Wednesday, March 17, 2021

भृगु गिरी महाराज की जीवनी १ प्रारम्भिक जीवन

 भृगु गिरी महाराज की जीवनी १ 

जन्म और माता पिता



सन १९३२ के ३ अगस्त (श्रावण शुक्ल पक्ष प्रतिपदा) की शुभ वेला में  एक  पुण्य आत्मा ने  बरमोरीकोना कामरुप आसाम में देव माया के गर्भ से जन्म लिया  ।  उस समय किसी को ज्ञात ना था कि यह आत्मा आगे चलकर विज्ञान और अध्यात्म के बीच संबंध जोड़ कर विश्व को एक नई दृष्टि देकर मानव कल्याण करेगी । 

पिता शशिधर शर्मा जो बिहार के मगध राज्य से विस्थापित ब्राह्मण थे ।  सातवीं सदी में भास्कर वर्मन के शासनकाल में  मगध के राजा हर्षवर्धन का  उनके साथ अच्छे संबंध होने से दोनों राज्यों के बीच व्यक्तिगत और प्रौद्योगिक आदान प्रदान होता था । इसी संदर्भ में ९ वीं  सदी के राजा नागशंकर ने एक बार किसी प्रतिष्ठान के लिए मगध राज्य से शशिधर शर्मा के पूर्वजों को जो कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे, एक विशेष यज्ञ के लिए बुलाया और बाद में उन्हें नाल बड़ी के पास एक छोटा सा जमीन का टुकड़ा रहने के लिए दिया ।  यही परिवार बाद में बिलेश्वर मंदिर के मुख्य पुजारी के रूप में  काम  करने लगे ।  यह मंदिर नागशंकर ने बनवाया था ।   शशिधर शर्मा एक विद्वान और कलाकार थे, वे महाभारत रामायण और भागवतम् का पाठ कर श्रोताओं को  मंत्रमुग्ध कर देते थे, वे कई वाद्य यंत्रों में भी निपुण थे । 

देवमाया एक साधारण, हार्दिक और सत्कारशील महिला थी। जो सभी का हृदय जीत लेती थी ।  उनका परिवार बलि करिया गांव में जो नालबाड़ी के पास था रहते थे।  फुलगुरी नदी इन दोनों गांव (बरमोरीकोना- बालि करिया) के मध्य में था।  नदी के किनारे घनी हरियाली थी।  और एक वासुदेव का मंदिर था जिसमें बाल कृष्ण प्रतिष्ठित थे।  अपने वाले काल में देव माया इस मंदिर से आकर्षित होकर अपना दुख सुख बाल कृष्ण से बांटती  थी।  जब भी कोई उनके पास मायके से आते  थे।  वह सबसे पहले वासुदेव कृष्ण के बारे में पूछती थी।  वह बहुत ही दयालु महिला थी, जो किसी भी घर में आए अतिथि, जो कितना भी गरीब हो या भिखारी, को कभी खाली हाथ नहीं भेजती थी।  और घर आए अतिथि को रहने की जगह देती थी ।  वासुदेव के साथ घनिष्ठ संबंध होने के कारण उनका कनिष्ठ पुत्र हलदर भी वासुदेव से बहुत आत्मीय हो गया । 

शिक्षा और बाल्यकाल

हलधर के ज्येष्ठ भाई तपधर शिक्षक थे और उन्होंने हलधर को ४ वर्ष तक घर पर ही शिक्षा दी ।  हलदर बहुत ही होनहार बालक थे।  उनकी स्मृति और समझ शक्ति अति उत्तीर्ण थी।  उनकी  भाषा और गणित में अनोखी पकड़ थी।  कविता लिखना और गाने में उनको विशेष रुचि थी।  ५ वर्ष की उम्र में ही वह दूसरी कक्षा के लिए तैयार थे।  तपधर उनको गांव की पाठशाला भेजना चाहते थे, परंतु घर के लोग इसके विरुद्ध थे।  इस छोटी उम्र में दूसरी कक्षा में प्रवेश लेने से उन्हें गांव के लोगों की ईर्ष्या और  काला जादू का भय था। 

५  वर्ष की उम्र में भी हलधर भागवत महाभारत और रामायण का अक्षरसह  पाठ करते थे, जो बहुत ही आश्चर्यजनक बात थी। एक बार जब उनके पिता हलदर को गीता पाठ सुनने के लिए गांव के पड़ोस में ले गए ।  दोपहर में जब वयस्क गीता पाठ कर रहे थे हलदर बाहर अन्य बालकों के साथ मिट्टी के घर बनाकर खेल रहे थे।  अचानक उन्होंने पेड़ के कुछ पत्ते एकत्र कर उनको एक पुस्तक का रूप देकर बच्चों को सामने बैठा कर गीता का पाठ आरंभ किया जैसे वेदव्यास अपने शिष्यों को पढ़ा रहे थे। 

गीता इतना स्पष्ट और जोर से पढ़ते सुनकर वहां के ब्राह्मण डर से कांप गए जैसे कोई अपशकुन हुआ हो।  उन्हीं में कुछ पंडित ज्योतिषी थे वह तुरंत शशिधर शर्मा के घर जाकर बालक की  जन्म पत्री  देखा।  उन्होंने कहा एक लंबे संघर्ष के पश्चात यह बालक एक साधु बनकर लोक सेवा में  अपना जीवन व्यतीत करेंगे और सारे विश्व में विख्यात होंगे। 

कृष्ण लीला

एक बार गर्मी के मौसम में जब सभी दोपहर में जमीन पर विश्राम कर रहे थे, हलधर भी कमर में गमछा बांधकर सो रहे थे।  एकाएक नीले रंग का एक बालक ने उनकी छाती पर लात मारकर उन्हें जगा दिया और बाहर खेलने के लिए बुलाया।  हलधर उसी क्षण उठकर उस बालक की ओर आकर्षित होकर खेलने के लिए बाहर आ गए।  बालक की कमर में बंधी बांसुरी पर हलदर की आंख पड़ी और उन्होंने बांसुरी बजा कर खेलने लगे। घर का पिछवाड़ा हरियाली से भरपूर था।   दोनों लुका छिपी का खेल और भाग-दौड़ करने लगे। उनके इस तरह अचानक घर से गायब हो जाने पर घर में जैसे आतंक मच  गया।  वे  खोजने के लिए बाहर आये और  बांस के जंगल में हलदर को दौड़ते हुए देखा ।  घर आने को बुलाने पर हलदर ने अपने अपने मित्र को छोड़कर लौटने से इनकार कर दिया।  परिवारजन आश्चर्यचकित हो गए क्योंकि उनको कोई भी अन्य बालक दिखाई नहीं पड़ा।  अंत में उन्होंने हलदर के आग्रह के विरुद्ध उनको पकड़ कर घर ले आए।  घर आने पर भी हलदर बाहर जाने के लिए बहुत व्याकुल थे।  अंत में विवश होकर परिवार जनों ने उन्हें एक पेड़ से बांध दिया।  हलधर के इस कृत्य से घर मे  एक भय  दौड़ गया।  क्या किसी की बुरी नजर लग गई? तांत्रिक को बुलाया और झाड़ फूंक करने का जब कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा, अंत में उनके पूछने पर कि  घर का  पिछवाड़ा  उनको  इतना आकर्षित क्यों  कर रहा था, हलदर ने कहा मुझे वहीं चांदी की बांसुरी चाहिए मैं उससे खेलना चाहता हूं।  इस उत्तर का कोई भी मतलब न निकलने और बालक के दिन-प्रतिदिन उसी बालक के साथ खेलने के आग्रह से घर के लोग परेशान थे।  पिता ने उन्हें बाजार से कुछ बांसुरी लाकर भी दिया पर यह हलधर को मंजूर नहीं था, उन्हें तो वही चांदी की बांसुरी चाहिए थी। जब घर के लोग कुछ ना समझ पाए तब उन्होंने  हलधर से घटना का विस्तार में वर्णन करने को कहा ।  परंतु परिवारजनों को विश्वास ना होने पर उन्होंने काला जादू का संशय और अधिक बढ़ गया।  एक दिन बालक ने मां से मामा के घर जाकर बांसुरी से खेलने का आग्रह किया माँ  ने ना समझकर पूछा बांसुरी कहां से मिलेगी।  हलदर बोले उस वासुदेव के मंदिर में जो बांसुरी है, मैं उससे खेलूंगा संध्या तक हलदर अपने खोए हुए मित्र से मिलने के लिए व्याकुल थे।  अभी उनके मामा भुवनेश्वर शर्मा घर पर आए।  मां ने सभी वृत्तांत अपने भाई को बताया।  कुछ समय बाद जब मामा घर जाने लगे तभी हलदर एक पतली गली से होकर मुख्य रास्ते पर पहुंच गए।  शाम होने के कारण  मामा हलदर को साथ ले जाने का निर्णय नहीं ले पा रहे थे।  तभी हलदर के गांव का एक आदमी से मुलाकात हुई और उन्होंने हलदर को उनके साथ घर जाने को कहा।  परंतु हलदर तो अपने  हट पर अड़े  थे और घर जाने से इंकार कर दिया।  अंत में उन्होंने हलधर के घर संदेश भेज कर उन्हें साथ ले गए।  दूसरे दिन प्रातः हलदर के पिता जब हलदर को लेने के लिए आए  परंतु हलदर ने इनकार कर दिया। 

भुवनेश्वर शर्मा जब अपने काम  के लिए प्रातः निकल रहे थे हलधर ने भी उनके साथ जाने का आग्रह किया।  भुवनेश्वर शर्मा ने हलधर को साथ ले जाकर वासुदेव मंदिर के पास खेलने के लिए छोड़ दिया।  उस समय मंदिर बंद था और पुजारी ११  बजे दरवाजा खोल कर पूजा करते  थे  और १  बजे मंदिर बंद होता था।  उस दिन जब पुजारी ने आकर दरवाजा खोल कर गर्भ ग्रह में गए तो वहां का दृश्य देखकर अचंभित होकर भय से चिल्लाए  जो भुवनेश्वर शर्मा के कानों तक पहुंचा।  वह मंदिर की तरफ भागे और पुजारी को किंकर्तव्यविमूढ़ देख कर सामने का दृश्य से अचंभित हो गए।  ५  वर्ष के हलदर कृष्ण के आसन में बैठकर उन की माला पहन कर बांसुरी बजा रहे थे।  बालक को बंद मंदिर के अंदर देखकर सभी आश्चर्यचकित थे।  अधिकतर लोग उस बालक को पहचाना ही नहीं और यह सोचकर कि  कैसे बंद मंदिर के अंदर वह प्रवेश किया जानकर आश्चर्यचकित थे।  उस दिव्य लीला ने सभी के मन में एक अमिट छाप छोड़ दी और हलधर को सब एक दिव्य आत्मा की तरह देखने लगे। 

एक दिन सभी आलू के पकौड़े खा रहे थे जब हलदर को पकोड़े दिए गए तो उन्होंने अपने मित्र वासुदेव के लिए भी कुछ मांगा।  परंतु उस गांव में तो वासुदेव नाम का कोई भी बालक नहीं था।  जब वासुदेव के बारे में पूछा तो वह बोले मैं रोज वासुदेव के साथ गोटियां खेलता हूं बकुल वृक्ष के नीचे एक दूसरे की पीठ पर बैठकर  घोड़े  घोड़े का खेल भी खेलते हैं।  गांव के कुछ लोगों ने भी उनको किसी अदृश्य बालक के साथ गोटिया खेलते दौड़ते और किलकारियां भरते देखा था।  किंतु ६  से ८  महीने के बाद हलदर का मंदिर जाना कम हो गया। 

माध्यमिक और उच्च शिक्षा

६  वर्ष की उम्र में उन्हें मामा ने पास के एक विद्यालय में पढ़ने भेजा किंतु हलदर के पिता को अपने पुत्र को अन्य गांव में पढ़ने भेजना ठीक नहीं लगा और मैं उनको अपने गांव वापस लेकर आ गए।  हलदर एक तीव्र बुद्धि के स्वतंत्र और हठी बालक थे स्कूल में एक मुहावरा सिखाया गया “ १०  महीने १०  दिन बच्चा पेट में रहने के बाद मां का दर्द मां को दर्द आरंभ होता है हलदर ने उसे तुरंत याद कर लिया।  कक्षा समाप्त होने के बाद जब हलदर के मन में कुछ आशंका जगी उन्होंने अपने चचेरे भाई जो एक डॉक्टर थे से पूछा की मां के पेट में बच्चा कितने दिन रहता है? डॉक्टर बोले २८०  दिन।  हलदर ने जब प्लेट पेंसिल लेकर गणना की तो उतर ९  महीने और १०  दिन आए।  इस बात का जब वे मनन कर रहे थे तभी पास के एक और डॉक्टर मुन्नीकृष्णन घर आए और उनसे भी पूछने पर वही जवाब मिला।   उनको डॉक्टर की बात पर ज्यादा विश्वास हुआ और स्कूल में सिखाए गए पाठ्यपुस्तक पर आशंका हुई।  उस रात सो नहीं पाए और उनको उत्तर मिल गया 280 दिन जिसका मतलब था दसवें महीने के १०  दिन।  १०  महीने और १०  दिन नहीं।  थोड़ा सो कर जब वह कक्षा में गए शिक्षक ने हलदर से वही प्रश्न पूछा और उन्होंने उत्तर दिया दसवें महीने के १० वें  दिन।  बार बार पूछने पर भी वह अपने उत्तर पर अडिग रहें शिक्षक क्रोधित होकर उनसे पुस्तक में लिखे उत्तरकाशी अपेक्षा कर रहे थे पर हलदर अपने उत्तर से  अडिग रहे।  प्रशिक्षक ने उन्हें पाठशाला से निलंबित करने का भय दिखाया।  सिर नीचा कर शिक्षक को प्रणाम कर कक्षा से बाहर आ गए और पुनः उस पाठशाला में जाने से इनकार कर दिया। 

संगीत और कविता

एक बार पास के गांव में लोक संगीत की प्रतियोगिता हो रही थी बार मोरी कोना गांव भी इसमें भाग ले रहा था।  हलदर अपने साथियों के साथ प्रतियोगिता देखने गए।  उस दिन मुख्य संगीतकार बीमार पड़ गए  और वह गांव के प्रतियोगिता में भाग नहीं ले पाए ।  ६  वर्षीय हलदर तुरंत मैनेजर के पास जाकर अपने को मुख्य संगीतकार के रूप में गाने का अनुरोध किया।  मैनेजर को मालूम था कि हलधर एक बहुत ही अच्छे गायक हैं पर उनको लय और ताल के बारे में थोड़ा संदेह था, और मंच के भय  का भी।  यह सब सोचकर   वह अपने साथियों से चर्चा करने के बाद उन्होंने तय किया कि वह हलदर को इस भूमिका के लिए अनुमति दें।  यदि वे कुछ गलती भी करेंगे तो श्रोता उन्हें बालक समझकर माफ कर देंगे।  जब उनके गांव की बारी आई हलदर ने ऐसा गाया  कि सभी को अचंभित हो गए ।  उन्हें कोई भी घबराहट नहीं हो रही थी प्रतियोगिता के अंत में बोरमोरीकोना को प्रथम पुरस्कार के लिए चुना गया।  इसके बाद तो हलधर को गाने के निमंत्रण की बाढ़ सी लग गई।  इस तरह हलदर भी गाने और संगीत में रुचि और बढ़ गई।  कई समय वह घर पर किसी पिछले देखे गए नाटक का अभिनय करते थे, और  इस उम्र में  नाटक लिखना आरंभ कर दिया।  उनके लिखे गए कुछ नाटकों में खांडव दाह, पो पिया तोरा,  फोरासी बिदुरह , और जर्दमान , उर्मिला  मुख्य थे । अपने लि खे कुछ नाटकों का वे अभिनव भी करते थे । 

हलधर की कला प्रदर्शन में रूचि  धीरे-धीरे उनके  पिता के  चिंता का विषय बन गया । वे संगीत और कला के बहुत शौकीन थे, लेकिन उनकी कुछ अन्य योजना थी। वे हलधर को गायन और अभिनय को एक आजीविका बनाना नहीं देना चाहते थे । उनके  माता का भी यही विचार था।  वे  अपने बेटे को रात में एक  गांव से दूसरे गांव घूमने देना नहीं चाहते थे।  हलधर के पिता उन्हें अपने मामा के पास रहकर मिडिल  स्कूल में भर्ती करवाना चाहते थे।  परंतु उनकी माता की सम्मति यह नहीं थी, उनका अपना कोई कारण था।  वे हलधर को अपने से दूर नाल बाड़ी में रहकर पढ़ने नहीं देना चाहती थी। उसी समय कुछ ऐसी घटना हुई जिससे माता पिता दोनों को लगा कि हलदर के लिए उनका गांव छोड़कर नाल बड़ी में पढ़ना ही उचित होगा।  मन में भारी दुख के साथ उन्होंने हलधर को उनके मायके पढ़ने के लिए भेज दिया । 

४  वर्ष की उम्र में हलदर के छोटे भाई सुरेंद्र का देहांत हो गया।  इस छोटी उम्र में इस  घटना ने उनके  हृदय को विदीर्ण कर दिया और एक कविता की रचना  में प्रकट हुई। 

सुरेंद्र भाईटी मोर आसिल जेटिया आकुरे आहाब मोर नासिल टेटिया । 

थुनुक थानक मात सारी बोसोरिया, ही आसिल मोर भाई लोंगोरिया, पोदोम कोलिते जेन सिंगी लोई जाय । 

हे जारे पोरा मोर अलाइ बलाई, हाय ! दुखोत नापाओ शांतिर अपोरी थाई । 

मेरा जीवन उसके बिना अधूरा है। वह मेरा भाई और साथी था। जैसे किसी ने मेरे जीवन के तालाब से एक कमल को निकाल दिया। उनकी अनुपस्थिति ने मुझे पीड़ा में डाल दिया। खोजने पर भी शांति की कोई आशा नहीं है  । 

उन्होंने इस तरह कई कविताएं लिखी।  और उनमें से २२०  कविताओं का संग्रह एक पुस्तक में किया।  जिसको उन्होंने अपने शिक्षक भुवनेश्वर शर्मा को दिया।  उन दिनों गांव में साम्यवादी नेताओं की फ्रेंच और रशियन क्रांति की चर्चाएं होती थी । इन चर्चाओं से हलधर को लगा की साम्यवादी गरीबों की तरफदारी करते हैं और उनका इसकी तरफ झुकाव  हो गया।  उसके बाद उनकी कविताओं में साम्यवादी क्रांति की झलक दिखाई दी । 

मोई बीर मोई साओ सुखोकार तोप्लो रुधीर, फ़्रांखोर जामीदार निजोर मोने सोजा निजाई इश्वोर

खूनधारार कोरी समाराजोर बिपलोबोर ओग्नी जोलाई , मोई बीर मोई साओ पेबोलोई सुखोकार तोप्तो रुधीर

(मेरे अंदर की वीर क्रांति, शोषक के शरीर से गर्म खून को चूसने की प्रतीक्षा कर रहा है । फ्रेंच लॉर्ड्स की तरह शोषक अपने को ईश्वर समझते थे। फ्रांसीसी क्रांति की तरह मैं भी व्यथित के साथ क्रांति की प्रतीक्षा में हूँ । )

बालक हलदर उस समय सारी रात मिट्टी के दीपक के सामने कविता लिखने में व्यतीत करते थे।  एक बार दूसरे  विश्वयुद्ध के समय मिट्टी के तेल की आपूर्ति में कमी आई।  और हलधर को रात भर दीया जलाने की अनुमति नहीं थी।  परंतु हलदर की कविता लिखने में इतनी रुचि थी कि वे दिन में सूखे पत्तों को इकट्टा करते थे।  और रात भर उन्हें जलाकर उसकी ही रोशनी से कविताएं लिखते थे।  इस तरह से दिन और रात व्यस्त रहते थे। 

“सर्वंग अत्यन्तम गर्हितम” किसी भी चीज का अत्यधिक अच्छा नहीं है।  हलधर कविता लिखने में इतने आतुर  हो गए थे कि उन्हें कविता के सिवा और कुछ भी अच्छा नहीं लगता था । एक बार उन्होंने गांव  के एक विवाह में गए । संध्या के समय खाना भोजन और मिठाई बनाने के अलावा कुछ महिलाएं विवाह के लिए गाना तैयार कर रही थी । रात को जब वर और बाराती पहुंचे दोनों पक्षों के बीच गायन प्रतियोगिता शुरू हुई। वे लगातार अनायास नए धुन और गीतों की रचना कर रहे थे इस तरह प्रतियोगिता चित्ताकर्षक हो गया । देर रात में शादी के समाप्त होने के बाद वरपक्ष के लोग अपने अपने घरों में लौट गए । हलदर एक कुर्सी पर बैठ कर विचार कर रहे थे, कैसे ये अनपढ़ महिलायें , जिन्हें एक वाक्य बनाने  का भी कोई ज्ञान नहीं था, अनायास ही गाने के बोल धुन दे कर और तत्क्षण गाते हैं, जहां शिक्षित लोग गाने की एक पंक्ति बनाने के लिए घंटो लगाते हैं।उन्हें लगा कि कविता केवल साहित्य का एक हिस्सा था, लेकिन स्वयं में पूरा साहित्य नहीं था ,और जीवन भर कवितायें लिखने का कोई अर्थ नहीं था। इस तरह कवितायें लिखने का उनका अनुराग का अंत हो गया।

धीरे धीरे उनकी लेखनी में परिवर्तन आया और उन्होंने कविता से कहानी जीवनी और नाटक लिखना आरंभ कर दिया। एक समय उनकी लिखावट बहुत ही बुरी थी।  एक विषय में उन्हे अशुद्ध लिखावट के कारण ५० से ४२ अंक मिले। कक्षा में सबके सामने उनकी अशुद्ध लिखावट की आलोचना की गई तब उन्होंने इसे सुधारने का निश्चय कर लिया। नालबाड़ी जाकर कागज खरीद कर लाए और एक पुस्तक बनाकर उसमें लेखन का अभ्यास आरंभ कर दिया।  २  दिनों के भीतर उन्होंने पूरी गीता लिख कर अपनी लिखावट इतनी सुंदर कर ली कि पास के एक वृद्ध ब्राह्मण सुबह शाम  उनकी हस्तलिखित गीता का पाठ करते थे।  इसके बाद उन्होंने ५६  और हस्तलिखित गीता को आसपास के वयस्कों में वितरण कर दिया ।  इस तरह सभी ने उन्हें गीता के ज्ञान को उनके जीवन के साथ रहकर उन्हें प्रभावित करने का आशीर्वाद दिया। 

एक बार हलधर पास के एक गांव में नाटक देख कर लौट रहे थे, नदी के तट पर उन्हें एक साधू के दर्शन हुए ।  साधु नदी के मध्य में एक चट्टान पर बैठे थे और चट्टान के चारों तरफ जल सूख गया था।  साधू ने उस  बालक को पास बुलाया और हलदर को समीप बुलाकर हिंदी में पूछा  तुम्हारा नाम क्या है।  साधू ने कहा तुम्हारी आत्मा शुद्ध है और तुम आगे चलकर एक साधु का जीवन व्यतीत करोगे।  हलदार उन महात्मा का आशीर्वाद ले कर घर लौट आए।  किसी को भी साधू का नाम पता नहीं मालूम था और ना फिर वह दुबारा कभी मिले।  हलधर ने कभी सोचा भी नहीं था कि  वह आगे चलकर साधू  का जीवन व्यतीत करेंगे परंतु उन्हें मंत्र बहुत आकृष्ट करते थे।  उनमें से एक मंत्र था जिसे वह अक्सर गुनगुगुनाया  करते थे। 

नत्वहं कामए राज्यं न स्वर्गं न पुनर्भवम ।  कामये दुःख तप्तानां प्राणिनां अंतिनाशनम्। 

(मुझे न किसी राज्य की आकांक्षा है, और न स्वर्ग प्राप्त करने लालसा। मैं तो केवल पीड़ितों के दु:ख दर्दों के अंत करने में ही उत्सुक हूं। )

अपने दोस्तों के साथ एक दिन वे शिवरात्रि के लिए हाजो में केदार मंदिर गए। वे १५ किलोमीटर की दूर मंदिर चल कर गये और रात भर पूजा में भाग लिया और केदारेश्वर से अपनी इच्छाओं की कमाना की ।  लौटते समय सभी ने अपनी इच्छाओं के बारे में बताया।  अंत में हलदर ने कहा मैंने अपने लिए कुछ भी नहीं मांगा।  अपने लिए मांगने से क्या लाभ जब हम सभी उस तालाब में रह रहे हैं जहां दूसरी सभी मछलियां त्रस्त हैं।  यदि आपके परिवार का कोई दुखी है तो क्या आप सुख से रह सकते हैं? मैंने भगवान से दुनिया के सभी लोगों के सुख की कामना की है।  मैंने अपने पिता से सीखा है कि भगवान के सामने कभी हाथ मत जोड़ो कुछ मांगने के लिए उनका आदर करो वह स्वयं ही आपको आशीर्वाद देंगे । अपना काम अच्छी तरह से करो फल देने के लिए तो वही है। फिर उन्होंने अपनी इच्छा के बारे में बताया हे भगवान किसी को दुख नहीं देना सब को सुखी करना । यदि मैं इसे भीख मांगना कहूं तो क्या यह सच है।  उनके दोस्त कुछ भी नहीं समझ सके और अपने ही ख्यालों में खो कर घर लौट आए। 

उनका खाने का ढंग दूसरों से बिल्कुल अलग था वह बचपन से ही शाकाहारी थे।  वे खाना बहुत ही कम खाते थे। उनका सोचना था की कम अन्न खाने से  जीवन बढ़ता है।  कभी तो वह अन्न खाना पूरा छोड़ देते थे और केवल दूध और फलों पर ही रहते थे।  उनकी मां दुखी होकर पूछती थी तब वह कहते थे कि  खाना वही खाना चाहिए जिसकी उम्र लंबी हो क्योंकि भोजन जिसकी उम्र ज्यादा होती है  उससे जीवन ही बढ़ता है और छोटी उम्र के खाने से जीवन छोटा होता है।  जैसे चावल और गेहूं के पेड़ की उम्र केवल ३  महीने होती है जबकि फलों के वृक्ष हजारों सालों तक जिंदा होते हैं । मैं ज्यादा दिन तक जिंदा रहना चाहता हूं और आपको देखना चाहता हूं यह बात सुनकर उनकी मां चुप हो गई। 

उत्तरदायित्व (असमी शिक्षा और जनगणना )

जब वे दसवीं क्लास में थे, उनके पिता की मृत्यु हो गई और तब उनके परिवार को वित्तीय संकट से गुजरना पड़ा और वह मैट्रिकुलेशन की परीक्षा में नहीं बैठ पाए।  उनके पास और कोई भी विकल्प नहीं था उनको नौकरी करनी पड़ी।  उन दिनों वहां पर जमीनदारी थी और जमींदारों को एक राजा के समान देखा जाता था ।  एक जमींदार के पुजारी ने उनको नौकरी के लिए सिफारिश करने पर उन्हें प्राइमरी कक्षा के शिक्षक की नौकरी मिली ।  उनको ३रुपए महीने प्रति माह मिलता था वह जमींदार के गेस्ट हाउस में अपने एक संबंधी के साथ रहते थे, जो वहां के  पुजारी थे  इस तरह उनके खाने और रहने की व्यवस्था हो गई थी ।  वह दिन में  पढ़ाते थे और रात में स्वयं पढ़ते थे ।  राधा नाथ गोस्वामी जो स्कूल के इंस्पेक्टर और तारा नाथ गोस्वामी के बेटे थे, उन्हें गौरीपुर से मैट्रिक की परीक्षा के लिए प्राइवेट स्कूल से बैठने का प्रबंध  की , इस तरह उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की । 

उस समय बंगाली मीडियम में पढ़ाई होती थी ।  श्री हरि प्रसन्न तामूली फूकान  जो स्कूल के डिप्टी इंस्पेक्टर थे और खनिन्द्र बरनाह जो डिप्टी कमिशनर थे असमिया भाषा में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान था ।  हलदर शर्मा के अनुसार आसाम के लोग उनको भूल सकते हैं किंतु आसाम की मिट्टी नहीं ।  एक बार जब हलदर शर्मा तमोली फूकान से किसी काम के लिए मिले तो उन्होंने आसामी मीडियम स्कूल में उन्हें काम  करने के लिए उत्साहित किया ,और कहा उन्हें उसी दिन से वेतन मिलेगा परन्तु उन्हें  ६ महीने के भीतर इस तरह एक  स्कूल आरम्भ करना होगा, नहीं तो उनको नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा ।  उन्होंने सोचा हे वासुदेव आप मेरे साथ हैं और यह आपकी ही कृपा है, जैसे कि वासुदेव ही हरिप्रसाद के रूप में बोले  तुम्हारा वेतन उस दिन से ₹१२  हो जाएगा ।  हलदर ने सोचा कम से कम ६ महीने के लिए तो उन्हें चिंत्ता मुक्त रहना पड़ेगा ।  दूसरे दिन उन्होंने हलकारा नाम के गांव में जो धुबरी से ४०  किलोमीटर की दूरी पर है, के लिए रवाना हो गए ।  दूसरे दिन उन्हें मार्केट में एक शिक्षक मिले जिन्होंने उन्हें पहचान कर उन्हें अपने घर पर रहने के लिए आमंत्रित किया ।  दूसरे दिन सुबह चलते समय उनके स्कूल के शिक्षक के साथ एक संपन्न और शिक्षित व्यक्ति से मुलाकात हुई ।  वे  ज्यादा पढ़े-लिखे तो नहीं थे परंतु हलदर की बातों से उत्साहित हुए,  जब हलदर पढ़ाई और शोशल वर्क की बात कर रहे थे ।  उन्होंने हलधर को अपने ही घर रहने के लिए आमंत्रित किया और १०  बीघा जमीन स्कूल के लिए दान किया ।  एक  २० फुट चौड़ा और १२० फीट लंबा टीन शेड का घर बनवाया ।  और पाठशाला का नाम अपने पिता के नाम से  लोह जानी मंडल पाठशाला रखा ।  इसके बाद स्कूल में भर्ती करने के बच्चों का प्रश्न आया क्योंकि उस समय सभी स्कूल बंगाली मीडियम के हुआ करते थे और ज्यादातर माता पिता अपने बच्चों को बंगाली मीडियम में नहीं पढ़ाना चाहते थे ।  परंतु और कोई विकल्प भी नहीं था ।  सबसे पहले रमेश सरकार जिन्होंने जमीन और स्कूल की बिल्डिंग दान दी थी के बच्चे पढ़ने के लिए आए ।  जो बच्चे दूर से आए उन्हें  हॉस्टल की सुविधा दी गई ।  इस तरह  धीरे धीरे २० बच्चे हो गए कुछ की उम्र तो  हलधर के समान ही थी ।  हलधर बच्चों के माता-पिता से मिलते थे और उन्हें पाठशाला में आने के लिए उत्साहित करते ।  पहले तीसरी कक्षा तक बच्चों को लिया गया ।  हलधर ने सरकार के बच्चों को दिन रात मेहनत करके इतना पढ़ाया की सभी को  स्टेट स्कॉलरशिप मिला ।  यह एक ऐतिहासिक दिन था और सीता मुरली  फूकान तब से प्रसन्न थे ।  इस सफलता के बाद शर्मा देव ने उत्साहित होकर मिडिल  स्कूल खोला ।  असामी के रूप में शिक्षा का माध्यम असमिया लोगों के दिल में अपनी जगह बना लिया था मुख्य शिक्षक हलधर के वेतन में भी वृद्धि की गई ।  एक पोस्ट ऑफिस उस क्षेत्र में पहली बार के लिए खोला गया था।

उसी समय में असम सरकार ने प्रौढ़ शिक्षा का  प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया । धुबरी में पहली बार प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र समर देव द्वारा स्थापित किया गया था जो डी आई तामूली फुकन को आश्चर्यचकित कर दिया । तामोली  फूकान ने समर देव को प्रौढ़ शिक्षा को बढ़ाने और आसामी भाषा में स्कूल खोलने के लिए प्रोत्साहित किया ।  इस तरह समर देव का असमी स्कूल खोलने की भागीदारी का कार्य बढ़ता रहा ।  पास के दूसरी पाठशालाओं के शिक्षकों से मिलकर अष्टमी भाषा को उनके स्कूल के पाठ्यक्रम में मिलाने के लिए  बढ़ावा दिया ।  इसके पश्चात आसामी भाषा के शिक्षकों की कमी का प्रश्न आया, तब उन्होंने नए शिक्षकों को  नियुक्त कर उनको शाम में एकत्रित कर प्रशिक्षित किया ।  अंत में वे असामी भाषा को लोगों के दिलों में लाने और इसे सभी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम बनाने में सफल हुए । 

आरंभ में उन्हें कई बाधाओं का सामना करना पड़ा।  गोलपाड़ा जिले में और उत्तरी असम में उस समय कमाता राज आंदोलन चल रहा था।कमता के लोग असमी भाषा के विरोधी थे, और इसीलिए वे  इसको स्कूल के  माध्यम के रुप में लाने के विरुद्ध थे । इन सब अड़चनों के उपरांत भी समर देव ग्वालपाड़ा के राजा द्वारा भेंट किए गए  घोड़े पर सवार होकर रोज शाम ४ बजे से रात ११ बजे तक ४० से ५० मील दूर सफर कर  शिक्षकों और वयस्क छात्रों में असामी भाषा के माध्यम को प्रोत्साहित करने का  काम करते थे। वे केवल ४ घंटे ही सोते थे ,और प्रातः जल्दी उठकर पढ़ाई किया करते थे।    क्योंकि उन्हें स्नातक होने की बहुत आकांक्षा थी । उ न्होंने धुबरी में एक निजी कॉलेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा दी।

खाली समय में वे बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, पसकरी चट्टोपाध्याय और रविंद्र नाथ टैगोर की जीवनियां पढ़ते थे ।  वे  एक जीवनी २ दिनों  में पूरा कर लेते थे ।  इस तरह उन्होंने कभी अपना एक मुहूर्त भी व्यर्थ नहीं जाने दिया ।  एक बार जब किसी ने उनसे पूछा कि वह इस तरह  पागल  कुत्ते की तरह सुबह से रात तक काम  क्यों करते हैं ? उन्होंने लोगों की मानसिकता के अनुसार उत्तर दिया क्या सूरज और चंद्रमा कभी एक क्षण के लिए भी विश्राम ले सकते हैं ,यदि ऐसा होता तो विनाश हो जाता, यदि हृदय की गति बंद हो जाए तो क्या हम जीवित रह सकते हैं, या यदि कोई यंत्र खाली रखा हो तो क्या उसमें जंग नहीं लग जाता ।  विज्ञान ने यह  प्रमाणित कर दिया है कि समय के साथ जो चलता है वह कभी वृद्ध नहीं होता ।  जो  जितने तीव्र गति से चलता  है वह उतना  ही दीर्घजीवी होता है ।  ईश्वर  ने मनुष्य को अपने प्रतिरूप बनाया है, और ईश्वर आलस्यहीन है ।  हमारी आत्मा ही ईश्वर है , आत्मा वायु की तरह सर्व व्यापी और चलायमान  है ।  आत्मा की गति काल के सामान है ।  मनुष्य  तो थोड़े समय के लिए सांस लेने और छोड़ने के लिए इस पृथ्वी पर जन्म लेता है ।  समर देव किसी भी बात का उत्तर देने के लिए समय नहीं लेते थे उनके उत्तर तीव्र और तत्क्षणिक होते थे, जैसे उनके जीभ के सामने रखे हों । 

आसामी भाषा का प्रचार गुलकंज क्षेत्र में करने के पश्चात उन्होंने इसे गोसाई गांव और धुबरी  क्षेत्र में भी असामी भाषा का प्रचार तामुली फुकान की सलाह से किया ।  दो  वर्षो में ही उन्होंने सभी क्षेत्रों में असामी भाषा को स्थापित करने में सफलता प्राप्त की ।  इसके पश्चात असामी  पुस्तकों की कमी की समस्या आयी ।  उस समय बरूआ एंड कंपनी सबसे बड़ी प्रकाशन कंपनी थी  ।  श्री हरि नारायण दत्त बरूआ इसके मालिक थे ।  जब समर देव, दत्त बरुआ  से मिलकर अपनी समस्या को सामने रखा दत्त बरुआ  ने इसको एक महान कार्य सोचकर अपने खर्चे से ही इस कार्य को करने का बीड़ा उठाया ।  उन्होंने बीस  से पच्चीस हजार रुपयों  की पुस्तकें छपवाई और समर देव को भिजवा दिया ।  जिसे  समर देव ने  हलाकूरा मे एक कमरा किराया लेकर रखा ।  शिक्षकों ने भी अपना दिल दिमाग इस कार्य में लगा दिया इस तरह धुबरी क्षेत्र में पढ़ाई का माध्यम असामी में बदल गया । 

वर्ष १९५०-५१  में जब जनगणना का काम शुरू हुआ, नेहरू सरकार ने डॉ. कुंजरु पणिकर आयोग की सलाह पर प्रमुख प्रचलित भाषा के अनुसार राज्यों को विभाजित करने का आदेश दिया ।  यह इतना आसान कार्य नहीं था और आसाम  इसका अपवाद नहीं था । आसाम विशेष कर  गोलपारा जिला इसका उदाहरण है ।  भारत  के  विभाजन के समय धुबरी जिला और अन्य उत्तरी असम के क्षेत्रों को कई समझौते करने पड़े ।  कूच बिहार, गोल पाड़ा, रंगपुर, जलपाईगुड़ी ने  इस समझाते से एक नई असम की उपभाषा का उदय हुआ जो बांग्ला और असमी  का मेल था । और इसे  बांग्ला भाषा के रूप में रूप में ही माना जाता है । आज जलपाईगुड़ी और कूच  बिहार बंगला राज्य में आता है ।  इतिहास के परिपेक्ष में सातवीं सदी में बंगाल का नाम गौर देश था ।  उस समय मगध के राजा हर्षवर्धन थे, और गौर राज्य के शशांक ,कामरूप के राजा भास्कर बर्मन थे । असम और मगध के मध्य गहरा संबंध था ।  राजा शशांक ने मगध और कामरूप के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया और हर्षवर्धन से हारने के पश्चात गौर देश को मगध और कामरूप के मध्य बाँट दिया ।  गंगा का पूर्वी भाग ( आज का बंगाल और बंगलादेश) कामरूप के अधीन हुआ, इस तरह भास्कर बर्मन एक विराट राज्य के राजा हुए कामरुप की भाषा का संबंध संस्कृत था ।  परंतु मुगलों और अंग्रेजों के शासन काल में कामरूप के कई विभाजन के कारण  असम की भाषा पर बंगला भाषा  का प्रभाव पड़ा ।  जो विभाजन  के समय एक बड़ा प्रश्न बन गया । असमी  भाषा बोलने वालों की संख्या अधिक होने से यह असम का भाग बना ।  जिससे बंगाली बोलने वालों ने कमाता  राज्य का आंदोलनआरंभ किया ।   जिले के डिप्टी कमिश्नर ने  श्री वीर हनुमान (हलधर शर्मादेव ) को बुला भेजा ।  उन्हें वीर की उपाधि इसीलिए दी गई क्योंकि उनको जो भी कार्य दिया जाता था वह उसका सामना साहस से करते थे ।  खनीन्द्र बरुआ ने उन्हें जनगणना अधिकारी के रूप में नियुक्त करने का आग्रह किया ।  युवा हलधर को इससे पहले राजनीति का कोई अनुभव न होने के बाद भी उन्होंने कहा  दुनिया में कोई भी कार्य असंभव नहीं है सभी उसकी इच्छा शक्ति और निष्ठा पर निर्भर है, उन्होंने श्री बरूआ का आग्रह उनके आशीर्वाद के साथ स्वीकार किया । 

हलधर शर्मा  गुलुक गंज क्षेत्र के जनगणना अधिकारी की तरह नियुक्त किए गए जो एक साधारण सरकारी शिक्षक थे ।  हलधर की इस पद पर नियुक्ति कमता राज्य के लोगों को अच्छा नहीं लगा , और उन्होंने इस बात का सरकार से शिकायत की ।  जब सरकार ने डिप्टी कमिश्नर से पूछा; उन्होंने उत्तर दिया की सरकार ने उन्हें इस कार्य की अनुमति दी है ,और यह न्याय संगत है,  यह उस समय और परिस्थिति को देखकर किस को नियुक्त करना है, न की उसकी शैक्षिक योग्यता पर ।  हमने एक ईमानदार निष्ठावान व्यक्ति को चुना है, जो इस कार्य के लिए उचित है , यह सुनकर अधिकारी संतुष्ट हुए । 

हलधर शर्मा का जनगणना का कार्य आरंभ हुआ ।  सबसे पहले वह गंगाधर नदी और उसकी शाखाओं के क्षेत्र को जो ग्रुप जंग क्षेत्र में पड़ता है से आरंभ किया।  यह क्षेत्र बांग्लादेश से आए प्रवासियों से भरा हुआ था ।  उनके पढ़ने की कोई व्यवस्था ना थी ।  खाना और रहना उनकी प्राथमिक आवश्यकता थी ।  असमी  माध्यम के स्कूल के संदर्भ में उन्होंने पहले ही लोगों से मुलाकात की थी, और उनके विकास के लिए कार्य आरंभ किया था ।  उन्होंने आसामी स्कूल खोल कर शिक्षकों को नालबाड़ी से लाया था ।  उनके खाने और रहने की व्यवस्था वह स्वयं करते थे ।  वह सरकार से मिलकर उस क्षेत्र के विकास का कार्य पाठशाला शौचालय पीने का पानी मंदिर और पुस्तकालय का प्रबंध करते थे ।  इन कार्यों से वहां के लोग अपनी भाषा को खुले हृदय से स्वीकार करने लगे ।  उस समय  धुभरी क्षेत्र में कुसियन गाना  उस क्षेत्र में अति प्रचलित था ।  लोग उन्हें समाज कल्याण का प्रतिनिधि समझते थे ।  और उनको मास्टर ठाकुर के नाम से पुकारते थे ।  यह उन सबके जनगणना के कार्य में अति उपकारी सिद्ध हुआ ।  जब उनसे उनकी मात्र भाषा पूछी जाती तो वह उसे अपमी मे  लिखते थे ।  जब यह रिपोर्ट प्रतिवेदन डिप्टी कमिश्नर के पास गई तो वह इतने असामी लोगों के पंजीकृत होने से आश्चर्यचकित हो गए ।  असम में एक कहावत है कि कोई भी अच्छा कार्य बुरी नजर से नहीं बचता कमता राज्य के समर्थकों ने हलदर के विरुद्ध मुकदमा दायर किया क्योंकि उन्होंने मात्र भाषा का स्थान स्वयं भरा था ।  अदालत के मुक़दमे से बरुआ बहुत परेशान थे परंतु हलदर शर्मा बहुत ही निश्चिंत और  श्री बरूआ को आश्वासन देते थे ।  उन्होंने महाभारत का उदाहरण दिया , घटोत्कछ  को एक बार मैं (कृष्ण ) ही मारा था पर शिशुपाल को सौ  मौका देने के बाद कृष्ण ने एक ही बार में सुदर्शन चक्र से उसका मस्तिष्क धड़ से अलग कर दिया ।  इन लोगों का अंत भी उसी तरह आखरी भूल से होगी ।  जनगणना के समय हलदर दिन-रात निष्ठा के साथ कार्य करते थे ।  वह ४  बजे प्रातः उठकर नित्यकर्म के पश्चात ध्यान करने के बाद,  घोड़े पर बैठकर  अपने कार्य को जाते थे ।  दोपहर का भोजन चावल केला और पानी रहता था ।  वह रास्ते में नाव से गंगाधर नदी पार करते थे ।  नदी पार कर वे  हर घर जाकर उनकी आवश्यकताओं को पूछते थे ।  एक दिन रात ८  बजे जनगणना के कार्य समाप्त होने के पश्चात घर लौटते समय एक अनहोनी घटना घटी ।  उन्होंने देखा की नाव और नाविक दोनों ही लापता थे ।  कुछ दूर उन्होंने कुछ अजनबी  बंगाली नौजवानों को खड़े उन्हें घूरते हुए देखा । उन्होंने व्यंग करते हुए पूछा मास्टर ठाकुर इतनी रात कहां से लौट रहे हो ।  चलो हम आप को नदी पार करा देते हैं ।  हलधर ने आगे संकट को भांपकर निडर होकर कहा चलो आज आपके साथ ही नदी पार कर लेते हैं ।  वह नाव को नदी के मध्य ले जाकर तेज धार की तरफ ले गए ।  हलधर ओवरकोट और टोपी पहनते थे उन्होंने कोर्ट को हाथ में ले लिया था ।  तेज बहाव के कारण नाव  में पानी भरना आरंभ हो गया ।  एक पल में हलधर में नदी में कूदकर लापता हो गए ।  तीन  नौजवान भी कूदे, पर वे  व्यस्त थे , हलदर नदी के अंदर तैर कर दूसरी तरह पहुंच गए और चिल्ला कर बोले चिड़िया उड़ गई है खाली  पिंजड़ा क्यों खोज रहे हो ।  वह दौड़ कर अपने दोस्त के घर घुस गए ।  यह बात किसी तरह डिप्टी कमिश्नर के कानों पहुंच गई ।  उन्होंने तुरंत पुलिस सुरक्षा की व्यवस्था कर दी ।  परंतु हलदर इसके विरुद्ध थे और बोले बिना प्रभु की इच्छा के यह आत्मा शरीर को नहीं छोड़ सकती साहसी  कभी मरते नहीं है,  केवल डरपोक ही मरते हैं ।  यदि मैं पुलिस सुरक्षा लेता हूं मेरी आत्मा को दुख होगा ।  अगले दिन पहले के समान ही था और वह बिना किसी भय के जनगणना का कार्य साहस के साथ करते रहे । 

अदालत में उनके विरुद्ध मुकदमा चला और उन्हें दोषी पाया गया ।  जिला न्यायाधीश प्रेम नाथ चक्रवर्ती दुखी थे और उनका चेहरा पीला पड़ गया था ।  नियम के अनुसार दोषी को अपने को निर्दोष सिद्ध करने का मौका दिया जाता है ।  जब हलदर से पूछा गया वह बोले मुझे कुछ बोलने की आवश्यकता नहीं है जहांपनाह यह दस्तावेज सब कुछ साफ कर देंगे ।  यह कहकर उन्होंने उस  दस्तावेज को सौंप दिया ।  उन्होंने उसको ध्यान से पढ़कर गुस्से से शेर की तरह दहाड़े ।  ये  लोग अपने को असमी  कहते हैं जब उन्हें सीमेंट, किताब पैसा और सरकार से दूसरी सहायता की जरूरत होती है, और अभी वह अपने को असमी कहने से इनकार कर रहे हैं।  उन्होंने इस मुकदमे को दुबारा संशोधन करने का आदेश दिया ।  उसी दिन मामले को फिर दर्ज किया गया ।  फैसला हलदर के पक्ष में सुनाया गया और उन्हें निर्दोष घोषित किया गया ।  धुबरी और गौरीपुर से सौ से ऊपर लोग मामले को सुनने के लिए आए थे और चुप चाप घर लौट गए ।  फैसले के बाद श्री बरुआ, सहायक आयुक्त, न्यायाधीश चक्रवर्ती,  श्री सुंदर शान  फूकान  सभी उप आयुक्त के घर पर मिले ।  सभी  स्तब्ध थे ।  और हलदर के साहसी चमत्कारी पुरुष के चेहरे को देख रहे थे ।  वह उनके  साहसऔर बहु आयामी व्यक्तित्व की सराहना कर रहे थे ।  कैसे उन्होंने १९२००  लोगों को पुनः एकत्रित किया जो उनका  का विरोध कर रहे थे ।  उन्होंने कहा जब २  वर्ष पूर्व में असमी  स्कूल खोलने के संदर्भ में उस क्षेत्र में गए थे उन्होंने पाया की सभी बांग्लादेश से विस्थापित लोग थे जिन्हें पढ़ाई में कोई दिलचस्पी नहीं थी रोटी और मकान उनकी पहली जरूरत थी ।  उन्होंने उनके रोटी कपड़ा मकान सफाई सोच और स्कूल के सभी कार्यों को पूरा किया ।  पढ़ने और लिखने के अलावा वयस्क और युवाओ व्यक्तिगत स्वच्छता के विषय में भी जानना चाहते थे ।  वह पशु पालन, कृषि, रास्ते, जल निकासी और  मकान बनाना  चाहते थे ।  उन्हें सीमेंट लेने के लिए असमी  में दस्तखत करने पड़ते थे, नहीं तो यह सुविधा नहीं मिलती थी ।  उन लोगों को पढाई विकास कार्यक्रम में भाग लेने का मौका दिया गया ।  सरकारी नौकरी सभाओं में आने का सौभाग्य दिया गया ।  कुछ ही समय में स्कूल कॉलेज खुलने लगे और हलदर शर्मा उन लोगों के जीवन के अभिन्न अंग बन गए ।  उन्होंने आवेदन पत्रों  की दो प्रति लिपियां बनाई एक सरकार के लिए और एक अपने पास रखा ।  जब उन्हें इन कृतघ्न लोगों को पाया कि वह असामी  नहीं है, उन्होंने उनकी सच्चाई सामने ला दी । उन्होंने इस बात को गुप्त रखने के लिए माफी मांगी ।  इस तरह उन्हें अपने कार्य में सफलता मिली और वह अध्याय समाप्त हुआ ।  विपक्ष के लोग उनके पैरों में पड़कर शमा याचना करने लगे ।  हलधर बोले आप सब मेरे प्रियजन हैं  अपने मन से बुराई को निकाल दीजिए ।  अब क्योंकि आप सच्चाई जान चुके हैं, मैं भी अपना अस्त्र वापस लेता हूं ।  यह सुनकर न्यायाधीश चक्रवर्ती बोले हम शायद आपके कार्यों को देखने के सौभाग्य से वंचित रहेंगे परंतु हमें विश्वास है कि आप एक  दिन समाज में ऐसा परिवर्तन लाएंगे जिसका हमें पक्का विश्वास है। 

हलधर इस तरह जनगणना अधिकारी का कार्य सफलता से पूरा किया ।  गोलपारा का भविष्य सुनहरा हो गया और लोहा जानी मंडल पाठशाला असमी माध्यम का सबसे पुराना और बड़ा स्कूल हुआ जिसमें ५००  से ज्यादा छात्र और १० शिक्षक थे ।  प्राथमिक कक्षा के शिक्षकों को वेतन ₹१२  से बढ़कर ₹३०  हो गया और माध्यमिक स्कूल के शिक्षकों का वेतन वृद्धि के साथ ₹१५  स्थानीय बोर्ड से मिला ।  डी आई तामूली फुकान ने  हलधर शर्मा को २  वर्षों के लिए जोरहाट में प्रशिक्षण के लिए भेजा ।  हलदर ने हृदय विदीर्ण लोगों के आंसुओं के साथ विदा लेते हुए जिन्होंने उन्हें २  से ३  किलोमीटर तक साथ चल कर विदा किया ।  हलधर भी इस विदाई से दुखी हो गए । 

सेवाग्राम वर्धा से अनुराग  

जोरहाट जाने से पहले वह गुवाहाटी रुके ।  गुवाहाटी में वह हरि कृष्ण दास जी के घर गए जिन्होंने उन्हें आमंत्रित किया था ।  उनके घर पर भी उस समय में शिक्षा मंत्री  ओमियो कुमार दास से भी मिले जिन्हें उनकी उपलब्धियों का आभास था ।  जो गांधी जी के प्राथमिक शिक्षा के विचारों से मिलता था ।  उन्होंने हलधर को वर्धा भेजने भेजने का प्रस्ताव दिया ।  जिससे वह गांधी जी के स्वतंत्रता संग्राम के भागीदार भी हो सके और प्राथमिक शिक्षा और प्रशिक्षण ले सके ।  वे हलधर से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने शिक्षा का पूरा भार सरकार की तरफ से लेने को तैयार हो गए ।  हलधर ने इस मौके को हाथ से एक क्षण भी छोड़ने में व्यर्थ नहीं किया ।  और सेवाग्राम जाने के लिए तैयार हो गए ।  उन्होंने रात की ट्रेन से धुबरी और फिर कोलकाता के लिए रवाना हुए ।  उस समय कोलकाता का किराया ₹२५  था ।  कलकत्ते से वे वर्धा पहुंचे ४८  घंटों की यात्रा के पश्चात । 

वर्धा के एक  शिक्षक का  हलधर को स्टेशन से लाने के लिए आने का शिक्षा मंत्री का आदेश था ।  हलधर को सेवाग्राम जाने के पहले ज्ञात था कि वर्धा में कटहल नहीं मिलता और शायद किसी ने देखा भी ना हो इसलिए भी असम से कुछ कठल लेकर गए थे ।  उन्हें इंटरनेशनल गेस्ट हाउस में रहने दिया गया जहां उनका मित्र बापू राम सालवे उनका रूममेट था ।  यहां एक नई समस्या खड़ी हुई बापू राम को हिंदी नहीं आती थी और हलधर को मराठी ।  वह अंग्रेजी भाषा में संवाद किया करते थे ।  हलधर ने कटहल के विषय में बताने की चेष्टा की।  बापू राम ने तुरंत एक पेपर पर कटहल के विभिन्न भाषाओं में नाम लिख दिए इसके पश्चात कठल को रखने की समस्या  आई ।  हलधर ने इसे गेस्ट हाउस के प्रवेश द्वार द्वार पर रखने का विचार किया ।  गेस्ट हाउस ऐसी जगह पर था कि सेवाग्राम जाने के लिए सभी को इस से होकर जाना पड़ता था ।  फिर तो इसे देखने के लिए भीड़ लग गई ।  शिक्षार्थी शिक्षक डॉक्टर नर्स काम करने वाले हलदर ने सभी को कटहल का एक टुकड़ा खाने को दिया और बीच एक कोने में रखने को कहा ।  उन्होंने कहा किस तरह उनको सब्जी बनाकर खा सकते हैं ।  फल तो खत्म हो गया पर लोग उस छात्र को देखना चाहते थे जो असम से आया था, और फिर तो उनका नाम कटहल भाई के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।  सभी बंधुओं में कटहल का किस्सा काफी प्रसिद्ध हो गया और इससे भी ज्यादा उनकी वाकपटुता ।  सभी विद्यार्थी उनके मित्र हो गए और वह इतने लोकप्रिय हुए कि उन्हें छात्र संघ का महासचिव बना दिया गया ।  अधिकारी शिक्षा और देशभक्ति का प्रशिक्षण समाप्त होने के पश्चात हलदर ने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ डेरी साइंस आई डी डी  बेंगलुरु से प्रशिक्षण लेने का विचार किया, उस समय यह पाठ्यक्रम बहुत प्रतिष्ठित था ।  और यह वर्धा के विचारधारा से काफी मिलता जुलता था यह २ वर्ष का पाठ्यक्रम था, जिसका प्रवेश पत्रता के लिए पशुपालन कृषि विज्ञान या पशु चिकित्सक की आवश्यकता थी । 

हलधर ने इस पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने के लिए २ वर्षीय पशुपालन कृषि और पशु चिकित्सा विज्ञान कृषि विज्ञान केंद्रीय विश्वविद्यालय भारतीय डेयरी विकास के अंतर्गत आरंभ किया ।  जब इस संस्थान में प्रवेश किया उस समय डॉक्टर बाल्जीकर रसायन विज्ञान के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त हुए थे । डॉक्टर बाल्जीकर बहुत ही अच्छे शिक्षक थे ।  उनका विज्ञान की कक्षा इतनी सरल थी कि गैर विज्ञान के छात्र भी उसे सरलता से समझ सकते थे ।  हलधर के साथ  बाल्जीकर के संबंध कुछ विशेष हो गए । वह उनसे इतने प्रभावित हुए कि उन्हें भौतिक और रसायन विज्ञान रात के ११  बजे तक पढ़ाते थे ।  वे  कहते थे कि आप गैर विज्ञान के छात्र होकर भी दूसरे छात्रों को पीछे छोड़ देंगे । 

अपने पाठ्यक्रम के समय उनके सच्चाई अच्छे व्यवहार और कड़े परिश्रम के कारण २० शिक्षकों और छात्रों के बीच समान रूप से विख्यात हो गए थे ।  वैसे तो वे सभी विषयों में प्रथम थे परंतु केरल के बाल कृष्णनन  को रसायन और वनस्पति विज्ञान में उनसे ज्यादा नंबर मिले थे । बालकृष्णनन  बहुत ही मेधावी छात्र था वह केवल २  घंटे सोता था ।  प्रैक्टिकल परीक्षा एक महीने बाद थी ।  उसमें एक था छोटे से भूमि के टुकड़े से कृषि उत्पादन से कौन कितना लाभ दिखा सकता था ।  जैसे ही समझ आया हलधर ने जमीन तैयार करना आरंभ कर दिया ।  सभी ने ट्रैक्टर से जुताई कर गोभी, पत्ता गोभी, बैंगन इत्यादि सब्जी लगाना आरंभ कर दिया ।  हलदर का कुछ दूसरा ही विचार था उनका सोचना था कि जमीन के उस जलवायु सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से कितना उपयोगी था ।  सबसे पहले उन्होंने वहां की जलवायु प्राकृतिक और भूमि की जांच की ।   वह क्षेत्र गोदावरी और नर्मदा का निचला क्षेत्र था और जमीन काली थी ।  नर्मदा महाकाल पर्वत से निकलकर मध्य प्रदेश और गुजरात से होते हुए  अरब सागर में मिलती है ।  नर्मदा के दक्षिण में विंध्याचल पर्वत और महाराष्ट्र है ।  गोदावरी पश्चिमी घाट से निकलकर महाराष्ट्र से आंध्र प्रदेश तेलंगाना होते हुए बंगाल की खाड़ी में गिरती है ।  यह क्षेत्र कपास, गन्ना, अंगूर मूंगफली, संतरा और केले के लिए प्रसिद्ध है ।  विंध्याचल के दक्षिण में वर्ष में दो बार बरसात होती है और चावल यहां की प्रमुख फसल है ।  विंध्याचल के उत्तरी भाग में बरसात कम होने के कारण  ज्वार और अरहर दाल वहां की मुख्य फसल है ।  दूसरी बात यह है कि कृषि का संबंध अर्थ शास्त्र से है ।  भूमि तैयार करने बीज बोने लगाने काटने और उल्लेख आदित्यदी का खर्च कितना होता है जानना बहुत आवश्यक है ।  जब कोई फसल बाजार में जाती है तो उसका कितना दाम होता है ।  क्योंकि बाजार में काफी उतार-चढ़ाव होता है ।  तीसरी बात कुछ ऐसा कर दिखाना था जो पहले किसी ने सोचा भी न था ।  उन्होंने इन सब बातों का गंभीरता से अध्ययन करने के पश्चात अन्य छात्रों से अलग श्रमिक लगाकर भूमि तैयार घर छोड़ दिया ।  अंत में उन्होंने आर्थिक भौगोलिक जलवायु और कुछ नया कर दिखाने की सोच कर अपने फसल का निर्णय लिया ।  वे तुरंत ट्रेन से कोलकाता गए जहां  ग्लोब नर्सरी से कुछ बीज लेकर तुरंत वापस आ गए ।  और बीज बो दिए अन्य छात्र  अपनी फसल के बढ़ने की प्रतीक्षा में इतने व्यस्त थे कि उन्होंने हलदर पर कोई ध्यान नहीं दिया ।  परंतु उनके शिक्षक और छात्रों में कौतूहल जागा कि वह कौन सी फसल होगी जिसे हलदर ने लगाया ।  हलधर ने अपना खेत रोज बेेल गाड़ी पर बैठ कर निरीक्षण करने लगे ।  उन्होंने खेत को स्वयं बैलगाड़ी की सहायता से तैयार किया और उनको कोई भी खर्च नहीं उठाना पड़ा ।  पौधे जब बड़े हो गए तो पता चला कि उनकी फसल गेंदे का फूल था ।  

गेंदा उस  क्षेत्र का महंगा फूल था क्योंकि वह उस समय मद्रास से आता था ।  साल भर उससे आमदनी अच्छी होती थी घाटे की भी कोई गुंजाइश नहीं थी ।  दूसरे छात्रों की फसल बाजार के उतार चढ़ाव और दूसरे खर्चों से अधिक लाभकारी ना था ।  हलधर के फसल में कम खर्चे और थोक बाजार में बिक्री आसानी से होने के कारण  उन्होंने जो लाभ दूसरे छात्रों ने केवल  ₹७००  रुपए ही किया था उनको ८००  से ९०० अंक प्राप्त किए।   हलधर का लाभ  ₹७५०० था और उन्हें पूरे सौ प्रतिशत अंक मिले ।  लिखित परीक्षा में बालकृष्णनन हलदर से २८ अंक ज्यादा लिए थे परंतु प्रैक्टिकल परीक्षा में उन्हें काफी पीछे रह गए और इस तरह हलदर ने प्रथम स्थान  प्राप्त किया ।  मध्यप्रदेश में उस समय गेंदा किसी ने भी नहीं उगाया था।  जब मौखिक परीक्षा में उनसे पूछा गया उनके इतने आत्मविश्वास से फसल उगाने का कारण  उन्होंने उत्तर दिया इस दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं है यदि कोई कड़ी मेहनत और परिश्रम कर अपने लक्ष्य को पहुंचे ।  मुझे लाभ की इतनी अपेक्षा नहीं थी परंतु दूसरों से ज्यादा लाभ का पूरा विश्वास था मुझे अपने पर पूरा भरोसा था । 

आई डी डी  बेंगलुरु

डिप्लोमा पास होने के तुरंत बाद उन्होंने आई डी डी  बेंगलुरु में प्रवेश की तैयारी आरंभ कर दी ।  वर्धा छोड़ने से पहले वह श्री रविशंकर शुक्ला से मिले जो बाद में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री हुए रविशंकर हलदर के सेंट्रल यूनिवर्सिटी की उपलब्धि से प्रभावित होकर उन्हें गजेटेड ऑफिसर राजपत्रित अधिकारी का पद देने के लिए आमंत्रित किया ।  हलधर ने उनको धन्यवाद देते हुए और आभार प्रकट करते हुए कहा मुझे अभी अपनी पढ़ाई पूरी करनी है ।  और वह आई डी डी कोर्स के लिए दाखिल हो गए जिसके लिए उन्हें बेंगलुरु जाना था ।  यह ६ महीने का पाठ्यक्रम था जिसे उन्होंने सरलता से पूरा किया ।  इस समय भी उन्होंने अपने कड़े परिश्रम से और अच्छे प्रदर्शन से भारत सरकार  से २०००  छात्रवृत्ति प्राप्त की । 

वर्धा हलदर के लिए बहुत महत्वपूर्ण जगह थी ।  वह जहां भी जाते थे वर्धा वापस आ कर अपना आत्मबल बढ़ाते थे ।  वर्धा में उन्हें कई राजनीतिक और आध्यात्मिक अधिनायकों से साक्षात्कार हुआ और  प्रज्ञावान  लोगों से मिलने का सौभाग्य  मिला ।  इनमें से कई स्वतंत्रता संग्राम के नेता भी थे जो हलधर से अधिक प्रभावित थे ।  प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉक्टर जैसे  कुमार अप्पा, साहित्यकार काका साहेब कालेकर, श्री धर्म अधिकारी, श्री के एम मशरूवाला, श्री अन्ना साहेब, श्री सहस्रबुद्धे, श्रीमती मीरा बहन इत्यादि ।  वह बंगाल केमिकल के वैज्ञानिक से भी जुड़ गए बंगाल गांधी श्री सतीश चंद्र दास गुप्ता इसके अतिरिक्त श्री भगवानदास केला श्री गोपीनाथ कविराज श्री साने गुरुजी श्री बिनोवा भावे ।  हलधर की जयप्रकाश नारायण से भी मुलाकात हुई और उन्होंने उनका ह्रदय जीत लिया श्री आचार्य कृपलानी जवाहरलाल नेहरू और श्री रविशंकर शुक्ला, श्री सेठ गोविंद दास जी, अमृत कौर जी राजेंद्र प्रसाद सी, राजगोपालाचारी, श्री कृषी पुरुषोत्तम टंडन जी और गुलजारीलाल नंदा, श्री मास नारायण के भी काफी निकट हो गए जो बाद में योजना आयोग के उपाध्यक्ष हुए ।  और श्री प्राण गोपाल कपाडिया माना नारायण से संपर्क के बाद उनका अर्थशास्त्र में दिलचस्पी और बढ़ गई और इस से गहरे अध्यन के बाद वे योजना आयोग से जुड़कर सक्रिय सदस्य हो गए । 

अध्यात्मिक जीवन में प्रवेश का असफल प्रयास 

हलधर के बहुमुखी प्रतिभा क्षमता और व्यवहार से आध्यात्मिक गुरुओं को भी उन्होंने आकर्षित किया ।  इनमें से तुकाराम जी महाराज श्री गोपीनाथ कविराज. प्रोफेसर भंसाली श्री बाबा गोपाल दास और श्री दुर्गा प्रसाद जो इनके आध्यात्मिक गुरु  हुए । 

प्रोफेसर भंसाली अंग्रेजी में प्रथम श्रेणी में आकर ऑक्सफोर्ड में पढ़ाने लगे उनका देश प्रेम और गांधीवाद उन्हें वर्धा आकर्षित कर लाया ।  यह युवा मराठी गांधीजी से प्रभावित होकर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया उन्होंने अहिंसा के सभी कीर्तिमान तोड़कर ९०  दिनों तक सत्याग्रह किया ।  बाद में वे आध्यात्म की तरफ आकर्षित होकर सन्यासी हो गए ।  परंतु उन्होंने समाज सेवा कभी नहीं छोड़ा ।  १९५३  में जब समाज सेवा का कार्य आरंभ हुआ उन्होंने वर्धा से हैदराबाद तक ५००  किलोमीटर का रास्ता साफ किया ।  श्री रामेश्वर के साथ हलधर ने भी इस कार्य में भाग लिया ।  हलधर के प्रोफेसर भंसाली प्रतिपालक और गुरु थे और हलधर ने हमेशा उनकी आज्ञा का  पालन किया ।  झाड़ू और बाल्टी हाथ लेकर वह ९० दिनों में हैदराबाद पहुंचे ।  योगीराज भंसाली से हलधर हृदय से प्रभावित हुए ।  हम यह भी कह सकते हैं कि हलदर से भृगु गिरी होने में ही भंसाली का अत्यधिक हाथ था ।  यह समय था जब श्री भंसाली ने उनके मन में संयास के बीज बो दिए ।  काफी सोच विचार के पश्चात श्री हलधर संयास के पथ पर अग्रसारित हुए ।  बिना किसी  से उन्मुक्त होकर उन्होंने  शांति की खोज  मे  हिमालय की ओर प्रस्थान किया । 

नैनीताल जाकर उन्होंने अपने मित्र अश्विनी कुमार जो उनकी तरह समाज सेवक थे, और एक आश्रम चलाते थे ।  हलदर ने उनके साथ रात्रि व्यतीत किया यहां भी उन्होंने अपना अभिप्राय गुप्त रखा ।  दूसरे दिन भी अपने मित्र से विदा लेकर हिमालय की ओर अग्रसर हुए ।  वह रात-दिन चलते रहे छठवें दिन जंगल के मध्य एक वृद्ध साधु  से मिले ।  साधु ने उनके आने का प्रयोजन जानकार उनका मार्गदर्शन किया ।  हलधर उनके शिष्य बन कर उनकी सेवा करने लगे ।   धीरे धीरे उनका मन शांत होने लगा ।  साधु बाबा ने उन्हें धर्म कर्म अर्थ और मोक्ष के बारे में बताया और एक पेड़ का रस पीने को दिया ।  इस तरह हलदर, साधु के सानिध्य में दिन व्यतीत करने लगे ।  १५  दिन बाद जब वह दोपहर के समय रसपान कर रहे थे, उन्होंने अपने सामने दो सज्जनों को बैठे देखा ।  वह उन्हें पहचान गए ।  एक उनका अध्यात्म गुरु श्री दुर्गा प्रसाद और दूसरा उनका मित्र अश्वनी कुमार थे ।  अश्वनी कुमार पहाड़ी होते हुए भी इस क्षेत्र से अनभिज्ञ थे ।  कई दिनों तक जंगल में भटकने के पश्चात उन्हें एक वृद्ध सज्जन ने एक गुफा का पता बताया जहां उन्हें हलदर से मुलाकात हो गई ।  हलधर का शरीर भस्म से लिप्त  और एक कोपीन कमर में बंधी थी ।  इस  रूप से  वे  काफी आश्चर्यचकित हुए ।  धर्म पिता दुर्गा प्रसाद ने हलधर को उस अवस्था में देखकर दुखी होकर जैसे किसी ने उनके हृदय के टुकडे कर दिए हो उनकी तरफ देखते रहे ।  हलधर साधु बाबा के पास शांत बैठे रहे ।  इतने में दुर्गा प्रसाद बोले तुम न केवल स्वार्थी ही नहीं सहानुभूति हिंदी हो ।  तुम ने न केवल ईश्वर के द्वारा सृष्टि को छोड़ा है परंतु समाज सेवा से भी विमुख हुए हो ।  केवल लोक सेवा से ही तुम ईश्वर प्राप्त कर सकते हो दूसरों की सेवा से ही हम ईश्वर की सेवा करते हैं ।  केवल लोकसेवा के पश्चात ही तुम सन्यास के लायक हो सकते हो ।  ऋषियों ने ईश्वर प्राप्ति ज्ञान साधना के पश्चात ही की है ।  हमें भगवान विष्णु की शपथ लेना चाहिए मोक्ष के लिए ।  सभी आत्माएं इस संसार में एक जंजीर की तरह जुड़े हुए हैं एक दूसरे की सहायता के बिना कोई मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता है ।  इस तरह कहकर दुर्गा प्रसाद अश्रु से भरकर आंखो से हलदर की तरह असहाय देखने लगे ।  यह सब सुनकर बाबा नंद गिरी ने मौन तोड़ते हुए मुस्कुरा कर बोले वापस जाओ बेटे हम १५  दिन हिमालय में साथ रहे हम दोनों इस दुनिया में एक से हैं ।   समय ही सब का उत्तर है और समय आने पर सभी को मोक्ष मिलता है ।  हलधर श्री दुर्गा प्रसाद के साथ वर्धा लौट आए । 

दुर्गा प्रसाद ब्राह्मण परिवार से उत्तर प्रदेश के निवासी थे ।  अपनी पुत्री के जन्म के समय जब उनकी पत्नी की मृत्यु हुई उनका हृदय विदीर्ण हो गया ।  अपने शिशु पुत्री के साथ में शांति की खोज में वर्धा आश्रम आ गए । वहां आए छात्रों को वे अध्यात्म की शिक्षा देते थे ।  उनकी  विरक्ति की अवधारणा अनोखी थी ।  जो सभी के ह्रदय को छू लेता था और हलधर इससे बच न सके ।  हलधर ने देखा कि श्री दुर्गा प्रसाद उनके विचारों और दूसरे गुणों से प्रभावित थे ।  और उन्होंने हलधर को अपना अध्यात्म पुत्र बना लिया ।  उन्होंने हलदर को अपने घर पर रख कर ही शिक्षा लेने की अनुमति दी ।  हलदर श्री दुर्गा प्रसाद की गीता, भागवत, योग आत्मा के विवेचन से अति प्रभावित थे ।  यदि ईश्वर को जानना हो तो अपनी आत्मा की सेवा करो और आत्मा की सेवा के लिए सांसारिक प्रपंचों से मुक्त होना पड़ता है ।  इसलिए वे हिमालय की ओर गए थे ।  श्री दुर्गा प्रसाद हलदर के सन्यासी मन को जानते थे परंतु एकाएक विलुप्त होने से उनका हृदय विदीर्ण होकर वे हलधर की खोज में निकल गए ।  अपने अंतर प्रज्ञा से वे दिल्ली की ओर गए और फिर नैनीताल की पहाड़ी जहां उन्हें अश्विनी कुमार से भेंट हुई जिन्होंने हलदर से मिलने की खबर दी ।  वर्धा में हलदर को वापस पाकर सभी आनंद से ओतप्रोत हो गए ।  हिमालय से लौटने के पश्चात हलदर के पास  पैसे नहीं थे ।  अब वे शांत हो गए थे और अपने ही विचारों में खोए रहते थे ।  उन्हें मोक्ष के बारे में चिंता रहती थी ।  यह बदलाव श्री अन्ना साहेब, श्री शंकर देव, श्री राधा कृष्ण बजाज,  श्री काका साहेब के चिंता का विषय बन गया ।  सभी ने उन्हें वर्तमान में आने की सलाह दी लगभग १  महीने सभी ने बहुत कोशिश की ।  उन्होंने गांधी जी का उदाहरण दिया जो न केवल स्वतंत्रता सेनानी थे वह एक अध्यात्म पुरुष भी थे ।  वह सत्य को जानते थे और अपने  करनी और विचारों से प्रकट करते थे ।   उनके लिए ब्रम्ह सत्य जगत मिथ्या ही सब कुछ था  ।  आत्मा ही सत्य शरीर और संसार कभी माया है ।  साधना से ही इस सत्य को और आत्मा को जाना जा सकता है ।  साधना उनके हिसाब से सरल और साफ थी ।  आत्मा सभी के शरीर में है और आत्मा को जानने के लिए सभी आत्माओं की सेवा करनी चाहिए ।  इस तरह समाज सेवा से ही हम अपनी आत्मा को जान सकते हैं ।  और यही मोक्ष का रास्ता है ।  इस तरह लगातार उदाहरणों से हलधर को समझाने के पश्चात उनके हृदय में परिवर्तन आया।  अंत में उनके मन में कई विरोधाभास भी आए ।  वह फिर उस अकेलेपन से बाहर आकर अपने आप में वापस लौट आए ।  वह अपने चारों तरफ जो हो रहा था उस में उत्साह प्रकट करने लगे और अपने कार्य में व्यस्त हो गए ।  हलधर के इस बदलाव से भी श्री दुर्गा प्रसाद को राहत की सांस ली और उनके मुख पर मुस्कान की झलक पढ़ी जो उनके हृदय के उल्लास से प्रकट हो गया । 

जापान यात्रा का असफल प्रयास

१९५३  के आरंभ में श्री आर के पटेल की अध्यक्षता में चार लोगों को अर्थशास्त्र और कृषि विज्ञान सीखने जापान जाने के लिए   भेजा गया और उनकी वापसी पर ग्रामीण कुटीर उद्योग बोरीवली मुंबई मैं खोला गया ।  यह जापान की चावल की खेती सीखने के लिए था ।  सभी राज्यों के प्रतिनिधि इस केंद्र में भेजे गए केवल असम से कोई ना आया था ।  यह डॉक्टर अन्ना साहब को पता चला और उन्होंने योजना आयोग के अध्यक्ष श्री मन्नारायण से संपर्क कर हलदर को छात्रवृति देकर बोरीबली भेजा ।  यह प्रशिक्षण ३  महीने का था ।  इस प्रशिक्षण  में हलदर के बुद्धिमत्ता और कड़ी मेहनत से प्रभावित होकर जापान के प्रतिनिधियों ने उनको आगे कृषि की शिक्षा के लिए आमंत्रित किया था ।  पर उस वायुयान मे खराबी आने के कारण वह उड़ने के कुछ ही समय मे आकाश मे गोल गोल घूमने लगा। हलधर की चतुर बुद्धि और सहासी स्वभाव ने तुरंत एक हवाई छतरी से पिछले दरवाजे से नीचे कूद पड़े, और समुद्र तट पर आकर गिरे। वही स्थित एक जहाज पर वे कई  दिनों तक अपनी सहभागी जो डर से बेहोश हो गई थी की सेवा कर प्राण लौटाये।  

गोबर गैस प्लांट

जिस समय हलदर बोरीवली का प्रशिक्षण पूरा कर रहे थे एक महत्वपूर्ण घटना घटी ।  श्री जसपाल भाई पटेल भारत के पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने गाय के गोबर गैस बनाने का आविष्कार किया था ।  जो खाना पकाने रोशनी और यंत्रों को चलाने के उपयोग में लाया जाता था ।  श्री अन्ना साहेब ने जसपाल भाई पटेल को कहा कि हलदर को इस प्रविधि को सिखाएं ताकि वह विभिन्न राज्यों में जाकर इसका विस्तार कर सकें।  हलधर ने इसको बड़े ही चाव से सीखा और एक नए प्रेरित कार्य के लिए तैयार हुए।  हलदर ने ३८५० घन फीट का गैस प्लांट आरे कॉलोनी में बनाया यह गोरेगांव महाराष्ट्र में है।  उस समय का सबसे बड़ा गोबर गैस प्लांट था।  यह १४००० पशुओं के गोबर का इस्तेमाल कर सकता था।  इससे हलदर को काफी ख्याति मिली जब हलधर गैस प्लांट के कार्य में व्यस्त थे । 

बोरीवली में मैनेजर

उन्हें श्री प्राणलाल कपाड़िया गांधीवादी और योजना आयोग के सदस्य से एक निमंत्रण मिला।  उन्हें मैनेजर के पद पर कोरा ग्राम केंद्र संस्थान महाराष्ट्र में जाने का निमंत्रण मिला।  यह केंद्र एक से दो किलोमीटर क्षेत्र में फैला था।  इसमें गुड़ खजूर साबुन मिट्टी चीनी मिट्टी के बर्तन आदि बनाने की सुविधा थी।  इसमें जूता बैग और सूटकेस  बनाया जाता था।   यहां एक बड़ा भैंस काटने  की व्यवस्था थी और खाल पकाकर चमड़ा बनाया जाता था।  इससे निकले हड्डियों से पशु चारा और व्यवस्था से साबुन बनाया जाता था।  हलदर इस कार्य को स्वीकार करने में बाध्य थे क्योंकि श्री अन्ना साहेब ने आग्रह किया था।  इस समय श्री मोरारजी देसाई समिति के अध्यक्ष थे और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री भी ।  हलधर ने अपना भार  लेने के पश्चात एक क्रांतिकारी दृष्टिकोण अपनाया।  उन्होंने चौकीदार और मैनेजर के वेतन को  एक समान करने की सलाह दी।  इसका तर्क यह था कि हवा और पानी सूरज की रोशनी सभी को एक ही प्रकृति देती है।  इसी तरह वेतन सभी के कार्य प्रणाली और परिवार के सदस्यों के ऊपर निर्भर होना चाहिए जो समान नहीं है।  इस तरह चतुर्थ कक्षा के कर्मचारियों का वेतन १५०  से ₹१८०  तक होता था, दूसरे और तृतीय श्रेणी के कर्मचारियों का वेतन ९०  से १२० तक हलदर मैनेजर का वेतन केवल ३०  रुपये क्योंकि वह अविवाहित थे।  आरंभ में समिति के सदस्यों का विरोध चलता रहा अंत में हलदर ने सदस्यों को विश्वास दिलाया कि किसी भी परिणाम के लिए वे उत्तरदायित्व लेंगे।  उन्होंने तुरंत कर्मचारियों की सभा का आव्हान किया।  उन्होंने इस प्रस्ताव को समझाया और इसको लागू करने के लिए उनके सहयोग की अपेक्षा  की ।  उन्हें अच्छी तरह ज्ञान था कि  कर्मचारियों अपने  दिल और दिमाग से कार्य करना चाहते थे।  उन्होंने अगर कार्य करने का समय आधा घंटा बढ़ा दिया।  इस तरह कर्मचारियों की क्षमता बढ़ी जिससे उत्पादन और लाभ दोनों बढ़ गए।  इससे कुछ द्वितीय श्रेणी के कर्मचारी चतुर्थ श्रेणी में आ गए और इसके साथ ही कार्य क्षमता और एकता की भावना सभी में जागृत हुई।  नए नियम नियम लागू होने के पश्चात लाभ दोगुना से भी ज्यादा हुआ यह वेतन वृद्धि के हानि के बाद।  कर्मचारी ने मैनेजर को लक्ष्मी नारायण के नाम से बुलाने लगे।  इससे कर्मचारी समिति के सदस्य और हलधर सभी  प्रसन्ना थे। 

असम में एक कहावत है कि मैं अपने मां के घर हाथ जोड़कर जाऊंगा परंतु विधि का विधान तो हमारे साथ रहता है।  इस तरह उस संस्थान का भी भाग्य था।  मवेशियों के वसा को स्थानीय बाजार में टेंडर बुलाकर बेचा जाता था।  हर टीन स्थानीय बाजार में भेजा जाता था।  वसा को साफ कर बाजार में भेजा जाता था।  एक व्यापारी ने सुझाव दिया यदि वसा  को दो बार साफ किया जाए तो वह दो रुपए प्रति टिन ज्यादा पैसा देंगे।  क्योंकि परमिट रेट पहले से ही टैग था वह दो रुपए मैनेजर के खाते में जाएगा।  हलधर कुछ ना प्रतिक्रिया व्यक्त कर उस व्यापारी के साबुन के कारखाने गए।  उस समय कारखाना बंद था चौकीदार से अनुरोध करने पर भी जब अंदर गए तो अंदर साबुन बनाने के साथ  ही घी बनाने की भी व्यवस्था थी जहां उनके संस्थान के बंद वसा के टिन भी पड़े थे।  हलधर का   संदेह सत्य मे  बदल गया और वह आश्चर्यचकित परंतु क्रोधित हो गए।  वह अश्रु भरे आंखों से संस्थान लौटे और उस व्यापारी का परमिट लाल स्याही से निरस्त कर दिया।  व्यापारी ने मोरारजी से झूठी पेशकश कर हलदर के विरुद्ध नोटिस भेजा।  हलधर तुरंत ही कपाड़िया को बुलाकर मोरारजी के कार्यालय गए।  अंदर आते ही श्री मोरारजी देसाई ने  हलधर पर क्रोधित होकर डांटना आरंभ कर दिया।  संयम से हलदर पूरी बात सुन कर बोले एक तरफ सुनकर कभी भी किसी बात का निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है।  कानून कोई भी अपराधियों को दंडित कर सकता है परंतु  अपराधी की एक भूल से भी दंडित करना उचित नहीं है।  मोरारजी उनकी बातों को शांत होकर सुन रहे थे और उनसे  हलदर का तात्पर्य क्या था पूछा ।  हलधर बोले वे  बेकसूर है और इस को सिद्ध करने के लिए उनको सहायता चाहिए और इसमें फेल होने पर वह किसी भी दंड के लिए तैयार हैं।  श्री देसाई से सहायता का आश्वासन मिलने के बाद हलदर ने पुलिस की सहायता से मिलावटी घी बेचने के विरुद्ध व्यापारी पर अभियोग का आवेदन किया।  इसे पढ़कर से देसाई शर्मिंदा होकर शांत हो गए।  उन्होंने तुरंत पुलिस कमिश्नर को इस व्यापारी को गिरफ्तार करने का आदेश दिया।  १  घंटे के अंदर व्यापारी गिरफ्तार हुआ और उसकी फैक्ट्री में ताला डाल दिया गया।  इसके पश्चात श्री देसाई ने अपने दुर्व्यवहार के लिए हलधर से माफी मांगी जो उनके बैठक में चुप चाप बैठे थे।  हलधर  चुपचाप उठे और अपना इस्तीफा  देकर हाथ जोड़कर संस्थान को छोड़ दिया।  उन्होंने अपना हिसाब पूरा कर उप प्रबंधक को उत्तरदायित्व देकर टैक्सी में बैठ कर सीधा वर्धा लौट आए।  दूसरे दिन श्री कपाड़िया और अन्ना साहेब हलदर से मिलने आए और श्री देसाई के दुर्व्यवहार के लिए क्षमा याचना की।  उन्होंने बताया कि कर्मचारी कैसे दुखी होकर हड़ताल के लिए तैयार थे यदि उनको वापस न लिया गया।  उन्होंने यह भी कहा कि उनके लौटने पर कोई भी उनके कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेगा और उनको किसी भी निर्णय लेने की पूरी आजादी होगी।  परंतु हलधर अपने निर्णय पर अडिग रहें और उनको विदा कर दिया। 

मधुमक्खी पालन

कर्मयोग केंद्र से लौटने के पश्चात हलदर को कीट के मनोविज्ञान पढ़ने का शौक हुआ।  मधुमक्खी के मनोविज्ञान या मधुमक्खी की भाषा के विषय में एक जर्मन लेखक की पुस्तक में उन्हें बहुत प्रभावित किया।  अन्ना साहेब ने उनका उत्साह देख कर कुछ और पुस्तकें ला कर दी और जिससे एपीकल्चर एक गृह उद्योग शहद और खाद्य उत्पादन प्रवासी मधुमक्खियों को इटली में रखना  एपिस मेलिफिका इन द वर्ल्ड इत्यादि।  हलधर पूरी तरह से अध्ययन में लग गए।  कुछ दिनों पश्चात उन्हें खबर मिली कि भारत सरकार ने जापान सरकार से मिलकर एपीकल्चर संस्थान महाबलेश्वर पश्चिमी घाट में खोला है।  १४  छात्र पूरे भारत से भेजे गए और इसमें हलदर का भी नाम था।  श्री अन्ना साहेब ने उनका नाम योजना आयोग की सिफारिश  से रखा था।  उन्हें ७  दिनों के भीतर जाना था।  जब से महाबलेश्वर पहुंचे उन्हें पता चला दूसरे सभी छात्र जीव विज्ञान वनस्पति विज्ञान रसायन विज्ञान और कीट विज्ञान में स्नातक थे । यह उनकी साधना की एक और परीक्षा थी।  उन्होंने वनस्पति जीवन रसायन विज्ञान में पढ़ाई आरंभ कर दी ।  एक दिन एक घटना हुई, इस संस्थान के १४  छात्रों को डॉक्टर  अर्धाधाकर वनस्पति संग्रहालय के लिए प्रतिरूप संग्रह करने के लिए घने जंगल में भेजा।  जंगल महाबलेश्वर से लगभग ३०  किलोमीटर दूर था और जंगली जानवरों से भरा था।  सभी को ४  बजे लौट कर बस में बैठना था जब सब सभी बस में संस्थान पहुंचे तो पता चला कि हलधर उसमें नहीं था।  तब तो भय की लहर सब में दौड़ गई  उन्हें समझ में नहीं आ रहा था की अभी हलदर को खोजने जाए या प्रातः  होने पर।  सभी व्याकुल थे, डॉक्टर  अर्धाधाकर को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था।  आखिर उन्होंने दिन निकलने पर ही जाने का निर्णय लिया क्योंकि अंधेरे में ढूंढना असंभव था।  उन्हें प्रातः का इंतजार था, वह रात भर सोए नहीं और हलदर की सुरक्षा की प्रार्थना ईश्वर से करते रहे।  हलधर जब प्रतिरूप की खोज में घने जंगल में चले गए और लौटने पर बस उनको छोड़ कर जा  चुकी  थी।  वह बिल्कुल भी चिंतित नहीं हुए और ना घबराए उनके मन में रात सुरक्षा जनक बिताने का विचार आया।  उन्होंने दो पेड़ों की डाल जो एक दूसरे के पास था अपने को साल से बांधकर सोने का निर्णय लिया।  जिस से नीचे ना गिर जाए दूसरे दिन सूरज की रोशनी से उनकी नींद टूटी जैसे ही वह नीचे आए हैं देखा कि डॉक्टर अर्धाधाकर उन को पागलों की तरह ढूंढ रहे थे जैसे ही उन्होंने हलधर को देखा वह गले लगा कर रोने लगे।  ७०  साल के डॉक्टर अर्धाधाकर अपनी कार में बैठाकर सीधे महाबलेश्वर मंदिर गए जहां उन्होंने रात बिताई थी।  उन्होंने सोचा यह एक आश्चर्यचकित घटना है जो ईश्वर की माया है हलधर खोकर पाना।  इसके पश्चात डॉक्टर अर्धाधाकर हलधर को अपने पुत्र की तरह अपने पास रखने लगे और जब उन्हें पता चला कि हलदर विज्ञान के छात्र नहीं थे वे स्वयं उन्हें जीव और रसायन विज्ञान पढ़ने लगे अर्धाधाकर एक जाने-माने विश्व विख्यात वैज्ञानिक थे बाद में वे निर्देशक और संस्थान के सलाहकार भी हुए हलधर यहां भी एक सफल छात्र होकर मेरिट में प्रथम स्थान प्राप्त किया । उनके हुनर और कौशल को देखकर निर्देशक भारतीय उद्योग श्री बापू राव अन्ना साहेब ने उन्हें प्रवासी मधुमक्खी के रखरखाव का एकमात्र उत्तरदायित्व दिया।  भारतीय सरकार इस पर करोड़ों रुपए खर्च करना चाहती थी और उन्होंने हलदर को इटली भेजने के लिए ३ वर्ष का फैसला किया।  उस समय इटली में यह बहुत सफल उद्योग था।  उनके उद्योगिक केंद्र आने के लिए विशेष रेल चलती थी।  प्रोजेक्ट रिपोर्ट में बताया गया था कि अगले ५  वर्षों में दो २५००  करोड़ों का लाभ प्रदर्शित किया गया था।  इसके अलावा प्राकृतिक परागण से लाभ और भी अधिक हो सकता था।  इससे लाखों लोगों को नौकरी भी मिलेगी और जवाहर लाल नेहरू  जी ने इसके लिए स्वीकृति दी थी।  उसी समय डॉक्टर हरी कृष्ण दास चांदमारी गुवाहाटी से सरकार की सलाह पर बीडीओ और विस्तार कर्मचारी एक्सटेंशन वर्कर का प्रशिक्षण स्कूल खोलना चाहते थे, और इसके लिए उन्होंने हलधर को सबसे उपयुक्त समझा।  जाने के पूर्व हलधर ने कृष्णदास से २  वर्ष के पश्चात लौट आने की प्रतिज्ञा की थी।  हलदर में एक और खूबी थी कि वह किसी भी कार्य को उसकी प्रतिष्ठा के आधार पर पर नहीं चलते थे।  वह किसी भी कार्य को इमानदारी और निष्ठा लग्न से करते थे।   उनके लिए प्रतिबद्धता सबसे महत्वपूर्ण था और उसके लिए वे पूरी जान लगा देते थे।  उनको दूसरों के दबाव में आकर भी जो न्याय संगत और सही लगता था वही करते थे।  वह किसी भी दबाव व प्रलोभन  से नहीं झुकते थे।  सफलता के लिए चिंतामुक्त धीर अधीर होकर और अक्षम काम करना चाहते थे। इसके लिए हलदर आसाम लौट आए।  हलदर गुवाहाटी लौट आए और कृष्णदास से मिलकर उनका दिया हुआ कार्य संभाला इसके अलावा वे अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर आसाम गौशाला समिति का गठन किया।  १९५६  में पशुपालन के लिए यह कार्य किया।  वशिष्ट चाय बागान के मालिक ने १००  बीघा जमीन दान दिया।  इसका मुख्य उद्देश्य था वर्तमान नस्ल की गायों को सुरक्षित करना उनके दूध की उत्पादन में बढ़ोतरी करना बिना पार प्रजनन के उच्च कोटि के गायों के साथ।  यह प्रयोग बहुत सफल हुआ क्योंकि देशी गाय दूसरे और तीसरे पीढ़ी में ८  से १०  लीटर दूध दूध देने लगी।  हलदर के अनुसार पांचवी पीढ़ी की गाय १८  लीटर दूध देना चाहिए।  वशिष्ट चाय बागान के दाता के साथ एक हादसा हुआ और सभी प्रचालन बंद करना पड़ा।   वह इस हालत में हो गया कि चाय बागान को पूरी तरह से बंद करना पड़ा हलदर ने चाय बागान के मालिक से बात किया और उन्होंने २५००  बीघा जमीन केवल २००००  रूपये में बेचने के लिए तैयार किया।  हलधर घर आ कर इस प्रस्ताव के विषय में सोचने लगे।  सबसे पहले उन्होंने सरकार से ऋण के लिए दरवाजा खटखटाया।  राज्य मंत्री बोले जो जमीन समिति के नाम से पंजीकृत होता है वह ले सकते हैं।  हलधर ने २०००००  रुपये किसी जाने पहचाने संपन्न व्यक्ति से लेकर मकान मालिक को दिए।  इस तरह पशुपालन २००००  बीघा जमीन पर शुरू होने वाला था।  खरीब गौशाला और प्रत्येक में ५०  से १००  तक गायों का प्रजनन करना था।  पढ़े लिखे नौजवानों को इस कार्य के लिए रखा गया।  उन्हें एक रकम समिति को देना था।  निगम उनको चाय दवाई घर आदि उपलब्ध करना चाहिए था।  १५०००  बीघा शेष भूमि को चारे के उत्पादन के लिए लगाया गया।  दूध से घी मक्खन क्रीम तैयार किया जाना था और दूध को पाश्चुरीकृत कर लोगों को भेजना था।  जिस समय यह सब योजना बनाई गई चाय बागान के मालिक संस्थान के सदस्यों से मिलने आया।  और दो लाख रुपए वापस कर दिए।  समिति के पास और कोई विकल्प नहीं था सिवाय सरकार से ऋण लेने का।  समिति ने इस सब में बहुत सा समय व्यर्थ  गवाया । समिति ने भी कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ा।  इनमें से दो ने तो संन्यास  ले लिया, एक की मृत्यु हो गई और कुछ के परिवार में समस्या आ गई हलधर अकेले ही थे और इस परियोजना को आगे बढ़ाने के विस्तार मन में आ रहे थे पर उनका मन दूसरी  तरफ गया हलधर ने इसके बाद मधुमक्खी पालन खोलने का विचार किया और मधुमक्खी पालन केंद्र में प्रशिक्षण आरंभ करने का भी।  केरल से शिक्षक बुलाए गए छात्र केरल मणिपुर त्रिपुरा नेपाल और पश्चिमी बंगाल से आए।  यह करीब १०००  लोगों का संगठन था।  और यह खादी ग्राम उद्योग और भारतीय औद्योगिक अनुभाग में पंजीकृत किया गया।  हलधर इसे अकेले प्रभारी के रूप में संभाला।  हलदर में खंड विकास अधिकारी ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिसर को विश्वास दिलाया कि मधुमक्खी पालन केंद्र सभी गांवों में खोला जाए।  इस तरह मधुमक्खी पालन के क्षेत्र में आसाम में एक क्रांति ला दी।  मधुबन नाम की दुकानों में जो पान बाजार में था शहद बेचा जाता था।  इसके अतिरिक्त मधु कोलकाता के अभय आश्रम द्वारा खरीद लिया जाता था।  इस तरह जैसे असम में शहद की वृष्टि होने लगी। 

बेलतोला का विकाश

सन १९५६  में जब भारत हरित क्रांति में व्यस्त था  गांधीवादी हलधर  कामरूप के  बेलतोला पहुंचे।  यह आसाम का सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से कमजोर हिस्सा था, और पिछड़ापन चौका देने वाला।  यहां के लोगों का स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं था।  हैजा मलेरिया और कुष्ठ रोग यहां पर बहुत ही ज्यादा था।  मद्यपान यहां के लोगों का बहुत बड़ा  श्राप था। यहां के लोगों में जैसे जीने का कोई  उत्साह ही ना था।  वह केवल जीने के लिए ही जी रहे थे, इसके ऊपर यहां की जलवायु भी उन्हें आलसी कर देती थी।  भौगोलिक रूप से देखा जाए तो यह क्षेत्र उत्तर में हिमालय पर्वत जो कश्मीर से आरंभ होकर अरुणाचल तक होते हुए नागालैंड तक फैला हुआ है, और दक्षिण में मिकिर गारो और खासी पहाड़ तक।  यहां  के पर्वत एक हाथी के रूप में दिखाई देता है जिसकी सूंड आसाम के पूर्वी भाग में है। खासी पहाड़ पर मानसून आने पर चेरापूंजी में बरसात होती है, मानसून को आसाम में आने के लिए बांग्लादेश होकर सिक्किम होते हुए पूर्वी तराई  पास तक जाना पड़ता है इस तरह मानसून पहले उत्तरी पूर्वी तट ब्रह्मपुत्र से होकर दक्षिण की ओर आता है।  जहां दक्षिण तट  पर नागालैंड  में किरदारों पर्वत से टकराता है।  दक्षिण तक आते समय मानसून सूखकर गर्म हवा में बदल जाता है। इन  क्षेत्रों में बरसात बहुत कम होती है।  मिकिर  पर्वत का क्षेत्र तो सूखा ही रहता है केवल २०  से ३० सेंटीमीटर की बरसात होती है।  इन  गर्म हवाओं के कारण बेलतोला में हैजा मलेरिया और कुष्ठ रोग ज्यादा होते हैं।  खेती यहां का मुख्य व्यवसाय था और चावल मुख्य उपज होती थी।  ज्यादातर लोगों के पास भूमि नहीं थी  और वे  मजदूर ही थे, और जमींदारों के अधीन किसानी का काम करते थे। जिसके पास भूमि का टुकड़ा भी होता था वह इसे बेच कर अपने मवेशी या परिवारजनों की मृत्यु के समय उधर चुकाते थे।  महाजन इनको थोड़े से पैसों के लिए लेकर इन को शोषित करते थे।  महाजन इनसे भूमि खरीद लेते थे, या बाहर से आए किसी लोगों को बेच देते थे जो एक और महाजन हो जाता था ।  दक्षिणी बेलतोला में केवल १  प्राथमिक पाठशाला थी । यह सब १९५०-५१  के साम्यवाद का गड़  होने के पश्चात भी।  यहां एक विश्वसनीय साथी की आवश्यकता थी। 

हलधर भारी मन से घर लौटे वह इन लोगों का जीवन सुधारना चाहते थे परंतु आरंभ में थोड़े से भ्रमित थे।  उन्होंने सभी के घर जाना आरंभ कर दिया और उनके बारे में पूछना शुरू किया।  इसके अलावा उन्होंने कुछ मेडिकल सहायता भी आरंभ किया।  उन्होंने उनके जीवन स्तर को सुधारने की कोशिश की परंतु कहां से आरंभ किया जाए यह साफ न था।   धीरे धीरे लोगों ने अपनी समस्या बता ना आरंभ किया।  हलधर होम्योपैथी के अति  प्रशंसक थे।   धीरे धीरे वह सबके हृदय में बस गए।  उन्होंने महिलाओं और पुरुषों के अलग-अलग सभाएं बुलाकर उनकी समस्याओं को विचार विमर्श करने लगे। 

यह सब दिनचर्या के बाद भी हलधर १९४६  से सुबह ४  बजे ही उठ जाते थे और ध्यान किया करते थे।  किंतु उन्होंने पूजा कभी नहीं की।  कोई भी कार्य जब नियमित रूप से किया जाता है तो वह मृत्युंजय हो जाता है।  उन्हें विश्वास था कि समय प्रकृति और दिव्य शक्ति ही इस ब्रह्मांड का परिचालन करते हैं।  वह जानते थे कि केवल जप और ध्यान से ब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है।  हलधर जानते थे कि यह लोग सरल हृदय के सीधे साधे लोग हैं।  उन्होंने सोचा उनके बीच एकता समन्वय लाने का एकमात्र उपाय था पूजा और धर्म की शिक्षा।  प्रतिदिन लोग पेड़ के नीचे एकत्र होकर पूजा पाठ किया करते थे।  दुर्गा पूजा शिव पूजा लक्ष्मी विभिन्न स्थानों में होती थी।  धर्म में एक सांस्कृतिक परिवर्तन आया।  स्कूल और कॉलेज क्लब इत्यादि खोले गए विभिन्न स्थानों में।  हलधर ने कुछ खेती में भी परिवर्तन लाया।  उन्होंने सामूहिक कृषि पद्धति की शिक्षा दी।  उनके आचार विचार के कुछ नियम बनाए गए थे।  फसल के बाद  अनाज को बीज  के लिए बचा कर बाजार में बेचा जाता था।  फसल बेचने से आए धन से महाजन के ऋण चुकाया जाता था।  एक और नियम था बीज के लिए बचाए गये  चावल से शराब  बनाने की अनुमति नहीं थी।   इसका परिणाम  पहले फसल से ही दिखाई देने लगा।  नैतिक रूप से उन्हें ज्ञान हो गया कि शराब पीना उनके लिए उचित नहीं है।  २  वर्षों में ही शराब पीना ५०  से ७% कम हो गया और अंत में पूरी तरह से बंद हो गया। 

हलधर ने बेलतोला क्षेत्र में ६  से ७  स्कूल खोले और अपने पैसों से शिक्षकों को वेतन दिया।  प्राथमिक माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्कूल खोले गए।  उनका एक स्वप्न था की बेलतोला में एक कॉलेज खोला जाए।  उन्होंने  सरकार से ३०  बीघा जमीन लेकर कॉलेज आरंभ किया।  ४.५  बीघा जमीन बेलतोला  कॉलेज को दिया गया।  प्रवासी लोगों के लिए हिंदी माध्यम में स्कूल खोला गया।  पशु चिकित्सा केंद्र खोला गया।  कुछ लोगों से मिलकर उन्होंने रास्ते का निर्माण भी आरंभ किया । बेलतोला से बशिस्ठ  तक ४  किलोमीटर का रास्ते का निर्माण इसी तरह हुआ।  इसी तरह वशिष्ट से पथोरकुशी, वशिष्ठ से मांझीपारा, पथोरकुशी से बेलतोला, बेलतोला से खानापाड़ा का रास्ता भी बना।  वशिष्ठ से वोलुकासुक  (नारीकेल बस्ती)  जपोरीजुग से होते हुए रास्ता बनाया गया। 

आरंभ में उन्हें लोगों से कोई सहयोग नहीं मिला और महाजन दलाल इसका विरोध कर रहे थे।  उन्हें कुछ दोस्तों ने कहा आप इन लोगों के स्तर को क्यों बदलना चाहते हो जब यह आपका साथ नहीं दे रहे हैं।  आप उनकी प्रगति के लिए इतने उत्साहित क्यों हो ? यह लोग आप का साथ कभी नहीं देंगे।  इसके उपरांत आप तो अविवाहित हो फिर स्कूल क्यों खोलना चाहते हो ?  यह सब सुनकर हलधर उनकी मानसिकता को समझ गए।  उन्होंने सोचा यदि मैं इनको अनुशासन की शिक्षा दूंगा शायद यह कभी नहीं समझेंगे।  क्योंकि वह स्वार्थी और भौतिकवादी थे।  हलधर ने कहा मैं इनका भला नहीं कर रहा हूं सिवाय मेरे स्वार्थ के।  यह एक गंदा क्षेत्र है यहां अनपढ़ लोग रहते हैं आप इनके  बीच  कैसे रह सकते हैं।  मैं अपने लिए एक स्वच्छ वातावरण का निर्माण करना चाहता हूं।  हो सकता है मैं कल विवाह कर लूं फिर तो मेरे बच्चों के लिए भी यह उपयोगी होगा जब वह बड़े होंगे उनको भी तो साथी की आवश्यकता होगी और क्या इन शराबियों के साथ वह बड़े हो सकेंगे।  उन्होंने कहा   सभी इस गंदे तालाब का पानी पी रहे हैं और कोई इसे साफ करने के लिए सामने नहीं आ रहा है।  यदि हम इसकी सफाई नहीं करते क्या यह आत्मघाती नहीं होगा।  यदि हम इसको साफ न करें कल इस गंदे पानी को पीकर मेरी भी तो मृत्यु हो सकती है।  उनकी बातों को सुनकर सभी चुप हो गए। 

हलधर इन सभी सामाजिक कार्यों के पश्चात भी कभी अपने को प्रतिबंधित नहीं सोचते थे।  उन्होंने कुछ और गांधीवादी जैसे हरी कृष्णदास श्री भुवनेश्वर बरूआ श्रीमती कमल प्रभा दास के साथ  एक संगठन बनाया जिसका नाम कुटाई मंडल था।  यह प्रति सप्ताह एक बार मिलकर चरखे से सूत  कातते थे ।  मार्क्सवादी दर्शन शांति अर्थ शिक्षा कर्मचारियों की समस्या और गांधी दर्शन इत्यादि विषयों की चर्चा भी होती थी।  शिक्षक और छात्रों के बीच खुले विचार विमर्श भी होते थे।  इसी बीच हलधर ने लिखने का कार्य आरंभ किया और कुछ पुस्तकों का अनुवाद आरंभ किया।  उनकी लिखी पुस्तकें आज भी सर्वोदय प्रकाशन में उपलब्ध है।  जैसे बुद्ध ध्यान दीपिका, सर्वोदय इतिहास, विज्ञान, शिक्षा आदि विषयों पर।  कुछ समय के लिए सर्वोदय मासिक पत्रिका के संपादक भी रहे।  उनके कई भाषण और उनके साथियों के साथ गांधीवाद पर चर्चा के सारंग सभी दैनिक समाचार पत्रों में छपे। 

१९५७  में भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें राष्ट्रीय गौ संरक्षण संस्थान के सदस्य के रूप में मनोनीत किया।  वह इंडियन लाइवस्टॉक फेडरेशन के संपादक भी रहे ३ वर्षों तक।  सेंट्रल काउंसिल केंद्रीय परिषद के ७  वर्षों के लिए सदस्य थे।   विश्व शाकाहारी   सम्मेलन  विभाग के सदस्य भी थे।  श्रीमती रुकमणी अरुण, दल के अध्यक्ष और सी राजगोपालाचारी संरक्षक थे हलधर उसके सचिव थे।  उन्होंने सभी कार्य ईमानदारी और समर्पण से किया हलधर ने कोई भी कार्य अधूरा नहीं छोड़ा।  अलग-अलग जगहों से लोग उनसे मिलने आते थे और अपनी समस्याओं के समाधान के लिए और इनका समाधान निकालते थे।  एक बार ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट के लोग अपने लिए भूमि के संदर्भ में आए ।  हलदर ने कुछ सरकारी जमीन देखा जो नरकासुर पहाड़ी की उत्तर दिशा जहां ईंधन भंडार के लिए जाना जाता है, हलधर ने यह हिस्सा सरकार से मिलकर उनको सहमत करा कर लोगों को अपने घरों के लिए वितरित की।  सरकारी कर्मचारियों के कई मकान भी आए यहां पर।  हलदर ने देखा कि स्कूल कॉलेज और मंदिर क्लब के लिए भी यथार्थ स्थान से रहे।  उन्होंने एक स्कूल, कर्मचारी और व्यापारियों और दूसरे से दान लेकर बनवाया ।  शुरुआत में तो उन्होंने कई छात्रों को पढ़ने और शिक्षकों का वेतन स्वयं के खाते से ही देते थे ।  इस कॉलोनी का नाम विद्यांचल रखा गया।  उन्होंने एक मंडल बनाया था कि लोग सामान्य  खासना दे  सके। हलधर ने  सरकारी और सामाजिक कार्यों में भी हाथ बंटाया। कांग्रेस सरकार उन्हें एक महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने पार्टी के लिए मानते थे।  श्री सिद्धनाथ शर्मा श्री उमिया कुमार दास श्री विजय भगवती श्रीमन प्रफुल्ल गोस्वामी श्री देवेश्वर शर्मा का हलदर के प्रति अत्यंत अनुराग था।  कई समय उनके मंत्रालय के समस्याओं का समाधान के लिए वे हलधर की सहायता लेते थे।  एक बार सभापति के चुनाव के लिए दो पक्षों के नेताओं में विवाद छिड़ा दोनों पक्ष एक दूसरे के विरुद्ध लड़ रहे थे और समाधान कुछ भी नहीं निकल पा रहा था।  असहाय पार्टी के सदस्य हलदर के पास आए समाधान के लिए।  हलधर ने कहा ज्ञानी लोगों का मन बदलने में कितना समय लगता है । ये अनपढ़ लोग सरल है यदि मुझे यह भार सौंपा गया तो मैं इसे २  दिन में सुलझा दूंगा।  पहले दिन के अंत तक हलदर को समस्या का कोई भी समाधान नहीं दिखाई दिया।  दूसरे दिन पार्टी के सदस्य समय से पहले ही एकत्र हुए सभी अति चिंतित थे और व्यग्रता पूर्ण हल्दर की प्रतीक्षा कर रहे थे।  उनके मन में २  प्रश्न उठ रहे थे क्या इस समस्या का कोई समाधान है और हलधर इसका समाधान कैसे करेंगे।  हलधर ने जैसे वचन दिया था समय से पहले ही वहां पहुंच गए।  सभी बहुत कुंठित थे और सभी के कान हलधर को सुनने के लिए आतुर थे।  जैसे ही समय आया हलदर ने समाधान सबके सामने रख दिया।  सभी की प्रत्याशा के विरुद्ध उन्होंने एक तीसरे आदमी का नाम सभापति के लिए सामने रखा।  यह एक नौजवान सक्षम समर्पित कुशल निपूर्ण व्यक्ति उस पथ के लिए सर्वश्रेष्ठ था दोनों पक्षों ने इसे अविलंब स्वीकार कर लिया यह नया व्यक्ति कांग्रेस का सभापति हुआ। 

अखिल भारतीय कांग्रेस के नेताओं के साथ निकट संबंध होने के कार्य राज्य के कार्यों में भी उनका बहुत प्रभाव था।  वे राज्य या केंद्रीय मंत्री हो सकते थे परंतु उन्हें प्रशासन या सत्ता का कोई लोभ  नहीं था।  उन्होंने कभी कोई अवसर स्वार्थ के लिए नहीं किया।  एक बार फिर सिद्धि नाथ शर्मा ने हलधर को पूछा वह विधानसभा क्यों नहीं आते उन्होंने हंसकर कहा विधानसभा को मेरे जैसे जवान नेता की क्या आवश्यकता है।  आप के मंत्री मंडल राज्य मंत्री संसद सचिव उपमंत्री उपाध्यक्ष और १८  विधानमंडल के सदस्य सरकार को चलाने के लिए क्या पर्याप्त नहीं है।  हम नौजवानों को गांव की समस्याओं को सुलझाने के लिए समय चाहिए।  सरकार को चलते हुए १०  वर्ष हो गए हैं फिर भी हमें चावल, वर्मा और अमेरिका से आयात करना पड़ता है।  हम को  पी एल ४८०  पोषण हीन जहरीला चावल खिलाया जाता है।  हमें मंत्री होने में क्या गर्व होगा।   आपके सभी मंत्री दूसरों पर निर्भर होकर अपने पद का आनंद ले रहे हैं।  हम आर्थिक विकास और समाज कल्याण चाहते हैं।  राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ हम आर्थिक स्वतंत्रता चाहते हैं।  आत्मनिर्भरता हमारा मुख्य विषय है।  हमारे देश में अच्छे रास्ते संचार व्यवस्था बिजली पानी और कपड़े की कमी है।  एक लाचार राजा इन सब के पश्चात कैसे खुशी से रह सकता।  हमें अपनी समस्याओं के जड़ को निकालना होगा जिसके लिए हमें गांव जाने की आवश्यकता है।  जहां अभी भी उपजाऊ भूमि खाली पड़ी  है।  हमें अशिक्षित किसानों को सिखाना होगा चावल, जूट, सरसों की खेती कैसे करें।  हमको ऐसे मंत्री की क्या आवश्यकता जिसे अर्थव्यवस्था का कोई ज्ञान नहीं हो।  आई ए एस  ऑफिसर देश को चलाने के लिए पर्याप्त हैं।  हमारे देश की आधारभूत आवश्यकता आर्थिक व्यवस्था को  सुद्रढ़ करना है और उत्पादन बढ़ाना है।  उत्पादन के बढ़ने से हमारी अर्थव्यवस्था में सुधार होगा और इसके फलस्वरूप देश राजनीति में सक्षम होगा ।  अर्थ और राजनीति दो दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।  अर्थ व्यवस्था का अर्थ है उत्पादन संग्रहण और संचयन।  राजनीति का अर्थ है सभी को उनकी आवश्यकता अनुसार वितरण करना जो एक सरकारी अफसर ही कर सकता है।  शिक्षा पद्धति में सुधार अर्थव्यवस्था में सुधार से देश भक्ति जागेगी। भाईचारा और एकता का संचार होगा।  हलधर को वोट इकट्ठा करने के लिए स्वयं की प्रशंसा करना अच्छा नहीं लगता था और इसके लिए आसपास के लोगों को नीचा दिखाना उनके अनुसार यहां एक आत्मा विकर्षण है।  जो शास्त्रों के अनुसार मृत्युतुल्य आत्म प्रतिकर्षण है।  जो पुरुष अपनी प्रशंसा करता है वह उसका सामाजिक पालन दर्शाता है । इस कारण  उन्होंने इस प्रस्ताव को कभी भी स्वीकार नहीं किया। 

१९६१  में उन्हें केंद्रीय परिषद के अवैतनिक मानव संयुक्त सचिव बनाया गया जिसे उन्होंने स्वीकार किया।  उन्होंने पहला  कार्य सांसद के कार्य की नैतिकता में परिवर्तन लाना था।  इसके अनुसार किसी के टेबल पर कोई भी फाइल ३  दिनों से ज्यादा बिना किसी कार्य से नहीं रखना होगा।  इस वर्ष के अंत में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया और वे आसाम  घुस आए।  भारत को अमेरिका की सहायता लेना पड़ा और चीन को पीछे हटना पड़ा।  चीन का आक्रमण इसका एक अच्छा उदाहरण था की भारतीय सरकार और नेताओं को आर्थिक व्यवस्था में सुधार लाने की आवश्यकता पर विचार करना चाहिए ।  इसी के साथ राजनीतिक स्वतंत्रता स्वाभाविक है।  यह समय भारत के लिए एक विशेष संकट का समय था।  पहली बात कि  भारत को  किस दिशा में आगे बढ़ना है दूसरा जवानों को भोजन की व्यवस्था कैसे करना है ,उसी समय हलधर को सूरत गुजरात में सर्वोदय सम्मेलन के लिए निमंत्रण आया।  सातवें महाराष्ट्र सरकार के डेयरी विकास गौशाला के लिए विचार विमर्श करने गए।  इसके पश्च्यात हलदार को केंद्रीय मंत्रालय से जवानों के भोजन की व्यवस्था के लिए सहायता करने का आदेश आया।  दिल्ली से वह सूरत गए और वहां हलधर को न पाकर मुंबई पहुंचे उन्हें बताया गया कि यू एन  जेबर, राधा कृष्ण बजाज श्री शगन लाल जोशी उनके लिए जोरहाट  में प्रतीक्षा कर रहे थे।  और उन्हें सायं काल से पहले वहां पहुंचना था।  उन्हें सेना के एक विमान से जोरहाट ३  बजे ले जाया गया।  २  लोग सरकार की तरफ से भेजे गए थे सैनिकों को दूध कैसे भेजा जाए और इसकी जिम्मेदारी हलदर को लेनी थी हलधर उनके साथ सदिया असम पहुंचे जो ब्रह्मपुत्र के तट पर है।  गौशाला से दूध एकत्र करने का कार्य आरंभ हुआ। गाँव  वालों को गाय खरीदने की व्यवस्था की गई और कई गौशालाओं का निर्माण हुआ तीन से चार संस्थान बनाए गए लखीमपुर में दूध इकट्ठा करने के लिए अंत में भारतीय डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड के लिए जवानों को दूध पहुंचाने का कार्य सफल हुआ हलधर ने सरकार को वर्तमान गौशाला के विकास के लिए आवेदन भेजा जो कभी भी पूरा नहीं हो सका। 

सन १९५८  में जब वे केंद्रीय परिषद के सदस्य थे हलदर ने दो प्रस्ताव मुंबई में रखा इसका उद्देश्य था कि विभाजन के समय भारत के सर्वश्रेष्ठ नस्ल की गाय सिंधी साहिल पाकिस्तान चले गए थे।  भारत में केवल हरियाणा नस्ल की गाय बची थी।  इसके कारण अच्छी नस्ल की गाय विभिन्न वातावरण की परिस्थितियों में बच नहीं पाती थी और उनका उपयोग गौ मांस के लिए होता था इस कारण हरियाणा नस्ल की गायों का धीरे धीरे लुप्त होना स्वाभाविक था। उनका पहला प्रस्ताव था की हरियाणा नस्ल की गायों को दूसरे राज्यों में ना भेजना और दूसरा पी एल ४८०  समझौते के तहत अमेरिका से भारत को उर्वरक भेजा जाएगा और उसका भुगतान भारत को कपास के बीज  ३-४  तरह के तेल के बीज, अनाज और जानवरों की हड्डियां भेजना था।  अमेरिका में उर्वरकों की अत्यधिक उपयोग से  भूमि विकृत हो गई थी।  और उन्हें जानवरों की हड्डियों से जमीन को उपजाऊ बनाना था।  अमेरिका में कपास के बीज से वनस्पति घी बनाया जाता था वह इसको भारत भेजते थे और उसके अवशेषों का उर्वरक के रूप में उपयोग करते थे।  हलदर ने दूसरे प्रस्ताव पर भी ध्यान देने की आवश्यकता पर जोर दिया उस समय सी एस के पटेल कृषि मंत्री थे और परिषद के अध्यक्ष भी । उन्होंने प्रस्ताव पर सहमति व्यक्त की परन्तु कोई कार्यवाही नहीं की।  हलधर ने अपने पद से त्यागपत्र दे  दिया क्योंकि उन्हें ऐसे लोगों के साथ कार्य करने में कोई उत्साह नहीं था जो कार्य में प्रतिबद्धता नहीं दिखाते थे। 


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