भूत-प्रेतों से निवारण और विभिन्न रोगों के समाधान के लिए उपयोग किया जाता है |

प्रार्थित: शम्भू शांति समाधी गच्छवै | स्थातवं स्वमिना ह्यत्र लोकानां सुख हेतवे ||
अयम् वै कुतिस्तो देश: औषध्यो लोक दुःखदा | भवन्तंच तदा दृष्ट: कल्याणं सम्भविष्यति ||
भिमाशंकरानाम त्वं भविता सर्वसाधक | इतयेवं प्रथि्रत: शम्भू स्तत्रैव स्थितवांस्तदा ||  
रुद्रदेव के क्रोध से चराचर जगत आतंकित हुए | देवतओं और ऋषियों ने प्रार्थना की कि “आप यहाँ लोगों को सुख देने के लिए सदा निवास करे | यह देश निन्दित माना गया है | यहाँ आने वाले लोगों को प्राय: दुःख प्राप्त होता है | आपका दर्शन मात्र से सबका कल्याण होगा | आप भीमाशंकर के नाम से विख्यात होंगे और सबके सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध होंगे | आपका यह ज्योतिर्लिंग सदा पूजनीय और समस्त आपत्तियों का निवारण करनेवाला होगा | सभी देवी-देवताओं के अनुरोध पर "हेरुक" का नाम "भीमासुर के विध्वसंक" के रुप में "भीमाशंकर" पड़ा ।

देवतओं का उद्योग देखकर महाकाल रुद्रदेव का क्षोभ शांत हुआ और ज्योतिर्लिंग के रूप में रहने लगे | अकाल मृत्युमोचंकारी रुद्रदेव की पूजा करके मानव अकाल मृत्यु और कुष्टादी सभी रोगों से मुक्ति पा सकते हैं | दही मधु धी मिश्रण द्वारा रुद्रदेव का अभिषेक करके तथा उन्ही के स्वरुप महाकाल को दुग्ध स्नान कराके बलिदान से मनुष्य दुर्भाग्य और दु:साध्य रोगों से मुक्त हो सकता है |

महादेवी कामख्या दर्शन कर उर्वर्शी में स्नानन्तरे, उमा भैरव सेवन करते हुए कांता के महाकुंड में स्नान करके पंच्योनी (पंचकन्या ) और हरुकेश्वर (भीमाशंकर ) ज्योतिर्लिंग के पूजन का विधान है |  ततपश्चात संध्या के अमृत कुंड में स्नान करके महामुनि वशिष्ठ देव का दर्शन करते हुए भगवान पर्वत में अरुंधती गुफा में विष्णु देव का दर्शन कर अक्षयपुण्य अर्जन कर सकते है | भैरव मंत्र से भीमाशंकर हरुकेश्वर के पूजा का विधान है | त्रिपुरवाला या कामेश्वरी मंत्र से पंच योनी की पूजा का विधान तंत्र ने किया है |

त्रिपुरायास्तु तंत्रेण ता: पूज्या साधकोत्त्मै | कामेश्वरी तन्त्र मंत्रैरथवा पूजयेत शिवाम ||
भैरवस्य तु मंत्रपेण पूजयित्वा दिव्यं व्रजेत | निर्माल्य धारिणी देवी चंडगौरिति  कीर्तिता ||

देवतओं की प्रार्थना सुनकर विश्वात्मा हरेश्वर रुद्रदेव संतुष्ट हुए और क्षोभ त्यागकर शांत होकर इस स्थान में लिंग रूप में प्रतिष्ठित हुए और इन्द्रादि देवगण अपने अपने स्थान पर आसीत हुए | जगत संहारक प्रभु के क्षोभ के कारण इस स्थान को क्षोभक के रूप में नामित किया गया | दुःख हरण कारी रूद्र का नाम हरक या हेरुक नाम से प्रसिद्ध हुआ | 'ह' का अर्थ है 'आकाश' जो भीम स्वरूप विशाल है, इसलिए अष्ट मूर्तियों की अराधना “ ॐ भीमाय आकशमुर्तये नम:” ​मंत्र से की जाती है | 'हरि' द्वारा पोषित माया और दुखमय संसार से, जीव का हरण कर मुक्ति प्रदान कारी हर ही हेरुक के नाम से जाना जाता है | वही महाकाल हर है | उनका व्योम (शून्य) रूप आकाश ही शब्द स्वरूप,स्वर है, ओंकार ब्रह्म है, पूर्ण है, हम उन्हें ही ईश्वर (ई + स्वर ) कहते हैं |
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते | पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥

पंचकन्या धाम का उद्भव

भगवान और दुर्जय पर्वत के बीच डाकिनी पर्वत एक कम ऊंचाई का समतल क्षेत्र है | इस पहाड़ी क्षेत्र में, जब एक लंबे समय तक चली लड़ाई के बाद, भीमासुर की मौत हो गई | रुद्रदेव​ इतने उत्तेजित हो गये कि उनके  क्रोधाग्नि (क्षोभ) की ज्वालाओं से पूरे पर्वत का विध्वंस होने लगा | सभी दिशाओं के  देवी देवता  भी पीड़ित होने लगे, तब उन्होंने देवी कामाक्षी से अनुरोध किया | देवी कामाक्षी ने अपने पांच शक्तियों के साथ मिलकर हरुकेश्वर​ की सेवा के लिए अपने कुंवारी रूप “पंचयोनी” की स्थापना की | हेमाद्रि नंदनी भगवती दुर्गा रूद्र रूपा  देवाधिदेव भीमाशंकर की सेवा के लिए कुमारी पञ्चरूपा पंचकन्या हैं | ये योगिनियां उग्र शक्तियों से संपन्न हैं
पञ्च पुष्करिणी देव्याः पञ्च योनी स्वरूपिनी |
पंचभि दुर्गा योनिभि:पूजयते पंचवक्त्रकम | स्थिता रमयितं तत्र नित्यमेव हिमाद्रिजा ||
उग्रचंडा, प्रचंडा च् ​ चन्दोग्रा, चन्दनाइका | चन्दाचेती च् योगिन्या: पंचाया: परिकीर्तिता: ||

पचंयोनी का पंचकन्या व्यक्त नाम​ है जो देवी-देवताओं के अनुरोध पर आकर​ पंचवक्त्र रुद्र (भीमाशंकर) के क्रोध ("क्षोभ") को शांत करने के दिव्य कार्य को पूरा किया। हिमाद्रि नन्दिनी (श्री श्री कामाक्षी) सती के ५१ शक्ति पीठ,  जो विष्णु के चक्र द्वारा खन्डित होकर ५१  स्थानों में बिखरे हुए थे, उसीके योनि के भाग से प्रकासित​ श्री श्री कामाक्षी देवी है, इनका ही कुँवारी रुप देवी-देवताओं के अनुरोध पर श्री श्री भीमाशंकर के क्षोभ को शांत करने के लिए आयी थी | परन्तु देवी-देवताओं और भीमाशंकर की उत्सुकता के कारण , वहाँ रह कर​ उनकी सेवा करना आरंभ कर दिया। वक्त्र शब्द काअर्थ मुंह है और मुंह जिससे नाद उत्पन्न होता है, जो  ब्रह्म है, और सृष्टि का 'बीज' है | पंचवक्त्र महादेव के पांच मुंह से सृष्टि के सृजन के लिए नाद​ निकलता है | पूरी सृष्टि की अभिव्यक्ति माँ की "योनि" के माध्यम से हुइ है। यही कारण है कि पंचयोनी को भृगु गिरी के द्वारा पंचकन्या नाम दिया गया |

इस प्रकार से ३३ कोटि देवता रुद्रदेव को केन्द्रित होकर क्षोभक पर्वत पर विराजमान हुए | रुद्रदेव के आदेश से ‘सरिद्वारा’ गंगा नीलग्रीव के जटाओ से निकलकर कांता बनकर बहने लगी | देवताओं ने दैनिक स्नान के लिए वहाँ एक दिव्य कुंड की स्थापना की। इस कुंड में स्नान कर देवी पूजन से मानव योनिभोग (जन्म) से मुक्त हो जाता है |
तच्चैल पुर्वभागेतु कन्ता नाम महानदी । दक्षिणं सागरं यान्ति प्रथमं चोत्रबस्रवा ॥
दिव्यं कुण्डं महाकुंडं तच्छैलोपत्यकाक्षितो | सस्थितं तत्र स्नात्वा तु तां देवी परिपूजयते ||
दिव्य कुंडे नरः स्नात्वा पञ्च पुष्कर्णी शिवाम् | यः पुजयेन्ममहाभागः स योनौ नहीं जायते ||
कन्तायां सलिले स्नात्वा वसन्ते मानवोत्तमः | रूपवान गुणवान भुत्वा शिव्लोकाय गच्छति  ||
श्री श्री भीमेश्वर (शिव) और वराह पर्वत
भीमाशंकर और भीमासुर के युद्ध में, भीमाशंकर  की क्रोधाग्नि की ज्वाला से भीमासुर का पर्वत शहर भी नष्ट हो गया | पामोहि में स्थित भीमेश्वर इसी ज्याला का स्वरुप है , और आज भी, " भीमेश्वर " के रूप में पूजी जाती है।
"वराह पर्वत" में "भीमेश्वर", जो दुर्जय पर्वत के उत्तर-पश्चिमी दिशा में स्थित है। गढ़भंगा और रानी पश्चिम में, तथा ब्रह्मपुत्र नदी उत्तर में है | नीलांचल​ पर्वत भी वराह पर्वत का एक हिस्सा है। इस वराह पर्वत में ही "वराह अवतार" हुए। इस वराह पर्वत में राजर्षि सीरध्वज ने अपने राज्य की स्थापना की, और भगवान वराह की पूजा की | सीरध्वज के पहले भीमासुर ने इस वराह पर्वत में तपस्या किया, और महान पराक्रम का वरदान प्राप्त किया, और वहाँ अपनी राजधानी की स्थापना की | वर्तमान पामोही गाँव​ के ऊपरी भाग में, भीमासुर की राजधानी थी | वहां से कुछ दूरी पर, जो लोग प्रभु वराह की पूजा करते थे, एक शहर है जो वराह नगर के रूप में नामित किया गया | अब, यह​ विकृति होकर​ "बोरागाँव​" बन गया है |

नरकासुर का साम्राज्य

भीमासुर के कुछ सैकड़ों वर्षों के बाद, राजा सीर​ध्वज जो आर्यावर्त (उत्तरी भारतीय उपमहावेश  का ऐतिहासिक नाम) से आये और वराह पर्वत में अपनी राजधानी स्थापित की | राजर्षि नरक, सीर​ध्वज के पुत्र कामरूप में ही पैदा हुए थे | उन्होंने राजधानी का और विस्तार किया जो दुर्जय, डाकिनी और वराह पर्वत के बीच थी |
नरक ने राजधानी प्रागज्योतिषपुर की शत्रुओं से सुरक्षा के लिए किलों का निर्माण करवाया | नवग्रह  पर्वत से चाँदमारी (चित्राचल) तक​ प्रागज्योतिषपुर के तीन प्राचीन किले थे, जिसके अवशेष, संकेत के रूप में, अभी भी विद्यमान हैं,
१) राजगढ़,
२) राधा गोविंदा बरुआ पथ (आरजीबी रोड) और
३) सर्वोदय आश्रम कॉमर्स कॉलेज के पीछे जो किले के मेंड़ के साथ स्थित है जहां से यह बोरपथार मेंतंगा तक जाता है। पश्चिम दिशा में यह गढ़ रानीखात​ के पश्चिमी में, लोहारघाट​ से अज़रा होकर गढ़ल में समाप्त होता है | "गाड़ीगाँव​" (किले पर होने के कारण, "गढ़" से "गढ़गाँव" हो गया और तदनंदर वर्तमान गारिगाँव बन गया) | आमबारी फ़तासिल​ से धीरेनपारा और गोरसुक​ के माध्यम से पामोही के पास वराह पर्वत के साथ शामिल हो जाता है | तीन किलों ("गढ़") से एक,चाँदमारी के चित्राचल से वर्तमान मेंडिकल कॉलेज के नरकासुर पहाड़ी पर समाप्त होता है, और शेष दो किलों से ,एक किला बारपथार पर समाप्त होता है। तीसरा किला गनेशगुड़ी से हाटीगाँव​ और घोरामारा के माध्यम से पूर्वी दिशा में नारबाम होते हुये वर्तमान राजमार्ग (एनएच ३७) तक पहुँच जाता है | और इसको पार कर​ गेम विलेज​ (खेल गांव) और गोकुल गौशाला के माध्यम से वन कार्यालय के साथ वशिष्ठ मंदिर के बाईं ओर में, दुर्जय पर्वत पर और गढ़भंगा पर समाप्त होता है | यही कारण है कि यह किला (गढ़) की निरंतरता दो पर्वत के बीच में गहरी खाइ के कारण​ टूट गया है (भंगा), दोनों पक्षों पर खाइ के कारण किले की निरंतरता के खत्म होने से "गढ़भंगा" कहलाता है, यह नाम ( "गढ़भंगा") आज तक​ प्रचलित है, और  यही प्रागज्योतिषपुर है।

रानी

उन्होंने समुद्र के किनारे, पहाड़ी घाटी के नीचे (दीपोरबील​, जो लोहित सागर का एक हिस्सा था) रानी तक पहुँचने के लिए एक मार्ग  का निर्माण करवाया | रानी (गाँव) में, उन्होंने रानियों  के लिए महलों का निर्माण करवाया, और  वह​ एक वैकल्पिक राजधानी की तरह बन गया, जो रानीखात के रूप में जाना जाता है | नरक की १६ सौ रानियां वहीं रहती थी | वराह पर्वत से, गढ़भंगा तक पहाड़ियों के रास्ते एक और मार्ग था | यह एक छोटा मार्ग था, लेकिन पहाड़ी इलाके के कारण, हाथी और घोड़ों का उपयोग किया जाता था | नरकासुर के समय में, भीमाशंकर और भीमेश्वर दोनों स्थानों में पूजा होती थी |

धार्मिक समन्वय

नरक प्रारंभ में एक वैष्णव था, भगवान वराह के आदेश पर उन्होंने शक्ति की पूजा आरंभ कर दी, और देवी कामाख्या (कामाक्क्षी ) को जागृत किया | राजर्षि सीरध्वज ब्राह्मण कुल के थे, लेकिन राजकीय प्रशासनिक कार्य करने के कारण, उनकी आभा (वर्ण) क्षत्रीय हो गयी | तिब्बत से लाह्सा निवासी "कंचगिरी" (कंचनजंगा) में स्थानीय निवासियों के साथ मिश्रित होकर​ भारतीय-तिब्बती समुदाय का गठन हुआ | वे नीचे घाटी में आये, और गोल्डन सिरी की ओर लोहित सागर के उत्तरी किनारे में फैल गये | और धीरे-धीरे पूरे असम में फ़ैल गये |
राजर्षि नरक ने इस वंश के राजा कीराट राज घटक के साथ मित्रता कर "शक्ति" और "शिव" के बीच पारस्परिक संबंध स्थापित किया, और एक अविभाजित कामरूप की स्थापना की और किरात के इष्टदेव​ महादेव, की पूजा आरंभ कर दी | नरक ने किरात के साथ 'आर्यधर्म' संयुक्त करके शिव और शक्ति की अविभाज्य पूजा का प्रचलन किया | इसके परिणाम स्वरूप "पंच देवता" का संबंध आर्य धर्म के साथ साधना के लिए जुड़ गया |
असम की भाषा इन ऋषियों की वाणी से उत्पन्न हुआ था। आर्यन भाषा के प्रभाव, आर्य धर्म और संस्कृति का विस्तार हुआ, और अपनी संस्कृति का उदार चरित्र "वसुधैव कुटुम्बकम" “आसमान”  और संपूर्ण विश्व में फैल गया | नरक द्वैत साधक​ था, प्रकृति- पुरुष​  की साधना से 'हरि-हर' की भावना को परमेश्वर के साथ जोड़ा |
कन्दली पर्वत के लोग ऋषियों साथ मिल गये थे | वे ब्राह्मण वर्ण के थे ("क" वर्ण) उनके परिवारों को "कार्बी" नाम से जाना जाता है। दीमासा भी इन्ही के वंशज थे, जन्यन्ती और नागा कुल की कन्यायें  भी आर्यन मूल के थे |
"कली" युग की शुरुआत में कुछ अर्ध​ ज्ञानी साधकों ने  वैष्णव, शैव, शक्ति आदि आध्यात्मिक साधनाओं  का विभाजन​ किया और सनातन धर्म में कट्टरपंथी दृष्टिकोण बनाया | इस तथ्य की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है - कि मतांतर जो, अज्ञानता और गिरावट की अभिव्यक्ति थी, नरक की “एकता और सत्य साधना” की परंपरा से विच्छिन्न हो गया |

कृषि का विकाश

नरक ने जुताई सबसे पहले, मानव द्वारा, फिर, हाथी द्वारा और आखिरी में बैल द्वारा कृषि की प्रक्रियाओं को प्रचलित किया था | नरक ने कामरूप में सड़कों के किनारे पर औद्यानिकी, वृक्षारोपण का काम बैलों द्वारा परिचालित किया था । असम में कृषि का प्रचलन नरक ने किया था |

भृगु संहिता की स्थापना

एक परिसंवाद में, चर्चा  का विषय था "ब्रह्मा, विष्णु और महेश में सहनशीलता में सर्वश्रेष्ठ कौन​ है?"| चर्चा में, एक सर्वसम्मत निर्णय पर न पहुंचने पर​ वे क्षोभक पर्वत आये और सप्तऋषि भृगु से पूछा | जिन्होने तीन दिन का समय लिया और पहले ब्रह्मा के पास गये, जहां ब्रह्मा ने विभिन्न कार्यरतता दिखा कर, अलविदा कर दिया | फिर, वे महेश के पास गये, जब महेश ने भी बहाने बना कर उनके प्रस्ताव का कोई समाधान नहीं दिया | अन्त में वे विष्णु के पास गये , जो "अनंत" की गोद में सो रहे थे। ऋषि ने जब​ विष्णु को जगाने की कोशिश की, और जगाने में विफल होकर , क्रोध में उन्होने विष्णु की छाती पर लात मारी, लेकिन, विष्णु, सम्मान और प्यार के साथ, उठ गये और ऋषि के पैर छुए, और उन्हें हल्का दबाते हुए इस प्रकार कहना आरंभ कर दिया: हे "पिता तुल्य ! आप​ निश्चित रूप से मेंरी चट्टान की तरह छाती में लात मार कर​ अपने फूल के समान नरम पैर में कष्ट का अनुभव कर रहे होगें | इस प्रकार कहते हुए, उन्होने ऋषि के पैर दबाना आरंभ कर दिया। यह देखकर, देवी लक्ष्मी, जो पास बैठी हुई थी क्रोध के साथ उद्विग्न हो गयी और महर्षि को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा: नारायण मेरे स्वामी और गुरु है। जो गुरु का अपमान करे, उसके अंगों को काट देना चाहिए, यह शास्त्र का नियम है, परंतु आप मेंरे पिता हैं, यही कारण है कि ऐसा नहीं किया जा सकता है, फिर भी, गुरु का अपमान कभी क्षमा के योग्य नहीं है | मै आपको श्राप देती हूँ, आपका कुल  हमेशा दरिद्र होगा, मैं आपके कुल  के किसी भी घर में प्रवेश नहीं करुगीं | महर्षि, लक्ष्मी की बातों पर कोई टिप्पणी दिये बिना वंहा से लौट आये | रात में, ज्योतिष विज्ञान की मदद से ३३ "कोटि "देवता" (सूक्ष्म सार्वभौमिक ऊर्जा) को आकर्षित किया | इस तरह  एक अनुशासित सद्‍भाव, "संहिता" बनाया, और उस में सभी आत्माओं को परिबंध किया, यही भृगु संहिता है।
अगले दिन, वे नारायण के पास गये और कहा, "नारायण, कल मैने आपको लात मारी थी , जो उचित नहीं है। इसका फल तो भोगना ही पड़ेगा | मेरे इस दुष्कर्म का प्रायश्चित  केवल तपस्या है | नारायण बोले, निश्चित रूप से आपका कथन​ औचित्यपूर्ण है, आप मृगचर्म आसन लेकर हिमालय की ओर प्रस्थान करिए | जहाँ कहीं भी वह मृगचर्म गिर जाये, वहीं आपको तपस्या आरम्भ करना चाहिए, समय आपको इसकी पूर्वसूचना देंगे | गंगा नदी के तट​ पर, उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में मृगचर्म आसन हाथ से गिर गया, और वहीं ऋषि ने तपस्या कर शरीर से मुक्त हो गये | आज भी वह जगह "भृगु क्षेत्र" के नाम से प्रसिद्ध है। वर्ष, १९८० के फरवरी की १६ तारीख को, पूर्ण सूर्यग्रहण के समय​, भृगु की आत्मा, भृगु गिरि के शरीर में प्रवेश कर गइ, और अंतिम-जागृति के लिए, "अकाल बोधन-यज्ञ" वैदिक अनुष्ठान करने से,सभी देवता, जो अतीत में ५००० वर्ष तक निष्क्रिय किए गए थे, जगाया और सार्वभौमिक गतिविधियों के प्रबंधन करने के लिए स्वतंत्र किए गए | उस समय से हर वर्ष फरवरी (माघ / फ़ाल्गुन​ ) शुक्ल-प्रतिपदा से नौ दिवसीय "अकाल बोधन यज्ञ " मनाया जाता है | अन्य सभी पंचकन्या धाम में, दार्जिलिंग और कोलकाता में भी इस उत्सव को नियमित रूप से मनाया जाता है।

नरसिंह क्षेत्र, कपिली और कामरूप

इनमें, कपिली और त्रिवेणी (संध्या-ललिता-कांता) विशेष रूप से अलंकृत हैं | गंगा की तरह - कपिली, "ब्रह्मबील​" (ब्रह्मझील​) से निकलकर​, लोहित सागर में गिरती है | क​ "का" अर्थ है "ब्रह्म" और "पिल" या "बिल​" का अर्थ है "छोटे छेद"। कपिली नदी के तट पर, तपस्वी तपस्या करते थे । क्योंकि, साधकों की सभी इच्छाऐं गंगा (कपिली) के तट पर बैठ कर पूरी हो जाती थी, इस जगह का नाम​ कामरूप पड़ा अर्थात जंहा सभी कामनाये पूरी हों | कपिली के पूर्वी तट के साधको की कमना पूर्ण होने के कारण कामपुर और पश्चिमी तट के साधको की कामनाये वास्तव रूप में परिग्रहण करने के कारण कामरूप कहते थे | कामपुर एक छोटा नगर के रूप में आज भी विद्यमान है |
कपिली के पूर्वी दिशा में "ब्रह्मपुर राज्य" था और उसके राजा  राजर्षि कुशध्वज, जो कामरूप के सीरध्वज के भाई थे । कुशध्वज के पुत्र हंसध्वज और उनके पुत्र सुरथ और सुधन्ना थे, जिनकी कथा महाभारत में आती है | युधिष्ठिर के यज्ञ के अश्व को बन्दी बनाने से दोनो पुत्रो की मृत्यु के पश्चात राजा  हंसध्वज ने संन्यास ले लिया  , और ७५ बीघा (१९ एकड़) क्षेत्र में एक बड़ा सरोवर खुदवाया, जिसके तट में तपस्या में लीन हो ग​ए | इस महान सरोवर, जिसके के तट पर जिस वट वृक्ष के नीचे राजा हन्शध्वज ने तपस्या की थी, बाबा भृगु गिरि महाराज​ ने गणेश-यज्ञ करने के बाद एक मंदिर का निर्माण करवाया। चापनला से ३ किमी की दूरी पर , जियाजुरि चाय उद्यान ​,में अभी भी राजधानी के अवशेष शेष हैं | यह कहानी ५००० वर्ष पुरानी है | कपिली के पूर्वी तट पर​ , ब्रह्मपुर कुशध्वज के राज्य का नाम था। तत्पश्चात, यह बधरमपुरऔर आज यह एक बड़ा तहसील​, "बढ़मपुर​" का नाम है।

“कपिली” नरसिंह के केंद्र  पर, कपिली नदी के तट पर​ "ब्रह्मबील​"(ब्रह्मझील) एक​ अन्य पवित्र क्षेत्र था | कार्बी पर्वत की पहाड़ियों में से एक का नाम था "कंदली " पहाड़ी | ऋषि यंहा "कदोलि" या "कोल"(केले) की खेती करते थे, और यही कारण है, नाम कन्दली पर्वत पड़ा | सरस्वती नदियों से और कंदली  जल-प्रपात से, शुद्ध नदियां "सलिला" (चम्पमाला), "चम्पावती", नाम से नीचे आती है, जो नरसिंह क्षेत्र के मैदान से कपिली के रूप में बहती है और लोहित सागर में गिर जाती है | चम्पावती "सरयू" नदी की तरह है, समय के साथ तिरोहित होकर एक छोटे से नाले  के रूप में “चापानला" कहलाया । वहाँ से, एक छोटी सी धारा, "नोनोई" के नाम से बहती है और कपिली में मिलती है। चम्पावती नदी ब्रह्मपुर राज्य (बढ़मपुर) मे थी। चम्पावती के तट पर, राजर्षि हिरण्यकशिपु, प्रहलाद, बलि आदि सभी राजर्षियों ने तपस्या किया | यहीं, "नरसिंह” अवतार हुए | इस क्षेत्र के गुरू भृगु परिवार से थे। इस स्थान में भृगु ऋषि ने "मृत्युंजय" - मृत​संजीवनी के विज्ञान का अविष्कार  किया | हिरण्यकशिपु एक विशेष नाम नहीं है - यह पदवी "हिरण्य" का अर्थ है 'सोना' और "कशिपु" का अर्थ है परिधान | मृत्युंजय साधना सोने के माध्यम से पूरा किया जाता है | यही कारण है कि, कि राजर्षि सोने के धागे की कढ़ाई से किये वस्त्र पहनने के कारण हिरण्यकशिपु के नाम से जाने जाते थे |

'द्वैत गुरु' शुक्राचार्य के शिष्य १.५ क्विंंटल शिला का मृत्युंजय शिवलिंग स्थापित कर वहाँ साधना करते थे | समय के साथ वह भूमिगत हो गया और आसपास के पहाड़ों से आ रही मिट्टी से जमीन के ४४ फुट नीचे फुट चली गयी | "लिंग" भूमि के नीचे बढ़ती गयी और अब ५१ क्विंटल वजन का हो गया है | जहां बाबा भृगु गिरि एक "लिंग" के रूप में बहुत बड़े शिव मंदिर का निर्माण करवा रहे है, १२६ फुट ऊंचा यह इस संसार का सबसे बड़ा शिवलिंग होगा | सन​ २०१९ साल की एक शुभ घ​ड़ी में, वहाँ मृत्युंजय की पूजा की एक असाधर​ण ऐतिहासिक घटना होगी, जिसके पश्चात​ भक्तों के लिए यहाँ साधना सुलभ हो जाएगी | वह वर्ष धार्मिक क्रांति के आरम्भ के  रूप में मनाया जाएगा | इस धार्मिक क्रांति से लोगों दिलों में भक्ति की एक उच्च ज्वाला का उद्गम होगा यह बाबा का संकल्प है | इस मंदिर के निर्माण में उन सभी व्यक्तियों को, जिनका योग दान होगा , शिव के असीम अनुक्मपा के भागी होंगे  | यहां तक कि एक गरीब व्यक्ति यदि एक मिट्टी का ढेला भी ले जाता है, वह शिव के अनुग्रह का भागीदार होगा |

सनातन धर्म का माहात्य्म

पदार्थ एक प्रक्रिया के माध्यम से बनता है, और यही कारण है कि यह "प्रकृति" कहलाती है, जो आधुनिक विज्ञान द्वारा विभिन्न आयामों (लंबाई और चौड़ाई आदि) से परिभाषित किया जाता है। इस प्रकृति का “दैव्य रुप​” पंचयोनी, “पंचकन्या” है। सनातन धर्म के अनुयायी इस रचनात्मक शक्तियों के लिए ही देवी देवताओं को पूजते, जप, तप और यज्ञ करते हैं। तीन मुख्य देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश के नाम, तीन मुख्य रचनात्मक सिद्धांतों के लिए दिए गए हैं: निर्माण, अनुरक्षण और विनाश, और यही कारण है कि उनकी इस तत्व के रुप​ में पूजा की जाती है | लेकिन, पंचवक्त्र की साधना से "धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष" प्राप्ति होती है, और जीवन सरल हो जाता है | सनातन धर्म एक विश्वविद्यालय की तरह है, जंहा सभी संभव विषयों में विशेषज्ञता की जा सकती है |

मुक्ति की राह

“भीमाशंकर” नाम देवी-देवताओं द्वारा भीमासुर को मारने के बाद​ रखा गया था | हर या हेरुक, हरि   उनकी क्रिया शक्ति का नाम है, दोनों को एक रूप में "हरि-हर" नाम दिया गया है, जो पुरुष पहलू के प्रतीक​ है, पुराणों में इसे ही माधव कहा गया है |
"प्रकिति पुरुष दुयो नियन्ता माधव समस्तरे आत्मा हरि परम बान्धव"
"माधव" दोनों प्रकृति और पुरुष के नियंत्रक का अर्थ है, जो कि कार्यकारी ऊर्जा और साक्षी है | वे आत्मा के रूप में सभी के ह्रिदय में निवास कर रहे है, और सारे जगत के बन्धु बनकर कल्याणकारी गतिविधियां कर रहें हैं | "बंधन" का मतलब है शरीर के साथ बांधना, इस​ बंधन से शरीर को मुक्त करना ही "निर्वाण" या "मोक्ष है | इस मुक्ति ("मोक्ष") के लिए भक्ति की भावना से आस्तिक बुध्दि को विकसित करने की आवाशयकता है। इस भक्ति से उसे अपने अन्दर ही उस बन्धु (माधव​) के दर्शन होने लगते है, इसे  ज्ञान कहते है| ज्ञान के इस प्रादुर्भाव से भक्ति को पीछे छोड़ना पड़ता है, नहीं तो भक्ति शरीर रुपी माया की तरफ़ खींचती है, इसे  त्याग​ कहते है| बिना त्याग के  भक्ति का बोझ और माया, ब्र्ह्म से मिलने में बाधक होती है | त्याग के द्वारा हल्का होने से ही ब्रह्म से मिलन की मीलो लम्बी दूरी पूरी की जा सकती है |
विज्ञान प्रौद्योगिकी है ("तंत्र") निर्दिष्ट प्रक्रिया और उसमें पद्धति, लागू करने और ( 'कर्मकान्ड') के विभिन्न प्रक्रियाओं के माध्यम से क्रियान्वित करने से और ज्ञान के पूरा अनुभव होने के पश्चात उन्नति के अगले चरण ​"प्रज्ञान" सहज ही पहुंचा जा सकता है | प्रज्ञान पहुंचने के पश्चात ध्यान के सर्वोच्च शिखर​ "समाधि" में पंहुच​ सकते है | समाधि के इस संक्रमणकालीन चरण में, "जीव" और "ईश्वर" दोनों का अनुभव हो जाता है "दोनो हाथो में लडडू"। लेकिन याद रहे , इस आनंदित परिवर्तन को भी छोड़ना और परमतत्व​ में विलय होना ही न केवल​ शुभ और उचित है, लेकिन जितनी जल्दी उतना ही अच्छा है |

जीवन का उद्देश्य

ऋषियों के लिए, तपस्या का उद्देश्य न केवल "मोक्ष" या "ईश्वर" के साथ एकत्व होना था। तपस्या से आकाश, अधोलोक, समुद्र और उसके नीचे, आकाश के ऊपर अंतरिक्ष सभी को देखना और समझना और अंत में, अनन्त के साथ विलय होने के लिए काम करना था, इसी में मानव जीवन की सार्थकता और परिपूर्णता है। केवल दान​ ही मानव जीवन परम उदेश्य है। इस तरह से प्राचीन ऋषियों ने मानव जीवन का आनंद लिया |

दान का महत्व

ब्रह्मा ने सृष्टि के सर्जन के समय, देवता (सूक्ष्मतम मौलिक तत्त्व), दानव ( "अंबा" या अमीबा) से पूर्व मानव चरण तक ) और मानव ( प्लियो से मेगनन और सम्पूर्न मनुष्य तक) , उनके जीवन का उद्देश्य "द, द, द” कहकर अंतर्ध्यान हो गए | "द” के अर्थ पर चिंतन मनन कर, किसी भी निष्कर्ष पर न पहुंचने पर वे सभी ब्रह्मा के पास गये | ब्रह्मा ने "द" का अर्थ देवताओं के लिए है "दमन", क्योंकि उनकी बहुत कामनाऐं होती है, दानवों को अपनी क्रूरता का “दमन”, और मानवों को दान (क्योंकि वे बहुत स्वार्थी हैं) करना चाहिए । निष्काम दान मनुष्य के प्रगति एवं विकास के लिए और परब्रह्म को पाने का सर्वोच्च पथ है | ज्ञान और विज्ञान तो साधना से संभव है, पर मोक्ष बिना दान के नहीं | दान और सेवा सर्वोच्च तपस्या है , इसिलिये महात्मा गांधी कहते थे "जन सेवा मे मिलते प्यारे राम राम राम" | दान देने की सीमा, धन, संपत्ति, बुद्धि, ज्ञान, सेवा, और श्रम है," तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्"  (ई.वा. उपनिषद्) उच्चतम साधना है। जैसे जैसे भोग कम होती है, त्याग बढती है, त्याग और दान एक ही है, फ़िर भी दान की आवश्यकता है |

गुरु वशिष्ठ

राजा दशरथ के गुरु, वशिष्ठ, के छठे अवतार थे ।अपने पांचवें अवतार में वशिष्ठ "मन्त्र द्रष्टा", और वेद मन्त्रों के दर्शा थे | अपने सातवें और अन्तिम​ जन्म में, वशिष्ठ मुनि वीरभूमि में पन्चमुन्डी आसन पर बैठ कर तंत्र और श्री श्री तारा विद्या की साधना की और जीवन के अंतिम काल​ में सन्ध्याचल पर्वत पर​ तारा विद्या के माध्यम से महा विष्णु के साथ एकाकार​ हुये |
राम और नरक के बीच २१ पीढ़ियों का अंतर था | नरक के पिता, राजर्षि सीरध्वज यथार्थ में "जनक" थे | अयोध्या के 'जनक' और कामरूप के राजा जनक के बीच​ भी २१ पीढ़ियों का अंतर था | इसी तरह, "दशरथ के गुरु वशिष्ठ" और "संध्याचल के वशिष्ठ के बीच भी कम से कम १-१.५ हजार वर्षों का अंतर था | संध्याचल के वशिष्ठ का सातवां और अन्तिम जन्म था | इस जन्म में उन्होनें "तारा" के माध्यम से साधना की| "तारा-तंत्र" सीखने के लिए, वे तिब्बत गये | लौटने के बाद, वे बंगाल गये और "वीराचार " और "पंच मुंडी" की साधना की | जिस​ जगह वशिष्ठ ने वीराचार साधना (तारा-तंत्र) की तथा "तारापीठ​" स्थापित किया, वह "वीरभूमि" कहलाया जो आज एक जिला है | लेकिन कामाख्या लौटने पर नरकासुर ने उन्हे जगह नहीं दी  | अंत में, संध्याचल पर्वत में तारा साधना से, संध्या, कांता और ललिता को आह्वान कर एक जल कुंड का निर्माण  किया | वे उत्तरी हिमालय में भी तपस्या कर सकते थे जहां गंगा और सिंधु की तरह पवित्र-नदियां हैं | लेकिन वहाँ सभी नदियां दक्षिण की ओर बह रही हैं | कामरूप मे सभी छोटी-बड़ी धाराओं का बहाव उत्तरी है, इसीलिये ये सभी गंगा के समान हैं | वशिष्ठ का त्रिवेणी प्रयाग के त्रिवेणी (गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों के संगम ) की अपेक्षा में कंही से कम नहीं है।

पंचकन्या धाम में श्री भीमाशंकर की पूजा :

दैनिक पूजा और दैनिक अभिषेक से विभिन्न रोगों और गरीबी से मुक्ति मिलती है | यदि कोई गणेश, काल भैरव, पंचकन्या और भीमाशंकर की पूजा (१/४ किलो) दही, ५ "तोला " घी और शहद, से स्नान कराता है उसे सभी वांछित फल प्राप्त होता है | हर कृष्ण पक्ष के चतुर्दशी संध्या में, विशेष पूजा और अभिषेक होती है |

महाशिवरात्रि को व्रत रखकर जो भीमाशंकर का पूजन करते हैं उनक समस्त दुःखो का नाश और सभी मनोकामनाए पूरी होती हैं | शिवरात्रि में चार प्रहार पूजा और अभिषेक दिन और रात में होती है |

पंचकन्या धाम के वार्षिक पूजा और यज्ञ

  1. बैशाख (१५ अप्रैल - १५ मई ) अक्षय तृतीया
  2. जेष्ठ (१५ मई से जून 15) बुद्ध पूर्णिमा उमा चतुर्थी
  3. आषाढ़ (जून १५ से १५ जुलाई) अम्बुबाशी
  4. श्रावण (१५ जुलाई से १५ अगस्त ) गुरु पूर्णिमा से राखी पूर्णिमा तक श्री श्री रुद्र यज्ञ और संक्रांति मनसा पूजा
  5. भादों (अगस्त १५ से सितंबर १५ ) सौभाग्य चतुर्थी (गणेश पूजा) जन्माष्टमी
  6. आश्विन (सितम्बर १५ से अक्तूबर १५ ) श्री श्री दुर्गा उत्सव, वार्षिक शिव चतुर्दशी और लक्ष्मी पूजा
  7. कार्तिक (अक्टूबर १५ से नवंबर १५ ) विष्णु यज्ञ दीप अनंता
  8. माघ (१५ जनवरी से १५ फरवरी) गणेश चतुर्थी, सरस्वती पूजा
  9. फाल्गुन (फरवरी १५ से मार्च १५ ) शिवरात्रि, अकाल बोधन यज्ञ
  10. चैत्र (मार्च १५ से अप्रैल १५ ) बसंती पूजा